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खत्म होती जा रही है दून की 'पहचान', लीची की पैदावार में आई भारी गिरावट

साल 1970 में करीब 6500 हेक्टेयर लीची के बाग देहरादून में मौजूद थे, जो धीरे धीरे अब महज 3070 हेक्टेयर भूमि पर ही रह गए है.

Lychee production
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Published : May 31, 2019, 8:04 PM IST

Updated : May 31, 2019, 11:12 PM IST

देहरादून: राजधानी देहरादून में बढ़ते कंकरीट के जंगल और बदलते वातावरण में दून की पहचान खत्म होती जा रही है. कभी देश और दूनिया के बाजारों में लीची की रौनकर देखने को मिलती थी, लेकिन आज बदलते मौसम के साथ लीची की पैदावार और स्वाद में भी गिरावट आई है.

खत्म होती जा रही है दून की 'पहचान'

पढ़ें- दावानल से लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा असर, बढ़ रही अस्थमा के मरीजों की संख्या

एक समय देहरादून अपने मौसम के साथ यहां के बासमती चावल और लीची के लिए जाना जाता था, लेकिन धीरे-धीरे दून की आबोहवा में आये बदलाव ने न केवल बासमती बल्कि लीची की रंगत को भी बेरंग कर दिया है. आंकड़े बताते हैं कि दून की लीची कैसे साल दर साल अपनी पहचान खोती चली गई.

जानकारी के अनुसार साल 1970 में करीब 6500 हेक्टेयर लीची के बाग देहरादून में मौजूद थे, जो धीरे-धीरे अब महज 3070 हेक्टेयर भूमि पर ही रह गए है. पिछले साल करीब 8000 मीट्रिक टन लीची का उत्पादन हुआ था, जबकि इस बार इसमें और अधिक गिरावट देखने को मिली है.

पढ़ें- मोदी कैबिनेट में निशंक को मिली बड़ी जिम्मेदारी, HRD मंत्रालय का संभाला पदभार

उत्पदाक में आई 50 फीसदी की कमी
लीची उत्पादक बताते हैं कि समय के साथ देहरादून की लीची का स्वरूप बदला है. लीची उत्पादक में काफी कमी देखी गई है. उत्पादक बताते हैं कि 10 साल पहले एक लीची के पेड़ पर करीब एक कुंतल लीची का उत्पादन होता था. जो अब घटकर 50 किलो तक ही रह गया है. यानि लीची के उत्पादक में करीब 50 फीसदी तक की कमी आई है.
बाहरी प्रदेशों से लीची लेने दून आते थे लोग

देहरादून में न केवल लीची का उत्पादन कम हुआ है, बल्कि लीची के स्वरूप और स्वाद में भी अंतर आ गया है. पहले के मुकाबले लीची छोटी हो गई है. वहीं, उसके रंग और मिठास भी पहले से फीका हो गया है. स्थानीय लोगों कि माने तो पहले दून की लीची के लेने के लिए अन्य प्रदेशों से भी लोग आते थे, लेकिन अब पहले वाली बात नहीं रही.

पढ़ें- गढ़वाल विश्वविद्यालय में बदलेगा छात्रसंघ चुनाव का पैटर्न, अब फैकल्टी वाइज होगा चुनाव

देहरादून में खासतौर पर विकासनगर, नारायणपुर, बसंत विहार, रायपुर, कौलागढ़, राजपुर और डालनवाला क्षेत्रों में लीची के सबसे ज्यादा बाग थे, लेकिन उत्तराखंड बनने के बाद देहरादून के घोषित होते ही जमीनों के बढ़ते दामों के चलते दून के तमाम बागों पर कंक्रीट के जंगल उग आए. दून में विकास कार्यों ने ऐसी रफ्तार पकड़ी की यहां की आबोहवा भी बदल गई. जिसका सीधा असर लीची के स्वाद पर और इसकी पैदावार पर दिखाई दे रहा है. यही कारण है कि कभी लीची के लिए पहचाने जाने वाले देहरादून में आज लीची ही खत्म होती जा रही है.

देहरादून: राजधानी देहरादून में बढ़ते कंकरीट के जंगल और बदलते वातावरण में दून की पहचान खत्म होती जा रही है. कभी देश और दूनिया के बाजारों में लीची की रौनकर देखने को मिलती थी, लेकिन आज बदलते मौसम के साथ लीची की पैदावार और स्वाद में भी गिरावट आई है.

खत्म होती जा रही है दून की 'पहचान'

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एक समय देहरादून अपने मौसम के साथ यहां के बासमती चावल और लीची के लिए जाना जाता था, लेकिन धीरे-धीरे दून की आबोहवा में आये बदलाव ने न केवल बासमती बल्कि लीची की रंगत को भी बेरंग कर दिया है. आंकड़े बताते हैं कि दून की लीची कैसे साल दर साल अपनी पहचान खोती चली गई.

जानकारी के अनुसार साल 1970 में करीब 6500 हेक्टेयर लीची के बाग देहरादून में मौजूद थे, जो धीरे-धीरे अब महज 3070 हेक्टेयर भूमि पर ही रह गए है. पिछले साल करीब 8000 मीट्रिक टन लीची का उत्पादन हुआ था, जबकि इस बार इसमें और अधिक गिरावट देखने को मिली है.

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उत्पदाक में आई 50 फीसदी की कमी
लीची उत्पादक बताते हैं कि समय के साथ देहरादून की लीची का स्वरूप बदला है. लीची उत्पादक में काफी कमी देखी गई है. उत्पादक बताते हैं कि 10 साल पहले एक लीची के पेड़ पर करीब एक कुंतल लीची का उत्पादन होता था. जो अब घटकर 50 किलो तक ही रह गया है. यानि लीची के उत्पादक में करीब 50 फीसदी तक की कमी आई है.
बाहरी प्रदेशों से लीची लेने दून आते थे लोग

देहरादून में न केवल लीची का उत्पादन कम हुआ है, बल्कि लीची के स्वरूप और स्वाद में भी अंतर आ गया है. पहले के मुकाबले लीची छोटी हो गई है. वहीं, उसके रंग और मिठास भी पहले से फीका हो गया है. स्थानीय लोगों कि माने तो पहले दून की लीची के लेने के लिए अन्य प्रदेशों से भी लोग आते थे, लेकिन अब पहले वाली बात नहीं रही.

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देहरादून में खासतौर पर विकासनगर, नारायणपुर, बसंत विहार, रायपुर, कौलागढ़, राजपुर और डालनवाला क्षेत्रों में लीची के सबसे ज्यादा बाग थे, लेकिन उत्तराखंड बनने के बाद देहरादून के घोषित होते ही जमीनों के बढ़ते दामों के चलते दून के तमाम बागों पर कंक्रीट के जंगल उग आए. दून में विकास कार्यों ने ऐसी रफ्तार पकड़ी की यहां की आबोहवा भी बदल गई. जिसका सीधा असर लीची के स्वाद पर और इसकी पैदावार पर दिखाई दे रहा है. यही कारण है कि कभी लीची के लिए पहचाने जाने वाले देहरादून में आज लीची ही खत्म होती जा रही है.

Intro:फीड live u से lichi production नाम से भेजी है।

देहरादून में बढ़ते कंकरीट के जंगल और बदलता वातावरण दून की पहचान को खत्म कर रहा है... एक समय देश दुनिया में दून की रोज सेंटेड और कोलकाता किस्म की लीची बहुआयतीत होती थी लेकिन समय के साथ लीची की पैदावार समेत उसके स्वाद में भी गिरावट आई है। देखिये दून की मशहूर लीची पर ये खास रिपोर्ट.....


Body:एक समय देहरादून अपने मौसम के साथ यहां की बासमती और लीची के लिए जाना जाता था लेकिन धीरे धीरे दून की आबोहवा में आये बदलाव ने न केवल बासमती बल्कि लीची की रंगत को भी बेरंग से कर दिया। आंकड़े बताते हैं कि दून की लीची कैसे साल दर साल अपनी पहचान खोती चली गई। जानकारी के अनुसार साल 1970 में करीब 6500 हेक्टेयर पर लीची के बाग देहरादून में मौजूद थे जो धीरे धीरे अब महज 3070 हेक्टेयर भूमि पर ही मौजूद है। पिछले साल करीब 8000 मीट्रिक टन लीची का उत्पादन हुआ था जबकि इस बार फिलहाल उत्पादन में काफी गिरावट देखने को मिल रही है। लीची उत्पादक बताते हैं कि समय के साथ देहरादून की लीची का स्वरूप बदला है और देहरादून में अब उत्पादन में बेहद ज्यादा कमी आई है उत्पादक बताते हैं कि 10 साल पहले एक लीची के पेड़ पर करीब एक कुंटल लीची का उत्पादन होता था जो अब घटकर 50 किलो तक ही रह गया है यानी करीब 50 फ़ीसदी उत्पादन में कमी लीची उत्पादक महसूस कर रहे हैं।

बाइट अनिल चड्डा लीची उत्पादक

देहरादून मे लीची की पैदावार ही कम नहीं हुई है बल्कि स्थानीय लोग बताते हैं कि लीची के स्वरूप और उसके स्वाद में भी पहले के मुकाबले बेहद ज्यादा अंतर आया है। लीची जहां पहले के मुकाबले काफी छोटी हो रही है तो वहीं उसके रंग और मिठास में भी बेहद ज्यादा बदलाव आया है। लोग बताते हैं कि पहले देहरादून में लीची के लिए दूसरे प्रदेशों से भी लोग आते थे और बेहद शौक के साथ खरीदारी करते थे लेकिन अब पहले वाली बात नही रही।

बाइट योगेश अग्रवाल स्थानीय निवासी

देहरादून में खासतौर पर विकासनगर, नारायणपुर, बसंत विहार, रायपुर, कालागढ़, राजपुर और डालनवाला क्षेत्रों में लीची के बेहद ज्यादा बाग थे लेकिन उत्तराखंड बनने के बाद देहरादून के राजधानी घोषित होते ही जमीनों के बढ़ते दामों के चलते दून के तमाम बागों पर कंक्रीट के जंगल उग आए। दून में विकास कार्य में ऐसी रफ्तार पकड़ी की यहां की आबोहवा भी बदल गई जिसका सीधा असर लीची के स्वाद पर और इसकी पैदावार पर दिखाई दे रहा है।




Conclusion:दून में लीची की पैदावार और उसके स्वाद में आए बदलाव की सबसे बड़ी वजह यहां के वातावरण में हुआ परिवर्तन रहा साथ ही बहुमंजिला इमारतों की अंधी दौड़ ने भी दून की इस मशहूर पहचान को खत्म कर दिया है।
Last Updated : May 31, 2019, 11:12 PM IST
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