पटना: बिहार में लोकसभा की 40 सीटें है. इस बार चुनाव में राष्ट्रीय क्षेत्रीय और कई गैर मान्यता प्राप्त दल के साथ निर्दलीय चुनाव मैदान में है. चुनाव आयोग की तरफ से चुनाव चिन्ह दिया गया. चुनाव आयोग की तरफ से किसी को गैस का सिलेंडर दिया गया है, तो किसी को लेडिज पर्स तो किसी को सेब तो किसी को सिटी आवंटित किया गया है. राजनीतिक विश्लेषक का मानना है कि चुनाव चिन्ह जीत हार में बड़ी भूमिका निभाता है. नया चुनाव चिन्ह मिलने पर जनता के बीच उसकी पहचान बनाना एक बड़ी चुनौती होती है.
छोटे दलों को ये चुनाव चिन्हः बिहार में राष्ट्रीय राज्य स्तरीय और गैर मान्यता प्राप्त दलों की संख्या 90 से अधिक है. पहले चरण का चुनाव 19 अप्रैल को होना है. चुनाव आयोग की तरफ से चुनाव चिन्ह का आवंटन भी कर दिया गया है. इस बार मुकेश सहनी की पार्टी वीआईपी को लेडिज पर्स दिया गया है तो उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा को गैस सिलेंडर मिला है. जन स्वराज पार्टी को सेब दिया गया है तो वहीं आल इंडिया नेशनल रक्षा सेना को अंगूठी चुनाव-चिह्न मिला है. मिशन इंडिपेंडेंट जस्टिस पार्टी को ह्विसिल यानी सीटी चुनाव चिह्न आवंटित है. किसान क्रांति दल का चुनाव-चिह्न भोजन से भरी थाली है.
चुनाव चिन्ह से मुकेश सहनी नाराजः वीआईपी के मुकेश सहनी ने नाव की जगह इस बार लेडिज पर्स चुनाव चिन्ह आवंटित किए जाने पर नाराजगी जताते हुए इसे भाजपा की साजिश बताया है. मुकेश सहनी ने तो यहां तक कहा प्रधानमंत्री मोदी ने देश की 927 पार्टी को समाप्त कर दिया है. वीआईपी को भी समाप्त करने की कोशिश की गई है. असल में वीआईपी को पहले नाव चुनाव चिन्ह मिला हुआ था. इस बार किसी दूसरी पार्टी को यह चुनाव चिन्ह दे दिया गया है. मुकेश सहनी मल्लाह जाति की पॉलिटिक्स करते हैं नाव चिन्ह रहने से उन्हें इसका लाभ मिल रहा था. लेकिन इस बार भारतीय सार्थक पार्टी को नाव चुनाव चिह्न दिया गया है.
"राजनीतिक विश्लेषक रवि उपाध्याय का कहना है कि चुनाव आयोग की तरफ से दिए जाने वाले चुनाव चिन्ह की चुनाव में बड़ी भूमिका होती है. राष्ट्रीय दल का चुनाव चिन्ह तो हमेशा तय रहता है. लोग जानते हैं. राज्य स्तरीय क्षेत्रीय दलों का भी चुनाव चिन्ह तय रहता है. लेकिन गैर मान्यता प्राप्त दलों और निर्दलीय का चुनाव चिन्ह हर बार बदल जाता है. ऐसे में उनके लिए जनता के बीच पहचान बनाना एक बड़ी चुनौती होती है." - रवि उपाध्याय, राजनीतिक विश्लेषक
चुनाव चिन्ह का इतिहासः भारत की आजादी से पहले देश में दो प्रमुख राजनीतिक दल थे. पहली थी कांग्रेस और दूसरी मुस्लिम लीग. कांग्रेस पार्टी की स्थापना के बाद दो बैलों का जोड़ा कांग्रेस पार्टी का सिंबल था. वहीं, 1906 में बनने वाली ऑल इंडिया मुस्लिम लीग का अर्ध चंद्रमा और तारा पार्टी का चुनाव चिन्ह था. लेकिन इंडिया में पार्टी सिंबल या चुनाव चिन्ह के सफर की असली कहानी साल 1951 के बाद शुरू हुई थी. 1952 में कुल 14 पार्टियां चुनाव में शामिल हुई थी. आज पूरे देश में ढाई हजार से भी अधिक पार्टियां हैं.
चुनाव चिन्ह का आवंटनः भारत में चुनाव कराने से लेकर पार्टियों को मान्यता और उन्हें चुनावी सिंबल देने का काम इलेक्शन कमीशन ही करता है. चुनाव आयोग को संविधान के आर्टिकल 324, रेप्रजेंटेशन ऑफ द पीपुल ऐक्ट 1951 और कंडक्ट ऑफ इलेक्शंस रूल्स 1961 के माध्यम से यह पावर मिलती है. इलेक्शन कमीनशन The Election Symbols (Reservation and Allotment) Order, 1968 के मुताबिक चुनाव चिन्ह का आवंटन करता है.
आयोग के पास चुनाव चिह्नों की दो लिस्टः इलेक्शन कमीशन के पास कई तरह के चुनावी चिन्ह की भरमार होती है. आयोग चुनाव चिह्नों के लिए दो लिस्ट तैयार करके रखता है. पहली लिस्ट में वे चिन्ह होते है, जिनका आवंटन पिछले कुछ सालों में होता है. वहीं, दूसरी लिस्ट में ऐसे सिंबल होते हैं जिनको किसी दूसरे को नहीं दिया गया होता है. चुनाव आयोग अपने पास रिजर्व में कम से कम ऐसे 100 सिंबल हमेशा रखता है, जो अब तक किसी को नहीं दिए गए हैं. हालांकि, कोई पार्टी अगर अपना चुनावी सिंबल खुद चुनाव आयोग को बताता है और वह सिंबल किसी के पास पहले से नहीं है तो कमीशन उस पार्टी को दे देता है.