गोपालगंज:बिहार का गोपालगंज लोकसभा सीट नोटा दबाने में पिछले चुनाव में नंबर एक पर था. यहां 50 हजार से ऊपर लोगों ने नोटा का बटन दबा कर राजनीतिक दलों का लोकतंत्र के जरिए विरोध किया था. पांच साल गुजर चुके हैं, और गोपालगंज में छठे चरण में 25 मई को मतदान होना है. ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या एक बार फिर लोग नोटा का बटन दबाएंगे या फिर किसी नेता पर भरोसा जताकर अपने क्षेत्र की जिम्मेदारी सौंपेंगे.
लोगों ने क्यों चुना नोटा का विकल्प?:नोटा यानी 'नन ऑफ द एबव', मतदाता जब किसी भी उम्मीदवार को योग्य पाने की स्थिति में नहीं है, तो इसका चयन करते हैं. इस संदर्भ राजनीतिक विश्लेषक और समाजिक कार्यकर्ता विमल कुमार ने बताया कि 2019 में गोपालगंज में 51,600 वोट नोटा को पड़े थे, मतलब इतनी जनता ने किसी पर भरोसा नहीं जताया था.
'जाति प्रभावी होना वजह': विमल कुमार ने बताया कि नोटा का वोटिंग पैटर्न बता रहा है कि गोपालगंज सुरक्षित सीट है, जबकि यहां अपर कास्ट के लोग प्रभावी हैं. जनता को सुरक्षित सीट से नाराजगी है, इसलिए प्रत्याशी किसी भी पार्टी का हो, वो नोटा को चुन रहे हैं. कुछ लोगों ने नोटा के जरिए अपने गुस्से का इजहार किया है. इसीलिए सुरक्षित सीटों पर नोटा के वोट ज्यादा पड़े हैं.
"गोपालगंज में नोटा को इसलिए वोट पड़ा, क्योंकि यहां के मतदाता प्रत्यासी पर विश्वास नहीं करते हैं. सीट सुरक्षित है, वह भी उन्हें पसंद नहीं है. यहां नेता चुनाव लड़ने नहीं आरहे हैं. कोई व्यवसायी या कोई और धन-बल के कारण चुनाव लड़ रहे हैं, इसलिए लोगों में गुस्सा हैं. महागठबंधन के प्रत्याशी को तो लोग जानते भी नहीं हैं. इस बार 70-75 हजार वोट नोटा को जा सकता है"-विमल कुमार, राजनीतिक विश्लेषक
क्या कहते हैं वरिष्ठ पत्रकार: इस मामले पर वरिष्ठ पत्रकार वरुण मिश्रा ने बताया कि यहां जाति और जमीनी इज्जत की लड़ाई है. अगर उस खास जाति का आदमी नहीं लड़ रहा है तो लोग दूसरे को वोट क्यों दें, ऐसी मानसिकता है. उन्होंने कहा कि इस बार नोटा का दायरा बढ़ सकता है क्योंकि जिस प्रत्याशी को उतारा गया है, उसकी राजनीतिक पृष्ठभूमी ही नहीं है. नोटा का बढ़ना एक तरह से मतदाताओं का दबाव है.
'नोटा पर नहीं है किसी का ध्यान':वरुण मिश्रा ने बताया कि इतनी संख्या में नोटा का चयन लोगों के द्वारा किया गया, लेकिन इसपर किसी का ध्यान नहीं है. चुनाव बीतने के बाद चुनाव आयोग इस पर विचार नहीं करता है. साथ ही केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार या फिर जिला प्रशासन उसकी तरफ से कोई विश्लेषण नहीं किया जाता है. जनता के मन में यह बात रहती है कि जो प्रत्याशी बना है, वह हमारी आवाज संसद तक पहुंचाएगा ही नहीं, तो उसे वोट क्यों देंगे.
"जिस प्रकार से नीतियां बन रही है. संकीर्ण विचारधारा की मानसिकता विकास के मार्ग पर आ रही है. इससे कुछ वर्ग को लग रहा है कि वह उपेक्षित है. इस बात को प्रतिनिधि सदन में नहीं उठा पा रहे हैं. इस बार परिस्थितियां कुछ अलग नहीं है. इस बार वीआईपी को यह सीट मिली, जो बिल्कुल नए है और उनके प्रति भी नाराजगी है. उनकी राजनीतिक पृष्टभूमि नहीं रही है. अनुमान लगाया जा रहा है, कि इस बार नोटा का दायरा बढ़ सकता है."-वरुण मिश्रा, वरिष्ठ पत्रकार