जयपुर.स्टेट पीरियड के समय मनोरंजन का प्रमुख साधन रहा तमाशा जयपुर के परकोटा क्षेत्र में आज भी हर साल जीवंत हो उठता है. सवाई जयसिंह द्वितीय की बसाई नगरी में लोकनाट्य की ये पारंपरिक विधा जितनी पुरानी है, उसमें करंट अफेयर्स का तड़का लगाकर हर साल इसे नया कर दिया जाता है. ब्रह्मपुरी के छोटे अखाड़े में शास्त्रीय संगीत के साथ इस बार भी रांझा-हीर तमाशा का मंच सजेगा. खास बात ये है कि जिस तरह इस तमाशा का भट्ट परिवार की सात पीढ़ियां मंचन करती आई हैं, उसी तरह दर्शकों की भी सात पीढ़ियां देखने के लिए हर साल होली पर यहां जुटती है.
रांझा का राजनीति पर कटाक्ष :भगवा वस्त्र, सिर पर कलंगी वाला मुकुट, हाथ में मोर पंख, पैरों में घुंघरू बांध रांझा एक बार फिर राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर कटाक्ष करते हुए लोगों को तमाशा की इस पुरानी विधा में नया आभास कराएंगे. हीर के प्यार में फिरते हुए हारमोनियम और तबले की धुन पर एक साल को बारहमासी के रूप में पेश करेंगे. जयपुर की विरासत के साथ जुड़े हुए इस रंग की होली पर छटा बिखरेगी. तमाशा के निर्देशक वासुदेव भट्ट ने बताया कि एक जमाना था जब उनके पूर्वज तमाशा का मंचन किया करते थे. तब एक चौराहे से दूसरे चौराहे तक दर्शकों की भीड़ रहती थी. उस दौर में माइक नहीं होता था और शास्त्रीय संगीत के साथ उनकी आवाज दूर तक जाया करती थी, जिसका हर दर्शक मजा लेता था.
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तमाशा में सामाजिक समरसता:उन्होंने बताया कि राजा-महाराजा, बड़े-बड़े जागीरदार और राजपुरोहित जयपुर की बसावट से ही इस तमाशा को देखने आया करते थे. आम जनता इससे विशेष रूप से जुड़ी हुई थी. खास बात ये है कि तमाशा में सामाजिक समरसता देखने को मिलती थी. अमीर-गरीब, ऊंच-नीच के भेद के पार सब एक जाजम पर बैठकर इस तमाशा का लुत्फ उठाया करते थे. इस तमाशा की ऑडियंस भी निश्चित है. इसका दर्शक वर्ग पीढ़ी दर पीढ़ी जुड़ा हुआ है. दर्शकों से पूछते हैं तो उनका भी यही कहना होता है कि उनके पिताजी-दादाजी इसे देखने आया करते थे और आज वो भी इसका आनंद लेने के लिए पहुंचते हैं.