नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने इस साल कुछ बड़े फैसले लिए. इन फैसलों का राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर गहरा प्रभाव पड़ा. इससे आम लोगों को लाभ पहुंचा. वर्ष 2024 भारत के लिए एक निर्णायक वर्ष रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में न्याय, समानता और निष्पक्षता के मूलभूत आदर्शों को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
इन फैसलों ने यह स्पष्ट संदेश दिया कि अधिकारों का कोई भी उल्लंघन - चाहे वह राज्य द्वारा हो या किसी अन्य प्राधिकरण द्वारा, न्यायिक जांच से निपटा जाएगा और जहां आवश्यक हो सुधारात्मक कार्रवाई की जाएगी.
सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस बानो के दोषियों की सजा माफी को रद्द किया
इस साल की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस बानो मामले में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया. इसमें गुजरात सरकार द्वारा 11 दोषियों की समय से पहले छूट को रद्द कर दिया गया. उनके खिलाफ बिलकिस बानो के साथ गैंगरेप और 2002 के गुजरात दंगों के दौरान परिवार के सात सदस्यों की हत्या सहित जघन्य अपराधों के लिए सजा सुनाई गई थी. जस्टिस बीवी नागरत्ना और उज्जल भुयान ने स्पष्ट रूप से छूट के आदेश को गैरकानूनी माना, प्रक्रियागत खामियों को उजागर किया और कहा कि यह कानून के शासन के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है.
टॉप कोर्ट ने उन्होंने जोर देकर कहा कि दोषियों को स्वतंत्र रहने की अनुमति देना जनता के विश्वास को कमजोर करेगा और कानून के शासन का उल्लंघन करेगा. फैसले में दोषियों को दो सप्ताह के भीतर हिरासत में आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया गया.
सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड योजना को खारिज किया
सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड योजना को लेकर बड़ा फैसला सुनाया. फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड योजना, 2017 को असंवैधानिक घोषित करते हुए इसे खारिज कर दिया. तत्कालीन सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने माना कि यह योजना संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत सूचना के मौलिक अधिकार का उल्लंघन था. फैसले में इस बात पर जोर दिया गया कि चुनावी बॉन्ड के माध्यम से बेनामी दान ने जनता के सूचना तक पहुंचने के अधिकार का उल्लंघन किया है. अदालत ने लोकतंत्र के लिए राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता आवश्यक बताया.
न्यायालय ने स्टेट बैंक को चुनावी बांड जारी करना बंद करने का निर्देश दिया. साथ ही सभी दान विवरणों को भारत के चुनाव आयोग को बताने का आदेश दिया. यह निर्णय चुनावी सुधार के लिए एक महत्वपूर्ण क्षण था, जिसने राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता के लिए लोकतांत्रिक अनिवार्यता को मजबूत किया.
सुप्रीम कोर्ट ने 1998 के पीवी नरसिम्हा राव के फैसले को पलट दिया
सुप्रीम कोर्ट ने मार्च मीहने ने 1998 के पीवी नरसिम्हा राव के फैसले को पलट दिया. इस मामले में विवादास्पद रूप से संविधान के अनुच्छेद 105(2) और 194(2) के तहत विधायकों को उनके वोट या विधायिका में भाषण से जुड़ी रिश्वत प्राप्त करने के लिए प्रतिरक्षा को बरकरार रखा था. पूर्व सीजेआई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सात जजों की बेंच ने इस व्याख्या को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया कि संसदीय विशेषाधिकार भ्रष्टाचार को नहीं बचा सकते. कोर्ट ने स्पष्ट किया कि बचाव केवल विधायी कार्यों के लिए आवश्यक कार्यों पर लागू होती है, न कि रिश्वतखोरी जैसे आपराधिक कृत्यों पर जो लोकतांत्रिक मूल्यों और सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी को कमजोर करते हैं.
न्यूजक्लिक संस्थापक मामले में बड़ा फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने मई महीने में एक महत्वपूर्ण फैसले में न्यूजक्लिक के संस्थापक प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ्तारी और रिमांड को अवैध घोषित किया. अदालत ने दिल्ली पुलिस द्वारा 4 अक्टूबर, 2023 को जारी रिमांड आदेश को रद्द कर दिया. इसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया कि रिमांड आदेश पारित होने से पहले रिमांड आवेदन की प्रति अभियुक्त या उसके वकील को उपलब्ध नहीं कराई गई थी. कानूनी आवश्यकता का पालन करने में इस विफलता ने गिरफ्तारी और उसके बाद की रिमांड को अवैध बना दिया.
अनुसूचित जातियों के उप-वर्गीकरण पर बड़ा फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को आरक्षण के उद्देश्य से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति जैसे आरक्षित वर्ग समूहों को उप वर्गीकृत करने का अधिकार दिया. सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जातियों (एससी) के भीतर आरक्षण के विकास में एक महत्वपूर्ण क्षण को चिह्नित किया. शीर्ष अदालत ने फैसला सुनाया कि एससी श्रेणी के भीतर उप-वर्गीकरण स्वीकृत है. ये कम प्रतिनिधित्व वाले उप-समूहों के लिए अधिक सूक्ष्म कोटा की अनुमति देता है. न्यायालय के इस फैसले से अनुसूचित जातियों के कुछ हाशिए पर पड़े वर्गों को लाभ मिलेगा जो मौजूदा आरक्षण ढांचे के बावजूद वंचित बने हुए हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में जाति-आधारित अलगाव को खारिज किया
सुप्रीम कोर्ट ने जेलों में जाति-आधारित अलगाव और श्रम विभाजन के मुद्दे पर एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया. अदालत ने कई राज्यों के जेल मैनुअल में उन प्रावधानों को खारिज कर दिया, जिनमें कैदियों की जाति के आधार पर काम सौंपा गया था. विशेष रूप से न्यायालय ने हाशिए पर पड़ी जातियों को सफाई और झाड़ू लगाने का काम सौंपना और उच्च जाति के कैदियों के लिए खाना पकाने का काम सौंपने को भेदभावपूर्ण पाया. इससे जातिगत भेदभाव को बढ़ावा मिला और संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन हुआ. न्यायालय ने कहा कि इस तरह के काम हानिकारक रूढ़िवादिता और सामाजिक पदानुक्रम को मजबूत करते हैं, जो संविधान में निहित समानता के सिद्धांत को कमजोर करते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा अधिनियम को बरकरार रखा
सुप्रीम कोर्ट ने यूपी मदरसा बोड पर बड़ा फैसला सुनाया. अदालत ने उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम 2004 की संवैधानिकता को बरकरार रखा. हालांकि इसके प्रावधानों को रद्द कर दिया. इसके तहत यूपी मदरसा बोर्ड को फाजिल और कामिल की डिग्रियां देने का अधिकार था. अदालत ने कहा कि डिग्री देना गैरकानूनी है क्योंकि ये अधिकार यूजीसी को है.
साथ ही शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के पहले के फैसले को खारिज कर दिया. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस अधिनियम 'असंवैधानिक' बताकर रद्द कर दिया था. हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया था कि अधिनियम धर्मनिरपेक्षता के मूल ढांचे के सिद्धांत का उल्लंघन करता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसपर असहमति जतायी. शीर्ष अदालत ने कहा कि किसी कानून को केवल मौलिक अधिकारों या विधायी क्षमता के प्रावधानों का उल्लंघन करने के लिए ही रद्द किया जा सकता है, न कि मूल ढांचे के सिद्धांत का उल्लंघन करने के लिए.
बुलडोजर एक्शन पर बड़ा फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य अधिकारियों द्वारा दंडात्मक उपायों के रूप में तोड़फोड़ की विवादास्पद प्रथा पर बड़ा फैसला सुनाया. इसे अक्सर 'बुलडोजर एक्शन' कहा जाता था. सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह की कार्रवाइयों की वैधता और संवैधानिकता की जांच की. इस बात पर जोर दिया कि दंडात्मक उपकरण के रूप में प्रॉपर्टी को ध्वस्त करना मौलिक अधिकारों को कमजोर करता है और न्यायिक प्रक्रियाओं को दरकिनार करता है. न्यायालय का फैसला कई प्रमुख सिद्धांतों पर आधारित था. इसमें कानून का शासन, शक्तियों का पृथक्करण और आश्रय का अधिकार शामिल है.
न्यायालय ने इस आधारभूत सिद्धांत को बरकरार रखा कि राज्य की सभी कार्रवाइयां कानून के शासन के अनुरूप होनी चाहिए. इसके लिए स्थापित कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करना आवश्यक है. फैसले में कहा गया कि कार्यपालिका आरोप लगाने वाले और न्यायाधीश दोनों के रूप में कार्य नहीं कर सकती.