चित्तौड़गढ़. वीर भूमि चित्तौड़गढ़ की वीरता, त्याग और बलिदान का इतिहास दुनिया में एक अलग ही स्थान स्थान रखता है. यहां 264 साल में 3-3 जौहर का इतिहास देखने को मिलता है. क्षत्राणियों के उस त्याग और बलिदान को यहां हर साल श्रद्धांजलि समारोह का आयोजन करते हुए याद किया जाता है. इस आयोजन में मेवाड़ ही नहीं, देश के हर कोने से राजपूत समाज के लोग शामिल होते हैं.
हालांकि, पुरातत्व विभाग की ओर से तीनों ही जौहर स्थल विजय स्तंभ के पास मान लिया गया है, लेकिन दंतकथाओं में पूरे किले को ही जौहर स्थल माना गया है. आज ईटीवी भारत आपको इन तीनों ही जौहर के इतिहास से रूबरू कराने जा रहा है, जहां हजारों क्षत्राणियों ने अपने देश की आन, बान, शान और सतीत्व की रक्षा के लिए खुद को धधकती हुई आग को समर्पित कर दिया था.
रानी पद्मिनी ने की थी शुरुआतः भारतीय इतिहास के पन्नों में रानी पद्मिनी का जौहर सुनहरे अक्षरों में अंकित है. अधिकृत गाइड त्रिलोक सालवी ने बताया कि दिल्ली के सम्राट अलाउद्दीन खिलजी लगातार दो हमलों में नाकाम रहा. इसके बाद उसने सन 1303 में 100000 सैनिकों के साथ फिर से चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर हमला बोला और उसकी इस चालबाजी में राणा रतन सिंह वीरगति को प्राप्त हुए. हालांकि, महाराणा रतन सिंह के पास सैनिक बहुत कम थे. ऐसे में रानी पद्मिनी की ओर से पहले से ही जौहर की तैयारियां शुरू कर दी गई. उन्होंने बताया कि जैसे ही राणा रतन सिंह के साथ सैनिकों के वीरगति के समाचार मिले, उन्होंने 16000 क्षत्राणियों के साथ अपने आपको धधकते जौहर कुंड को समर्पित कर दिया. साथ ही अलाउद्दीन खिलजी के मंसूबे धरे के धरे रह गए और उसे वापस लौटना पड़ा.
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बादशाह हुमायूं समय पर नहीं पहुंच पायाः चित्तौड़गढ़ के इतिहास में दूसरा जौहर महारानी कर्णावती के नाम रहा. गुजरात के बहादुर शाह की ओर से 1535 में चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण किया गया. बहादुर शाह की ओर से हमले की भनक लगने पर महारानी कर्णावती की ओर से बादशाह हुमायूं को राखी भेजकर मदद मांगी गई. हालांकि, हुमायूं अपनी सेना के साथ रवाना भी हो गया, लेकिन समय पर नहीं पहुंच पाया और महारानी कर्णावती ने करीब 13000 राजपूत सरदारनियों के साथ अग्नि कुंड में समर्पित होकर त्याग और बलिदान की नई गाथा लिखी.
अंतिम जौहर, जन जौहर थाः भारतीय इतिहास में महारानी कर्णावती के जौहर के करीब 32 साल बाद ही तीसरा और अंतिम जौहर दर्ज है. राजस्थान सरकार से अधिकृत गाइड त्रिलोक सालवी के अनुसार 1567 में अकबर ने चित्तौड़गढ़ पर हमला बोला था. उस दौरान सेनापति जयमल, फत्ता और कला राठौड़ की ओर से तत्कालीन महाराणा उदय सिंह और राज परिवार की सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए उन्हें चित्तौड़गढ़ दुर्ग से सुरक्षित बाहर निकाल दिया और अकबर की सेना से लोहा लिया. जिसमें तीनों ही शूरवीर वीरगति को प्राप्त हुए. इस पर सेनापति फत्ता की पत्नी फूल कंवर ने 7000 महिलाओं के साथ खुद को जौहर की बलिवेदी को समर्पित कर दिया. इस जौहर में आम महिलाओं ने भी हिस्सा लिया था, इस कारण इसे जन जौहर की भी संज्ञा दी जाती है.
युद्ध में जाने से पहले सजती थी जौहर वेदीः दंत कथाओं के अनुसार युद्ध में जाने से पहले महाराणा चंदन, नारियल, लकड़ी, घी आदि से जौहर वेदी सजवा कर जाते थे. जब भी केसरिया झंडा झूकने का संकेत मिलता, क्षत्राणियां हंसते हंसते जौहर कुंड में समर्पित हो जाती. वर्तमान में जिस स्थान को जौहर स्मृति स्थल माना गया है, वहां पहले 50 फीट से अधिक गहरा गड्ढा था, उसी में जौहर होता था.
तीन और स्थानों पर जौहर के चिह्नः गाइड सालवी के अनुसार केंद्र सरकार की ओर से विजय स्तंभ के पास जौहर स्थली को ही तीनों ही जौहर का स्थान मान लिया गया है. इसके अलावा भी अलग-अलग किवदंती भी प्रचलित है. राणा कुंभा महल की सुरंग के साथ-साथ भीमलत कुंड और सती मूर्ति स्थल को भी जौहर स्थल के रूप में पहचाना जाता है.
जौहर श्रद्धांजलि समारोह की शुरुआत : जौहर मेले का इतिहास भी रोचक है. आजादी के बाद पहली बार 1948 में महज हवन के रूप में जौहर स्मृति संस्थान द्वारा जौहर श्रद्धांजलि समारोह की शुरुआत हुई थी. बाद में सती मेले के नाम से बैठक होने लगी और धीरे-धीरे अब जौहर श्रद्धांजलि समारोह ने जौहर मेले के रूप में अपनी पहचान कायम की है. इसे पर्यटन विभाग के सहयोग से आयोजित किया जाने लगा है. यह समारोह न सिर्फ मेवाड़ के इतिहास का परिचायक बनता जा रहा है, बल्कि भारतीय इतिहास में सिर्फ चित्तौड़गढ़ ही ऐसी जगह है, जहां नारी स्वाभिमान की रक्षार्थ एक नहीं तीन बार जौहर हुए. जौहर श्रद्धांजलि समारोह चित्तौड़गढ़ के किले में हुए तीनों जौहर की याद दिलाता है.