सोलन: देवभूमि हिमाचल में मनाए जाने वाले पारंपरिक एवं प्रसिद्ध मेलों में माता शूलिनी का मेला भी प्रमुख स्थान रखता है. बदलते परिवेश के बावजूद यह मेला अपनी प्राचीन परंपरा को संजोए हुए हैं. मेले का इतिहास बघाट रियासत से जुड़ा है. माता शूलिनी बघाट रियासत के शासकों की कुलश्रेष्ठा देवी मानी जाती है. वर्तमान में माता शूलिनी का मंदिर सोलन शहर के दक्षिण में मौजूद है.
इस मंदिर में माता शूलिनी के अलावा शिरगुल देवता, माली देवता इत्यादि की प्रतिमाएं भी मौजूद हैं. पौराणिक कथाओं के अनुसार माता शूलिनी माता की सात बहनें हैं. अन्य बहनें हिंगलाज देवी, जेठी ज्वाला जी, लुगासना देवी, नैना देवी और तारा देवी के नाम से विख्यात है.
माता शूलिनी के नाम से ही हुआ है सोलन शहर का नामकरण
माता शूलिनी देवी के नाम से ही सोलन शहर का नामकरण हुआ था, जोकि मां शूलिनी की अपार कृपा से दिन प्रतिदिन समृद्धि की ओर अग्रसर हो रहा है. सोलन नगर बघाट रियासत की राजधानी हुआ करती थी. इस रियासत की नींव राजा बिजली देव ने रखी थी. 12 घाटों से मिलकर बनने वाली बघाट रियासत का क्षेत्रफल 36 वर्ग मील में फैला हुआ था.
इस रियासत की राजधानी शुरुआत में जौनाजी थी. इसके बाद कोटि और बाद में सोलन बनी. राजा दुर्गा सिंह इस रियासत के अंतिम शासक थे. रियासत के विभिन्न शासकों के काल से ही माता शूलिनी देवी का मेला लगता आ रहा है. जनश्रुति के अनुसार बघाट रियासत के शासक अपनी कुलश्रेष्ठा को प्रसन्न करने के लिए मेले का आयोजन करते थे.
क्या कहते हैं शूलिनी मंदिर के पुजारी
शूलिनी माता मंदिर के पुजारी पंडित रामस्वरूप शर्मा ने कहा कि यह मेला करीब 200 साल पुराना है. राजाओं के शासनकाल से यह मेला चलता आ रहा है. राजा दुर्गा सिंह के पूर्वजों के वंशज इस रीत को निभाते आए हैं. यह मेला 3 दिनों तक आयोजित होता है.
उन्होंने कहा कि मां शूलिनी अपने गर्भगृह से निकलकर अपनी बहन से मिलने के लिए 3 दिनों के लिए गंज बाजार के लिए निकलती हैं. उन्होंने कहा कि सोलन में आए लोग सोलन के ही होकर रह गए. मां शूलिनी की कृपा से आज तक कोई भी महामारी सोलन शहर पर अपनी बुरी नजर नहीं डाल पाई है.
क्या कहते है कल्याणा समिति के अध्यक्ष
कल्याणा समिति के अध्यक्ष ठाकुर शेर सिंह ने कहा कि मां शूलिनी उनकी कुल इष्ट है. मां शूलिनी का मेला साल में एक बार आयोजित किया जाता है, लेकिन इस बार कोरोना महामारी के चलते मेला हो पाना मुश्किल है. उन्होंने कहा कि हर साल मेले के दौरान कई रीति-रिवाज होते हैं. उसके अनुसार कल्याणा वर्ग के करीब 13 गांव के सभी लोग माता के दर्शन के लिए आते थे, लेकिन इस बार ऐसा कर पाना मुश्किल है.
शेर सिंह ने कहा कि मंदिर की स्थापना के समय से लेकर राजा बघाट रियासत के वंशज इस मेले को करते आए हैं. मेले की खास बात यह है कि साल में यहां होने वाली फसल का कुछ अंश माता के चरणों में चढ़ाया जाता है, जिसे 'काशता' कहा जाता है. मां शूलिनी के चरणों में फसल को चढ़ाने से पहले कोई भी व्यक्ति उस फसल को ग्रहण नहीं करता है.
माँ प्रसन्न हो तो दूर होतें हैं सारे प्रकोप
मान्यता है कि माता शूलिनी के प्रसन्न होने पर क्षेत्र में किसी तरह की प्राकृतिक आपदा या महामारी का प्रकोप नहीं होता है. बल्कि, सुख समृद्धि एवं खुशहाली आती है. मेले की यह परंपरा आज भी कायम है. कालांतर में यह मेला केवल एक ही दिन यानी आषाढ़ महीने के दूसरे रविवार को शूलिनी माता के मंदिर के पास खेतों में मनाया जाता था.
साल में एक बार होता है दो बहनों का मिलन
आषाढ़ महीने के दूसरे रविवार को शूलिनी माता के मेले का आयोजन किया जाता है. पहले दिन मां शूलिनी पूरे शहर की परिक्रमा करके रात को गंज बाजार में स्थित दुर्गा मंदिर में ठहरती है. पूरे 3 दिन तक मां दुर्गा के मंदिर में अपनी बहन के साथ ठहरती हैं.
मेले के अंतिम दिन शाम को दोनों बहने 1 साल के लिए फिर से जुदा हो जाती हैं और मां शूलिनी अपने स्थान पर चली जाती हैं.
सोलन जिला के अस्तित्व में आने के बाद इस का सांस्कृतिक महत्व बनाए रखने और पर्यटन की दृष्टि से इसे बढ़ावा देने के लिए राज्य स्तरीय मेले का दर्जा दिया गया. वहीं, अब इसे तीन दिवसीय उत्सव का दर्जा भी दिया गया है. मौजूदा समय में यह मेला जनमानस की भावनाओं से जुड़ा है. वहीं, विशेषकर ग्रामीण लोगों को मेले में आपस में मिलने जुलने का मौका मिलता है, जिससे लोगों में आपसी भाईचारा और राष्ट्र की एकता व अखंडता की भावना पैदा होती है.
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