गयाःएक बार फिर देश में चुनावी बिगुल बजने वाला है, पूरे ताम-झाम के साथ हमारे नेताओं का काफिला वोटरों के गांव और घरों में पहुंचेगा. तमाम तरह के बड़े-बड़े वादे होंगे. क्षेत्र में विकास और खुशहाली की बात होगी. लेकिन ये सब हकिकत में होगा या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं, तभी तो बिहार के गया जिले का ये गांव आज भी पूछ रहा है कि हमारी किस्मत कब बदलेगी? यहां आए तमाम नेताओं के वादे जमीनदोज हो गए, जी हां हम बात कर रहे हैं गया के खड़ाऊ और लुटीटाड़ गांव की, जहां वोट देना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं.
इमामगंज प्रखंड काबदहाल गांव : गया जिले के कई ऐसे गांव है, जहां आजादी के बाद से दुर्भाग्य ने उनका साथ नहीं छोड़ा. ऐसे इलाके विकास से कोसों दूर हैं. गया का खड़ाऊ और लुटीटाड़ ऐसा इलाका है, जहां विकास की तस्वीर नहीं दिखती है. आज भी ये गांव पिछड़े हैं. खड़ाऊ और लूटीटांड़ गांव गया के नक्सल प्रभावित इमामगंज प्रखंड में आता है. यह गांव आज भी सड़क, पेयजल, स्वास्थ्य जैसी समस्याओं से जूझ रहा है. आजादी के सात दशक बाद भी काफी दूर तक लोग पैदल ही चलकर वोट करने जाते हैं.
ना सीरत बदली ना गांव की सूरत :इस गांव में कई किलोमीटर तक पहुंच पथ नहीं है. उबड़-खाबड़ सड़क मार्ग के जरिए 20 से 25 किलोमीटर की यात्रा करके इन गांवों में मैगरा, बरहा के रास्ते ही पहुंचा जा सकता है. इसमें भी कई किलोमीटर की यात्रा दोपहिया वाहन से ही संभव हो सकती है. ये दुर्भाग्य है कि विकास का दावा करने वाली सरकारों के काल में भी खड़ाऊ और लुटीटाड़ पहुंचने के लिए एक अच्छी सड़क मुयस्सर नहीं है, जबकि दोनों गांव इमामगंज प्रखंड के अंतर्गत आते हैं.
7-8 किलोमीटर दूर है मतदान केंद्र :यहां के लोगों के लिए वोट करना किसी चुनौती से कम नहीं है, क्योंकि जब वोट डालने को निकलते हैं, तो उनके सामने जंगल और पहाड़ी इलाका होता है. मतदान केंद्र तक पहुंचने के लिए यही एक मात्र विकल्प है. करीब 7 से 8 किलोमीटर की दूरी पर खड़ाऊ गांव से मल्हारी गांव है. जहां इनका मतदान केंद्र होता है. ऐसे में इस गांव के लोग पैदल ही वोट देने को निकल पड़ते हैं. बुजुर्गों का मतदान केंद्र पर पहुंचना संभव ही नहीं. वोट देकर लौटने में सुबह से शाम हो जाती है, खाने के लिए सत्तू और मकई का भुजा बांंधकर निकलना पड़ता है.
"वोट देने के लिए 7-8 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है. खड़ाऊ गांव का मतदान केंद्र मल्हारी में है. मल्हारी की दूरी 7 से 8 किलोमीटर की पड़ती है. वहां जाने के लिए कोई रास्ता नहीं है. हमलोग जंगल और पहाड़ के रास्ते ही पैदल चलकर वोट देने को पहुंचते हैं. सुबह से शाम हो जाती है. भूख से बचने के लिए मकई का भुजा, सत्तू बांंधकर ले जाते हैं"-अर्जुन सिंह भोक्ता, ग्रामीण