इंदौर। इंदौर के गौतमपुरा में दिवाली के दूसरे दिन धोक पढ़वा (गोवर्धन पूजा) पर हिंगोट युद्ध मनाये जाने की परंपरा है. लेकिन इस साल होने वाले हिंगोट पर संशय है. जिला प्रशासन ने कोविड को लेकर लोगों से संयम रखने की अपील की है. SDM प्रतुल सिन्हा ने कहा है कि शहर में कोविड के मरीज मिल रहे हैं, ऐसे में संयम बनाये रखने की जरूरत है. पिछले 2 साल गौतमपुरा के लोगों ने जिस तरह से संयम दिखाया है, यदि एक साल और संयम रख लें, तो शायद आने वाले साल तक हम इस कोरोना महामारी से निजात पाने के बाद हिंगोट युद्ध को और अच्छे से मना सकते हैं. इधर प्रशासन की अपील के विपरीत कांग्रेस विधायक विशाल पटेल ने चेतावनी देते हुए कहा है कि परंपराओं पर प्रतिबंध न लगाएं. जब इस साल चुनाव और दूसरे आयोजनों के लिए प्रशासन छूट दे रहा है तो परंपरा भी निभाने दें. उन्होंने कहा कि प्रशासन को भी सोचना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि जनता सड़क पर आ जाए.
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सालों पुरानी परंपरा हिंगोट युद्ध
पूरे देश में सिर्फ इंदौर के गौतमपुरा में दीपावली के अगले दिन धोक पढ़वा पर प्रसिद्ध हिंगोट युद्ध की परंपरा रही है. गौतमपुरा में परंपरानुसार हर साल दीपावली के अगले दिन पड़वा पर शाम को हिंगोट युद्ध खेला जाता है. इसमें तुर्रा (गौतमपुरा) व कलगी (रूणजी) के दल आमने-सामने एक-दूसरे पर हिंगोट (अग्निबाण) फेंकते हैं. यह अग्निबाण हिंगोरिया के पेड़ों पर लगने वाले हिंगोट फल से बनाया जाता है. फल को खोखला कर उसमें बारूद भरकर बत्ती लगाई जाती है और फिर दोनों दल इसे एक-दूसरे पर फेंकते हैं. इस बार क्षेत्र के जंगल में हिंगोरिया के पेड़ कम होने से योद्धाओं को हिंगोट फल नहीं मिला तो जुनूनी योद्धा यह फल लेने उज्जैन, खाचरौद, नागदा और भाटपचलाना के जंगल तक गए. योद्धाओं ने घर में हिंगोट तैयार करना शुरू कर दिया है.
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न किसी की हार-न किसी की जीत
इस हिंगोट युद्ध के खेल में न किसी की हार होती है और न किसी की जीत. ये युद्ध भाईचारे वाला होता है, जहां तुर्रा (गौतमपुरा) और कलगी (रूणजी) नाम के दो दल अपने पूर्वजों की परंपरा को जिंदा रखे हुए हैं. इसके लिए योद्धा एक महीने पहले नवरात्रि से ही हिंगोट बनाना शुरू कर देते हैं.
कैसे बनाते हैं हिंगोट
जंगल से हिंगोरिया नामक पेड़ के फल हिंगोट को तोड़कर लाते हैं. नींबू के आकार वाला ये फल ऊपर से नारियल की तरह कठोर और अंदर से गुदेदार होता है. इसके के एक छोर पर बारिक व दूसरे छोर पर बड़ा छेद किया जाता है. इसे दो दिन धूप में सुखाया जाता है. फिर इसका गुदा निकालकर इसमें बारूद भरी जाती है, और फिर बड़े छेद को पीली मिट्टी से बंद कर दिया जाता है. दूसरी बारिक छेद पर बारूद की टीपकी लगाकर निशाना सीधा लगे इसलिए हिंगोट के ऊपर आठ इंची बांस की कीमची बांधी जाती है. हर साल दोनों दल के मिलाकर 100 से ज्यादा योद्धा मैदान में उतरते हैं. दस साल पहले एक हिंगोट बनाने में 4 से 5 रुपए का खर्च आता था, अब एक हिंगोट बनाने में 20-22 रुपए लगते हैं.
जोश से भरे होते हैं योद्धा
युद्ध वाले दिन योद्धा सिर पर साफा, कंधे पर हिंगोट से भरे झोले और हाथ में जलती लकड़ी लेकर दोपहर दो बजे बाद हिंगोट युद्ध मैदान की ओर नाचते-गाते निकल पड़ते हैं. मैदान के समीप स्थित भगवान देवनारायण मंदिर में दर्शन के बाद दोनों मैदान में आमने-सामने खड़े हो जाते हैं. करीब दो घंटे तक चलने वाले इस युद्ध में सामने वाले योद्धा द्वारा फेंका गए हिंगोट की चपेट में आये योद्धा का झोला जलता है तो वह दृश्य लोगों में और जोश पैदा करता है. रात में युद्ध के दौरान हिंगोट से निकलने वाली अग्नि रेखाएं आसमान में खींच जाती है जो बहुत खूबसूरत लगती है.