भोपाल। गुलामी की बेड़ियां काटने के लिए जब गांधीजी देश के जर्रे-जर्रे की खाक छान रहे थे और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के साथ ही अंग्रेजों को हर मोर्चे पर घेरने की कोशिश कर रहे थे, तब उनके कदम जहां-जहां पड़े. वो जगह आज भी तारीख पर दर्ज है. इतना ही नहीं गांधीजी से जुड़ी छोटी से छोटी याद को भी धरोहर की तरह सहेजा जा रहा है. आज पूरा देश राष्ट्रपिता की 150वीं जयंती मना रहा है. ऐसे में ईटीवी भारत मध्यप्रदेश में गांधीजी से जुड़ी हर याद को साझा कर रहा है. 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में जन्मे गांधीजी की दिल्ली के बिरला भवन में 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने गोली मारकर हत्या कर दी थी, लेकिन गांधीजी मरकर भी जिंदा हैं और पूरी दुनिया उनके विचारों को आत्मसात कर रही है.
पेज लिंक- ईटीवी भारत की ओर से देश के सर्वश्रेष्ठ गायकों ने बापू को दी संगीतमय श्रद्धांजलि
आज पूरा देश महात्मा गांधी की 150वीं वर्षगांठ मना रहा है. इस मौके पर ईटीवी भारत गांधी के पसंदीदा भजन (वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीड परायी जाणे रे, पर दुःखे उपकार करे तो ये, मन अभिमान न आणे रे) के माध्यम से जन जन तक एकता का संदेश पहुंचाने में महती भूमिका निभा रहे हैं.
पेज लिंक- गांधी @ 150 : रामोजी ग्रुप के चेयरमैन रामोजी राव ने लॉन्च किया बापू का प्रिय भजन
हैदराबाद। भारत जैसे विशाल, सुंदर और विविधताओं से भरे देश में ईटीवी भारत ने 15वीं सदी के गुजराती कवि नरसिंह मेहता द्वारा रचित भजन को अपना माध्यम बनाया है. उनकी कविता वैष्णव (जिसके मन में हरेक के प्रति करुणा का भाव हो) के जीवन और आदर्शों को खूबसूरती से दर्शाती है. मेहता ने सांसारिक जीवन त्याग दिया था. बाद में वे भक्ति आंदोलन की प्रमुख शक्ति बन गए थे. महात्मा गांधी ने नरसी भगत के लेखन से सरलता, भक्ति, निडरता और विनम्रता को अपनाया था. गुजराती कवियों में उन्हें अनादि कवि माना जाता है. उनके भजन ने विभिन्न जातियों और वर्गों में हर्षोल्लास का माहौल बनाया था. ये उस समय की जरूरत थी.
पेज लिंक- कटनी के स्वदेशी विद्यालय में एक रात रुके थे बापू, शहर को दिया था बारडोली का खिताब
कटनी। ब्रिटिश हुकूमत की बेड़ियों में जकड़े देश को आजादी दिलाने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का मध्यप्रदेश से गहरा लगाव था. देश के ऐसे महान सपूत की यादों से मध्यप्रदेश का कटनी शहर भी अछूता नहीं है. देश की आवाम में आजादी की ज्वाला जलाते हुए बापू जब कटनी पहुंचे. तो पूरा शहर पलक पावड़ें बिछाकर राष्ट्रपिता के स्वागत के लिए खड़ा हो गया था. जिसके निशान आज भी इस शहर के जर्रे-जर्रे में मौजूद हैं.
पेज लिंक- 1933 में यहीं से बापू ने भरी थी छुआछूत की खाई, 104 किमी पैदल चल सुनने पहुंचे थे 4000 लोग
मण्डला। जब देश में छुआछूत का जहर इंसानी रगों में खून की तरह दौड़ रहा था, ऊंच-नीच का बोलबाला था, दबे कुचलों की आवाज दम तोड़ती जा रही थी, तब एक महात्मा ने उनकी आवाज को अपनी जुबान दी. जिसकी गूंज देश के ओर से छोर तक सुनाई पड़ने लगी. उस दौर में इस महात्मा की एक झलक पाने के लिए लोग किस कदर बेचैन रहते थे, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मण्डला में जब गांधीजी पहुंचे थे, तब उन्हें सुनने के लिए 4000 लोग 104 किलोमीटर का सफर करके पहुंचे थे क्योंकि उनको इस महात्मा में अपना भविष्य दिखता था.
पेज लिंक- गांधी के विचारों से प्रेरित होकर चंबल के 652 डकैतों ने किया था सरेंडर
मुरैना। मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश व राजस्थान राज्य की त्रिशंकु सीमा से घिरा चंबल अंचल कभी बागियों की शरणस्थली के लिए जाना जाता था, जहां कुख्यात डकैतों का बोलबाला रहता था. उस दौर में जब भी कोई हथियार उठाता था तो अगली सुबह उसकी चंबल के बीहड़ों में ही होती थी क्योंकि तब डकैतों के लिए ये सबसे मुफीद जगह मानी जाती थी. उसी दौर में गांधीजी अहिंसा के अस्त्र से अंग्रेजों को धूल चटा रहे थे, जिसका इन डकैतों के मन पर गहरा असर पड़ा और सैकड़ों डकैत गांधीजी की विचारधारा से प्रभावित होकर शांति का रास्ता अख्तियार करने का मन बनाया.
पेज लिंक- बहुत कम लोग जानते हैं कहां है दूसरा 'राजघाट'
बड़वानी। देश के दिल मध्यप्रदेश से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का बहुत लगाव रहा है. दिल्ली के बाद बापू की दूसरी समाधि यहीं मौजूद है. यहां बापू के साथ उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी और उनके निजी सचिव की अस्थियां सुपुर्द-ए-खाक की गई थी. पूरी दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले बापू की जयंती व पुण्यतिथि पर दिल्ली में बनी उनकी समाधि स्थल राजघाट पर नमन करने के लिए देश के कोने-कोने से लोग पहुंचते हैं, लेकिन राजघाट के अलावा मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले के कुकरा बसाहट गांव में भी बापू की समाधि स्थल मौजूद है. यह राजघाट के बाद उनका दूसरा समाधि स्थल है. इसे 2017 में डूब क्षेत्र में आने के चलते प्रशासन ने कुकरा बसाहट में विस्थापित किया था.
पेज लिंक- 501 रु में बापू से खरीदा था उपहार, आज भी सहेज रहा यह परिवार
छिंदवाड़ा। महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर पूरा देश उन्हें याद कर रहा है. उन्होंने सबसे पहले अछूतों के दर्द को समझा और उनके हक की लड़ाई लड़ी. बापू के इन्हीं कामों ने उन्हें महात्मा बना दिया. वह आज भी लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं. मध्यप्रदेश में गांधी के कदम जहां-जहां पड़े, वो जगह हमारी तारीख पर दर्ज है, जो बापू की यादों को ताजा करता है. छुआछूत और भेदभाव के खिलाफ आंदोलन के दौरान गांधीजी देश के एक कोने से दूसरे कोने का दौरा कर रहे थे, उसी दौरान वे दूसरी बार यानि 29 नवंबर 1933 को छिंदवाड़ा पहुंचे थे. जहां उन्हें एक अनजान व्यक्ति ने गांधी को उनकी तस्वीर जड़ा एक चांदी का पानदान भेंट किया था. जिसे गोविंद राम त्रिवेदी ने 501 रुपये में खरीदा था.
पेज लिंक- कहां गयी वो विरासत, जहां से बापू ने बदला था हवाओं का रुख?
भोपाल। पूरी दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ाने और इसी अहिंसा के अस्त्र से गुलामी की बेड़ियां काटने वाले बापू के कदम जहां-जहां पड़े, वो जगह तारीख पर सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो गयी. जिसे आज भी बतौर बापू की याद सहेजा जा रहा है. 1929 में जिस बेनजीर मैदान से महात्मा गांधी ने अपने ओजस्वी भाषण से आजादी की अलख जगाई थी. वो जगह आधुनिकता और विकास की आंधी में गुम हो गई है.
पेज लिंक- जहां मिली बापू को नई पहचान, वहीं मिली थी सबसे बड़ी राजनीतिक हार
जबलपुर। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी देश के दिल में बसी संस्कारधानी यानि जबलपुर कई बार गए थे. यहां आज भी बापू से जुड़ी स्मृतियां संभालकर रखी गई हैं. गांधीजी की 150वीं जयंती पर हम आपको जबलपुर से जुड़ी बापू की यादों से रु-ब-रु कराते हैं कि कैसे यहां पर उनको नई पहचान मिलने के बावजूद अपने जीवन की सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा था.
पेज लिंक- बुंदेलखंड का 'जलियांवाला बाग' कांड, जब अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों के खून से धरती कर दिया था लाल
छतरपुर। 1930 में जिस समय महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था, तब बापू के इस आंदोलन से रोजाना बड़ी संख्या में लोग जुड़ रहे थे और विदेशी सामानों का बहिष्कार कर उसकी होली जला रहे थे. बुंदेलखंड में भी असहयोग आंदोलन की आग धीरे-धीरे धधकती जा रही थी. इसी क्रम में छतरपुर जिले के सिंहपुर में लगभग 60 हजार लोग एकजुट हुए और स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने के अलावा लगान नहीं देने की मुनादी कर दी. जिसके बाद अंग्रेजों ने बुंदेलखंड की धरती को भी खून से लाल कर जलियांवाला बाग बना दिया. अंग्रेज सैनिकों ने क्रांतिकारियों पर अंधाधुंध गोलियां दागी. जिसमें 200 आंदोलनकारी मौके पर ही शहीद हो गए.
पेज लिंक- बापू ने MP के छिंदवाड़ा से बजाई थी दुंदुभी, यहीं हुई थी असहयोग आंदोलन की पहली सभा
छिंदवाड़ा। महात्मा गांधी का मध्यप्रदेश से बेहद लगाव था. जहा आज भी इतिहास में दर्ज गांधीजी की स्मृतियां उनके महात्मा होने की तस्दीक करती हैं, संघर्ष के दौरान उनके कदम जहां-जहां पड़े, वो धरा आज भी धरोहर की तरह सहेजी जा रही है. इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि गांधीजी ने मध्यप्रदेश की 10 यात्राएं की थी, जिनमें से तीसरी यात्रा के दौरान वे 6 जनवरी, 1921 को छिंदवाड़ा पहुंचे थे और यहीं से उन्होंने असहयोग आंदोलन की दुंदुभी बजाई थी.
पेज लिंक- इस शहर के जर्रे-जर्रे में बसे हैं बापू, आज भी मौजूदगी का एहसास कराता है हरिजन गुरूद्वारा
दमोह। एक इंसान, जिसने अछूतों के दर्द को महसूस किया और छुआछूत के खिलाफ सबसे पहले आवाज बुलंद की, इसी सोच ने इस इंसान को महात्मा बना दिया, तब ये महात्मा लाठी लेकर निकल पड़ा और देश के जर्रे-जर्रे की खाक छान डाली, उस दौरान इस महात्मा के पैर जहां भी पड़े, वहां आज भी उनके कदमों के निशान मौजूद हैं. अंग्रेजों को धूल चटाने के लिए महात्मा गांधी जब हिंदुस्तान के जर्रे-जर्रे की खाक छान रहे थे, उस दौरान उनके कदम जहां भी पड़े, वो जगह तारीख पर दर्ज होती गई. एक बार पदयात्रा करते हुए गांधीजी मध्यप्रदेश के दमोह पहुंचे. जहां उनकी स्मृतियों की अमिट छाप अब भी मौजूद है.
पेज लिंक- 89 साल पहले बापू ने लिखा था जवाबी पत्र, विरासत की तरह आज भी संभाल रहीं मनोरमा देवी
टीकमगढ़। एक आम इंसान, जिसने सादगी के दम पर पूरी दुनिया को अपना मुरीद बना लिया, अहिंसा के जरिये बड़े से बड़ों को घुटनों पर ला दिया. बेसहारों को सहारा देने वाले इस महात्मा को लोग गांधी के नाम से जानते हैं, जिनके विचारों को आज भी दुनिया आत्मसात कर रही है. मौजूदा दौर में गांधी सिर्फ एक नाम ही नहीं बल्कि एक विचार बन चुका है. इस बार देश बापू की 150वीं जयंती मना रहा है. ऐसे में देश के जर्रे-जर्रे में बसी बापू की यादों से आवाम को रूबरू कराया जा रहा है.
पेज लिंक- गोडसे ने यहीं रची थी गांधी की हत्या की साजिश
ग्वालियर। 30 जनवरी 1948 की शाम आज तक सबसे मनहूस मानी जाती है, क्योंकि इसी शाम दिल्ली के बिड़ला भवन में चली गोली की आवाज ने पूरे देश को 'खामोश' कर दिया था. उस दिन गोड्से की पिस्तौल से निकली गोलियों ने मानवता को मौत की नींद सुला दिया था. जिसने अहिंसा की विचारधारा पर प्रतिघात किया था. उस दिन देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर गोली चलाई गई थी. जिसकी पटकथा मध्यप्रदेश के ग्वालियर में लिखी गई थी.