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Bikaner Green Drive: परंपरागत जल स्रोत को बचाने की 'हरी भरी' मुहिम, युवाओं का भी मिल रहा साथ

दुनिया की आबादी बढ़ रही है. आबादी के लिहाज से जगह कम पड़ रही है. नतीजतन हरी भरी जमीनों को बेरंग (Bikaner green drive) किया जा रहा है. इससे वातावरण में असंतुलन बढ़ रहा है और जल संकट भी पैदा हो रहा है. वर्षों से सुनते आए भी हैं कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा. इस बात को कुछ ऐसे हैं जो गंभीरता से लेते हैं. ये वो लोग हैं जिन्हें अपने आज की ही नहीं, आने वाले कल की भी चिंता है. ऐसे ही कुछ ग्रीन क्रूसेडर्स बीकानेर में हैं.

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'हरी भरी' मुहिम
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Published : Jun 30, 2022, 2:12 PM IST

बीकानेर. शताब्दियों पहले आज की तरह सुविधाएं नहीं थी और सुविधाओं के अभाव में लोगों को जल परिवहन करना पड़ता था. एक घड़े पानी के लिए लोग बैलगाड़ी, ऊंट गाड़ी या फिर पैदल मीलों का सफर तय करते थे. उस वक्त पानी की कीमत को समझा गया और कुछ जागरूक लोगों ने सीमित साधनों से जल स्रोतों का निर्माण कराया. धीरे-धीरे बदलते वक्त में ये प्राचीन जल स्त्रोत खत्म हो गए. बीकानेर की भी कुछ ऐसी ही कहानी है. यहां भी शताब्दियों पहले ऐसे कई जल स्रोत यानी तालाब बने. बदलते समय और माहौल के साथ इनकी अनदेखी हुई और ये अपना अस्तित्व खो बैठे. कुछ ऐसी ही नेगेटिविटी के बीच कुछ बीकानेरियों ने जिम्मा उठाया ग्रीनरी के उस दौर को वापस लाने का जो पॉजिटिविटी का संचार करे. कुछ साल पहले जो जल स्त्रोत नाम के रह गए थे उन्हें उनके मूल स्वरूप में लाने की कवायद में जुट गए कुछ ग्रीन क्रूसेडर्स! ग्रीन क्रूसेडर्स यानी वो जो बीकानेर को हरा भरा करने के लिए प्रयासरत हैं. एक अभियान चला रखा है. इन्होंने आसपास की आगोर और जोड़ पायतन की बंजर जमीन को हरा-भरा करने का लोगों ने बीड़ा उठाया (Bikaner green drive) है. पूरे अभियान में सुखद पहलू यह है कि इस टीम में युवाओं की तादाद अच्छी खासी है.

दरअसल बीकानेर शहर के अंदरूनी क्षेत्र में हर्षोलाव, संसोलाव, महानंद तलाई और धरणीधर तालाब हुआ करते थे. उस वक्त बारिश के पानी से भरने के बाद पूरे साल लोगों की पेयजल संबंधी समस्या को दूर करने में मदद करते थे. बदलते वक्त में ये पुराने जल स्त्रोत लोगों के लिए अनुपयोगी हो गए, वजह वही सुविधाओं की ख्वाहिश रही. वो इस तरह की नहरें गांव ढाणी तक पहुंच गईं और इन तालाबों की अहमियत खुद ब खुद घट गई. फिर आबादी बढ़ने के साथ ही इन तालाबों की भूमि पर अतिक्रमण भी हो गया. पूरी तरह से बंजर और जोड़ पायतन की भूमि पर अतिक्रमण होने से ये तालाब केवल अपने नाम तक सिमट गए. हालांकि इन सब में केवल धरणीधर तालाब की सुध समय रहते ली गई और आज ये बीकानेर (Bikaner Go Green) में अलग पहचान बनाए हुए है. इसी राह पर चलते हुए महानंद तलाई, हर्षोलाव और संसोलाव तालाब की सुध लेने लोग आगे आए हैं और इन सब में अब महानंद तलाई क्षेत्र एक उदाहरण के रूप में स्थापित हो रहा है. स्थानीय लोगों ने बकायदा महानंद महादेव मंदिर पर्यावरण समिति का गठन कर लिया. इससे जुड़े लोगों की नियमित मेहनत का नतीजा है कि 6 साल में ही बंजर, उजाड़, वीरान भूमि की जगह हरियाली खिल खिला रही है.

'हरी भरी' मुहिम

सबका साथ पर्यावरण का विकास : कई बीघा में फैले महानंद मंदिर तालाब क्षेत्र के आस-पास आगोर की जमीन को अतिक्रमण से बचाया गया. समिति ने फिर इसे रेनोवेट करने का काम किया. कोशिश रंग लाई. कुछ दिन पहले बीकानेर में हुई प्री मानसून की पहली बारिश हुई तो तालाब के पैंदे में पानी नजर आया. तालाब में बारिश का पानी आए इसके लिए आगोर के पास ही एक रास्ता बनाते हुए उसे तालाब में छोड़ा गया. इसके अलावा तालाब और मंदिर क्षेत्र के आसपास के पूरे क्षेत्र को विकसित करते हुए तकरीबन 850 से ज्यादा पौधे लगाए गए जो अब पेड़ का रूप ले रहे हैं.

पढ़ें-World Environment day: मिलिए बीकानेर के ग्रीन मैन से! इनकी जिद्द ने मरुभूमि को हरा भरा बना दिया

करीब 4 महीने पहले स्थानीय विधायक और मंत्री बीडी कल्ला के प्रयासों से यहां एक ट्यूबवेल भी स्वीकृत हुआ. इस पूरे क्षेत्र में सुबह 5:00 बजे से लेकर 9:00 बजे तक और शाम को 6:00 बजे से लेकर 9:00 बजे तक समिति से जुड़े लोग हर दिन आते हैं और पौधों की सेवा करते हैं. यही कारण है कि अब पूरा क्षेत्र हरा भरा नजर आ रहा है. समिति से जुड़े नमामि शंकर कहते हैं कि नहर बंदी के दौरान काफी परेशानी हुई और जन सहयोग से यहां तकरीबन 100 से ज्यादा टैंकर जुटाए गए ताकि लगाए गए पौधे, पानी के अभाव में दम न तोड़ दें. गणेश आचार्य बताते हैं कि युवा और बुजुर्ग साथी हर रोज यहां मेहनत करते हैं, वॉक करते हैं साथ ही क्षेत्र को विकसित करने में अपना सहयोग देते हैं.

बीता कल प्रेरणास्पद: महानंद तलाई पर्यावरण समिति के गणेश आचार्य, राम कुमार आचार्य बताते हैं कि 350 साल पहले तालाब की खुदाई हुई थी. तब जैसलमेर से मथुरा के बीच का ये अहम पड़ाव था. इसकी खुदाई के बाद एक घड़े पानी की बात तय हुई. यानी जो भी पानी लेगा उसे एक घड़ा पानी पेड़ में डालना होगा. कई दिनों तक इस पर काम होता रहा. तालाब से शहर के लोग पानी भरते थे. धीरे-धीरे लोगों की सुविधाओं में इजाफा हुआ, तालाब के रखरखाव को नजरअंदाज किया गया तो ये सूख गया. इतिहास खूबसूरत था और जल संचयन की बेमिसाल कहानी भी थी. उसी से प्रेरणा ले इन धुन के पक्कों ने मेहनत की और नतीजा सबके सामने है. समय, काल और परिस्थिति के मुताबिक पेड़ों का चयन करते हैं और उन्हें रोप देते हैं. कोरोना काल में लोगों को ऑक्सीजन की काफी दिक्कत हुई. तो पेड़ों की अहमियत दुनिया ने जानी, आचार्य कहते हैं हमने पीपल के पेड़ लगाए थे और उस दौर यहां हमने देखा है कि पीपल के पेड़ के नीचे आकर लोग अपना ऑक्सीजन लेवल बढ़ाते हैं.

बीकानेर. शताब्दियों पहले आज की तरह सुविधाएं नहीं थी और सुविधाओं के अभाव में लोगों को जल परिवहन करना पड़ता था. एक घड़े पानी के लिए लोग बैलगाड़ी, ऊंट गाड़ी या फिर पैदल मीलों का सफर तय करते थे. उस वक्त पानी की कीमत को समझा गया और कुछ जागरूक लोगों ने सीमित साधनों से जल स्रोतों का निर्माण कराया. धीरे-धीरे बदलते वक्त में ये प्राचीन जल स्त्रोत खत्म हो गए. बीकानेर की भी कुछ ऐसी ही कहानी है. यहां भी शताब्दियों पहले ऐसे कई जल स्रोत यानी तालाब बने. बदलते समय और माहौल के साथ इनकी अनदेखी हुई और ये अपना अस्तित्व खो बैठे. कुछ ऐसी ही नेगेटिविटी के बीच कुछ बीकानेरियों ने जिम्मा उठाया ग्रीनरी के उस दौर को वापस लाने का जो पॉजिटिविटी का संचार करे. कुछ साल पहले जो जल स्त्रोत नाम के रह गए थे उन्हें उनके मूल स्वरूप में लाने की कवायद में जुट गए कुछ ग्रीन क्रूसेडर्स! ग्रीन क्रूसेडर्स यानी वो जो बीकानेर को हरा भरा करने के लिए प्रयासरत हैं. एक अभियान चला रखा है. इन्होंने आसपास की आगोर और जोड़ पायतन की बंजर जमीन को हरा-भरा करने का लोगों ने बीड़ा उठाया (Bikaner green drive) है. पूरे अभियान में सुखद पहलू यह है कि इस टीम में युवाओं की तादाद अच्छी खासी है.

दरअसल बीकानेर शहर के अंदरूनी क्षेत्र में हर्षोलाव, संसोलाव, महानंद तलाई और धरणीधर तालाब हुआ करते थे. उस वक्त बारिश के पानी से भरने के बाद पूरे साल लोगों की पेयजल संबंधी समस्या को दूर करने में मदद करते थे. बदलते वक्त में ये पुराने जल स्त्रोत लोगों के लिए अनुपयोगी हो गए, वजह वही सुविधाओं की ख्वाहिश रही. वो इस तरह की नहरें गांव ढाणी तक पहुंच गईं और इन तालाबों की अहमियत खुद ब खुद घट गई. फिर आबादी बढ़ने के साथ ही इन तालाबों की भूमि पर अतिक्रमण भी हो गया. पूरी तरह से बंजर और जोड़ पायतन की भूमि पर अतिक्रमण होने से ये तालाब केवल अपने नाम तक सिमट गए. हालांकि इन सब में केवल धरणीधर तालाब की सुध समय रहते ली गई और आज ये बीकानेर (Bikaner Go Green) में अलग पहचान बनाए हुए है. इसी राह पर चलते हुए महानंद तलाई, हर्षोलाव और संसोलाव तालाब की सुध लेने लोग आगे आए हैं और इन सब में अब महानंद तलाई क्षेत्र एक उदाहरण के रूप में स्थापित हो रहा है. स्थानीय लोगों ने बकायदा महानंद महादेव मंदिर पर्यावरण समिति का गठन कर लिया. इससे जुड़े लोगों की नियमित मेहनत का नतीजा है कि 6 साल में ही बंजर, उजाड़, वीरान भूमि की जगह हरियाली खिल खिला रही है.

'हरी भरी' मुहिम

सबका साथ पर्यावरण का विकास : कई बीघा में फैले महानंद मंदिर तालाब क्षेत्र के आस-पास आगोर की जमीन को अतिक्रमण से बचाया गया. समिति ने फिर इसे रेनोवेट करने का काम किया. कोशिश रंग लाई. कुछ दिन पहले बीकानेर में हुई प्री मानसून की पहली बारिश हुई तो तालाब के पैंदे में पानी नजर आया. तालाब में बारिश का पानी आए इसके लिए आगोर के पास ही एक रास्ता बनाते हुए उसे तालाब में छोड़ा गया. इसके अलावा तालाब और मंदिर क्षेत्र के आसपास के पूरे क्षेत्र को विकसित करते हुए तकरीबन 850 से ज्यादा पौधे लगाए गए जो अब पेड़ का रूप ले रहे हैं.

पढ़ें-World Environment day: मिलिए बीकानेर के ग्रीन मैन से! इनकी जिद्द ने मरुभूमि को हरा भरा बना दिया

करीब 4 महीने पहले स्थानीय विधायक और मंत्री बीडी कल्ला के प्रयासों से यहां एक ट्यूबवेल भी स्वीकृत हुआ. इस पूरे क्षेत्र में सुबह 5:00 बजे से लेकर 9:00 बजे तक और शाम को 6:00 बजे से लेकर 9:00 बजे तक समिति से जुड़े लोग हर दिन आते हैं और पौधों की सेवा करते हैं. यही कारण है कि अब पूरा क्षेत्र हरा भरा नजर आ रहा है. समिति से जुड़े नमामि शंकर कहते हैं कि नहर बंदी के दौरान काफी परेशानी हुई और जन सहयोग से यहां तकरीबन 100 से ज्यादा टैंकर जुटाए गए ताकि लगाए गए पौधे, पानी के अभाव में दम न तोड़ दें. गणेश आचार्य बताते हैं कि युवा और बुजुर्ग साथी हर रोज यहां मेहनत करते हैं, वॉक करते हैं साथ ही क्षेत्र को विकसित करने में अपना सहयोग देते हैं.

बीता कल प्रेरणास्पद: महानंद तलाई पर्यावरण समिति के गणेश आचार्य, राम कुमार आचार्य बताते हैं कि 350 साल पहले तालाब की खुदाई हुई थी. तब जैसलमेर से मथुरा के बीच का ये अहम पड़ाव था. इसकी खुदाई के बाद एक घड़े पानी की बात तय हुई. यानी जो भी पानी लेगा उसे एक घड़ा पानी पेड़ में डालना होगा. कई दिनों तक इस पर काम होता रहा. तालाब से शहर के लोग पानी भरते थे. धीरे-धीरे लोगों की सुविधाओं में इजाफा हुआ, तालाब के रखरखाव को नजरअंदाज किया गया तो ये सूख गया. इतिहास खूबसूरत था और जल संचयन की बेमिसाल कहानी भी थी. उसी से प्रेरणा ले इन धुन के पक्कों ने मेहनत की और नतीजा सबके सामने है. समय, काल और परिस्थिति के मुताबिक पेड़ों का चयन करते हैं और उन्हें रोप देते हैं. कोरोना काल में लोगों को ऑक्सीजन की काफी दिक्कत हुई. तो पेड़ों की अहमियत दुनिया ने जानी, आचार्य कहते हैं हमने पीपल के पेड़ लगाए थे और उस दौर यहां हमने देखा है कि पीपल के पेड़ के नीचे आकर लोग अपना ऑक्सीजन लेवल बढ़ाते हैं.

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