इंदौर। सोयाबीन अनुसंधान केंद्र (Indore Soybean Research Center) ने पहली बार सोयाबीन में वायरस की वजह से होने वाले येलो मोजैक (Yellow Mosaic Virus) के संक्रमण से मुक्ति पाते हुए दो ऐसी किस्में विकसित कर ली हैं, जो वायरस प्रूफ (Virus Proof Seeds) है. अब संभावना जताई जा रही है कि मध्य प्रदेश के अलावा देश के विभिन्न राज्यों में नई विकसित किस्मों के जरिए किसान सोयाबीन को वायरस के संक्रमण से बचा कर हर साल होने वाले अरबों के नुकसान से बचा सकेंगे.
येलो मोजैक से सोयाबीन की फसल हो रही है नष्ट
बारिश के सीजन की सबसे प्रमुख फसल सोयाबीन करीब दो दशकों से येलो मोजैक नामक वायरस की शिकार है, जो खेतों में पाए जाने वाले एक विशेष प्रकार के मच्छर के जरिए पौधों में फैलता है. इस रोग के कारण पौधे में फल आने से पहले ही पीलापन आ जाता है. देखते ही देखते पौधा मुरझा जाता है. प्रदेश में 2007 के बाद सोयाबीन की जो सबसे चर्चित वैरायटी बोई जाती है, वह JS-9560 है. इसी वैरायटी के बीज मध्य प्रदेश के अलावा महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना और राजस्थान समेत अन्य सोयाबीन उत्पादक राज्यों में लोकप्रिय होकर चलन में है.
भारत सरकार ने दी मंजूरी
हर साल किसी न किसी कारण से सोयाबीन की फसल नष्ट हो रही थी, जिसका एक बड़ा कारण येलो मोजैक का संक्रमण है. यही वजह रही कि इंदौर स्थित सोयाबीन अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिक देश के खाद्यान्न उत्पादन में सोयाबीन की उपज को बढ़ाने के लिए लगातार फसल को संक्रमण से बचाने के लिए शोध कर रहे थे. हाल ही में इंदौर स्थित केंद्र में आखिरकार सोयाबीन की दो नई वैरायटी विकसित हुईं है, जो पूरी तरह से वायरस प्रूफ हैं. भारत सरकार (Indian Government) की वैरायटी अप्रूवल कमेटी ने इन्हें NRC-130 और NRC-138 नाम दिया है. इन दोनों वैरायटी का बुवाई समय भी पहले से बोए जा रहे सोयाबीन के JS-9560 के समान है, जिसकी फसलें 85 दिन और 95 दिन में तैयार हो जाती हैं.
10 साल तक रिसर्च के बाद आए सुखद परिणाम
सोयाबीन अनुसंधान केंद्र के प्रधान वैज्ञानिक बीयू दुपारे और उनकी टीम ने नई किस्में विकसित करने का रिसर्च अभियान पुरानी वैरायटी में वायरस की चुनौती को देखते हुए करीब 10 साल पहले शुरू किया था. इस अभियान के दौरान उनकी टीम की कोशिश थी कि सोयाबीन के मौजूदा बीज में से संक्रमण के गुण अलग कर दिए जाएं और वैरायटी में ऐसे लक्षण विकसित हों, जिससे येलो मोजैक का वायरस संबंधित सोयाबीन के पौधे को नुकसान ना पहुंचा सके.
लंबे संघर्ष के बाद दो किस्में बनाईं
लगातार परिश्रम के बाद आखिरकार जो 2 वैरायटी विकसित हुई. दोनों बीजों में यह गुण विकसित कर लिया गया है. इसके बाद इन वैरायटी को स्वीकृति के लिए कृषि मंत्रालय और भारत सरकार की संबंधित कमेटी को भेजा गया. जहां से पड़ताल के बाद इन किस्मों को भविष्य में मध्य प्रदेश के अलावा देश के तमाम सोयाबीन उत्पादक राज्य में बोने की अनुशंसा भी की है. पल्सर रूप सोयाबीन अनुसंधान केंद्र में अब इन किस्मों के बीज तैयार किए जा रहे हैं. नए बीजों को उत्पादन और बोनी के लिहाज से तैयार करके बीज उत्पादक फार्मा कंपनियों को दिया जाएगा. जिससे कि बड़े पैमाने पर बुवाई के लिए बीज तैयार किए जा सके.
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25% से ज्यादा तेल उत्पादन में योगदान
देश में तेल उत्पादन के लिए उपयोग की जाने वाली 8:00 से 9:00 तिलहनी फसलों के बावजूद कुल तेल उत्पादन में 25 फीसदी से ज्यादा का योगदान सोयाबीन का है. लिहाजा लगातार बढ़ती आबादी को खाद्य तेल की उपलब्धता के लिहाज से भी उत्पादकता और आत्मनिर्भरता बढ़ाना भी वैज्ञानिकों का फोकस रहा है.