देहरादून: राजधानी देहरादून में बढ़ते कंकरीट के जंगल और बदलते वातावरण में दून की पहचान खत्म होती जा रही है. कभी देश और दूनिया के बाजारों में लीची की रौनकर देखने को मिलती थी, लेकिन आज बदलते मौसम के साथ लीची की पैदावार और स्वाद में भी गिरावट आई है.
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एक समय देहरादून अपने मौसम के साथ यहां के बासमती चावल और लीची के लिए जाना जाता था, लेकिन धीरे-धीरे दून की आबोहवा में आये बदलाव ने न केवल बासमती बल्कि लीची की रंगत को भी बेरंग कर दिया है. आंकड़े बताते हैं कि दून की लीची कैसे साल दर साल अपनी पहचान खोती चली गई.
जानकारी के अनुसार साल 1970 में करीब 6500 हेक्टेयर लीची के बाग देहरादून में मौजूद थे, जो धीरे-धीरे अब महज 3070 हेक्टेयर भूमि पर ही रह गए है. पिछले साल करीब 8000 मीट्रिक टन लीची का उत्पादन हुआ था, जबकि इस बार इसमें और अधिक गिरावट देखने को मिली है.
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उत्पदाक में आई 50 फीसदी की कमी
लीची उत्पादक बताते हैं कि समय के साथ देहरादून की लीची का स्वरूप बदला है. लीची उत्पादक में काफी कमी देखी गई है. उत्पादक बताते हैं कि 10 साल पहले एक लीची के पेड़ पर करीब एक कुंतल लीची का उत्पादन होता था. जो अब घटकर 50 किलो तक ही रह गया है. यानि लीची के उत्पादक में करीब 50 फीसदी तक की कमी आई है.
बाहरी प्रदेशों से लीची लेने दून आते थे लोग
देहरादून में न केवल लीची का उत्पादन कम हुआ है, बल्कि लीची के स्वरूप और स्वाद में भी अंतर आ गया है. पहले के मुकाबले लीची छोटी हो गई है. वहीं, उसके रंग और मिठास भी पहले से फीका हो गया है. स्थानीय लोगों कि माने तो पहले दून की लीची के लेने के लिए अन्य प्रदेशों से भी लोग आते थे, लेकिन अब पहले वाली बात नहीं रही.
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देहरादून में खासतौर पर विकासनगर, नारायणपुर, बसंत विहार, रायपुर, कौलागढ़, राजपुर और डालनवाला क्षेत्रों में लीची के सबसे ज्यादा बाग थे, लेकिन उत्तराखंड बनने के बाद देहरादून के घोषित होते ही जमीनों के बढ़ते दामों के चलते दून के तमाम बागों पर कंक्रीट के जंगल उग आए. दून में विकास कार्यों ने ऐसी रफ्तार पकड़ी की यहां की आबोहवा भी बदल गई. जिसका सीधा असर लीची के स्वाद पर और इसकी पैदावार पर दिखाई दे रहा है. यही कारण है कि कभी लीची के लिए पहचाने जाने वाले देहरादून में आज लीची ही खत्म होती जा रही है.