भोपाल :इंसाफ के लिए उठती आवाजें भी जब अनसुनी रह जाती हों, तो प्रीति तो दुनिया में बेआवाज ही आई. लेकिन वो अपने जैसे हजारों बेआवाजों की आवाज बनना चाहती हैं. प्रीति सुन नहीं सकती लेकिन इशारों में दर्ज होते उसके इरादे आसमान तक सुनाई देते हैं. प्रीति सोनी का वर्तमान ये है कि वो इस समय मध्यप्रदेश के भोपाल में एलएलबी फर्स्ट सेमेस्टर की छात्रा हैं और भविष्य ये कि वकालत पूरी कर लेने के बाद संभवत: देश की तीसरी बधिर वकील होंगी. प्रीति ने अपने जैसे बधिर लोगो की आवाज बनने का फैसला क्यों किया उसके पहले आपका ये जान लेना जरुरी है कि प्रीति के मुताबिक देश में अब तक केवल दो बधिर वकील हुई हैं. तीसरी खुद प्रीति हैं, जो वकील बनने की प्रक्रिया में हैं.
बोल नहीं सकतीं फिर भी चुना एलएलबी
प्रीति ने सांकेतिक भाषा और इंटरप्रेटर के जरिए ईटीवी भारत से अपनी बात रखी. उन्होंने कहा, '' एलएलबी करने की वजह ये थी कि मेरे इतने अनुभव रहे हैं, कोर्ट में, पुलिस में, मेरे जैसे बधिर लोगों के लिए कोई सुविधा नहीं होती. डेफ लोगों को कोर्ट में और पुलिस स्टेशन में इतनी दिक्कतें होती हैं क्योंकि उनके पास इंटरप्रेटर नहीं होते. मैं उनकी मदद करने की कोशिश करती हूं. तो मुझे तब ही से लगता था कि मेरी इस क्षेत्र में नॉलेज कम है. मैं सीखती हूं, मैं मदद करती हूं डेफ कम्यूनिटी की. क्योंकि डेफ कम्यूनिटी के दुष्कर्म के, प्रॉपर्टी रिलेटेड केस जैसे कई मामले होते हैं, जिन्हे मैं समाधान तक ले जाना चाहती हूं.''
साइन लैंग्वेज से सुलझाऊंगी मामले
प्रीति एक सपना लिए जी रही हैं, वे साइन लैग्वेज में अपना ये सपना ईटीवी भारत से बातचीत में दिखाती हैं. बताती हैं, '' इंडिया की सबसे पहली बधिर वकील सौदामिनी वो गुजर चुकी हैं. दूसरी हैं सारा सनी, जो बैंगलोर में प्रैक्टिस कर रही हैं. तीसरी मैं, तो अभी तो पढ़ाई कर रही हूं. मैं ये चाहती हूं कि मैं पूरी तरह से लॉयर का काम शुरु करूं और साइन लैग्वेज के जरिए अपनी डेफ कमयूनिटी की मदद करूं.''
घर में सवाल उठे, कॉलेज में जवाब नहीं मिले
प्रीति सोनी भोपाल के पीपुल्स कॉलेज से एलएलबी कर रही हैं. लेकिन एमए बीएड कर लेने के बाद अचानक से वकील बनने के उनके फैसले में भी काफी मुश्किलें आई. प्रीति संकेतों की भाषा में बताती हैं, '' जब मैं एलएलबी करने का प्लान कर रही थी तो पति ये नहीं चाहते थे. वे सोचते थे कि एमए कर लिया है, बीएड कर लिया है, अब वकालत क्यों करना है? पर मैं ठान चुकी थी कि अब लॉयर की भी पढ़ाई करूंगी. लेकिन दिक्कत ये थी कि उसके लिए पैसे लगते हैं. वो हमें सोचना पड़ा. मुझे लगा की फंडिग मिल जाएगी. मैंने बहुत सोचा पर मैं गिवअप नहीं करना चाहती थी. डेफ कम्यूनिटी बहुत दिक्कतों से गुजरती है. फिर जब मैं कॉलेज गई तो मैंने देखा कि सुविधा नहीं है, टीचर्स अपना बोलती रहती हैं. कोई इंटरप्रेटर नहीं है, मुझे अपना इंटरप्रिटर लाना पड़ा. साइन लैंग्वेज टीचर्स को नहीं आती, डेफ को कैसे पढ़ाना चाहिए उनके लिए पीपीटी होना चाहिए, विजुल्स होना चाहिए. कैसे एक्सेसेबल एजुकेशन होना चाहिए डेफ के लिए उन्हें डेफ कल्चर की कोई नॉलेज नहीं है. इस तरीके से बहुत सारी दिक्कतें आई मुझे.''