कुल्लू: हिमाचल प्रदेश का शीत मरुस्थल लाहौल स्पीति अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए देश दुनिया में विख्यात है. वही, लाहौल स्पीति की वादियों में जैव विविधता भी खूब फल फूल रही है. ऐसे में देश विदेश से सैलानी यहां की प्राकृतिक सुंदरता को निहारने के लिए हर साल घाटी का रुख करते हैं, लेकिन अब प्राकृतिक सुंदरता के अलावा यहां सैलानियों को एक और चीज भी अपनी ओर आकर्षित कर रही है और वो है लाहौल की पारम्परिक जुराबें और दस्ताने.
पारंपरिक पारंपरिक जुराबें और दस्तानों को अब जीआई टैग भी मिल चुका है और कुछ सामाजिक संस्थाओं ने इन जुराबों और दस्तानों को बाजार तक भी पहुंचाया है. ऐसे में जीआई टैग मिलने के बाद यहां की महिलाओं की आर्थिक भी सुधरने लगी है. जिला लाहौल स्पीति की अगर बात करें तो यहां पर अब प्रशासन ने भी एक अनूठी पहली की है. इस पहल के तहत अब हर सरकारी समारोह में आने वाले मेहमानों को जीआई टैग मान्यता प्राप्त लाहुली जुराबें और दस्ताने भी उपहार के स्वरूप में दिए जाएंगे. इससे पहले यह जुराबें स्थानीय मेलों त्योहारों के अवसर पर अपने रिश्तेदारों को दी जाती थी, लेकिन लाहौल स्पीति प्रशासन ने पहली बार ये निर्णय लिया है कि अब सरकारी कार्यक्रमों में भी उपहार के रूप में ये जुराबें और दस्ताने दिए जाएंगे.
2021 में मिला था जीआई टैग
लाहौल स्पीति जिला शीत मरुस्थल के नाम पर प्रसिद्ध है और अटल टनल बनने के बाद यहां पर वाहनों के माध्यम से आना-जाना भी आसान हुआ है. अटल टनल बनने से पहले लाहौल स्पीति जाने के लिए रोहतांग दर्रा को पार करना पड़ता था, लेकिन सर्दियों के मौसम में भारी बर्फबारी के चलते रोहतांग दर्रा बंद हो जाता था और यह जिला 6 महीनों के लिए पूरे विश्व से कट जाता था. ऐसे में हेलीकॉप्टर के माध्यम से यहां पर लोगों को आवागमन की सुविधा मिलती थी. जब पूरा इलाका 5 से 8 फिट बर्फ में दबा रहता था तो यहां की ग्रामीण महिलाएं जुराबें और दस्ताने की बुनाई कर अपना समय व्यतीत करती थीं. इतना ही नहीं यहां के पारंपरिक त्योहार फागली, शादी और अन्य अवसरों पर मां अपनी बेटियों के घर में ये जुराबें और दस्ताने लेकर जाती थीं. शादी और अन्य समारोह में भी इन्हीं का ही आदान-प्रदान किया जाता था. ऐसे में लाहौल की एक संस्था के द्वारा जुराबों और दस्तानों को जीआई टैग दिलाने की कवायद शुरू की गई और साल 2021 में इसे जीआई टैग मिल गया. अब कुछ स्वयं सहायता समूह भी इन जुराबों, दस्तानों को बाजार उतार रहे हैं, ताकि ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं को इसका फायदा हो सके.
400 रुपये तक पहुंच चुकी है कीमत
जुराबों और दस्तानों के मूल्य की बात करें तो जी आई टैग मिलने से पहले इनकी कीमत 40 से ₹50 मात्र थी, लेकिन अब इनकी कीमत 150 से 200 रुपए हो गई. ऊन व धागे के गुणवत्ता को देखते हुए उनकी कीमत 300 से 400 रुपए भी पहुंच गई है. इन जुराबों को बनाने के लिए महिलाओं को एक दिन का समय लगता है और यह जुराबें भेड़ की ऊन, नायलॉन के धागे और अन्य प्रकार के धागों से भी तैयार की जाती है. महिलाएं ग्रामीण क्षेत्रों में आयोजित होने वाले मेलों, छोटी-छोटी दुकानों, सरकारी प्रदर्शनियों और टूरिस्ट पॉइंट पर भी इन्हें बेचकर अच्छी कमाई कर रही हैं. वही, जिला कुल्लू के पर्यटन स्थलों पर भी यह सामान दुकानदारों के द्वारा बेचा जा रहा हैं.
जीआई टैग मिलने के बाद नहीं होगी नकल
लाहुल की जुराबों व दस्तानों को जिओग्रॉफिकल आइडेंटि-फिकेशन यानी जीआई टैग मिलने के बाद अब इन हिमाचली उत्पादों की कोई नकल नहीं कर पाएगा और साथ ही इन्हें राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय स्तर पर अब अलग पहचान मिलेगी. हिमाचल प्रदेश पेटेंट सूचना केंद्र और हिमाचल प्रदेश विज्ञान प्रौद्योगिकी एवं पर्यावरण परिषद ने लाहुली जुराबें एवं दस्तानों को भौगोलिक संकेतक अधिनियम 1999 के अंतर्गत पंजीकृत किया है. भौगोलिक संकेतक अधिनियम के तहत लाहुली जुराबें एवं दस्तानों का पंजीकरण अनाधिकृत उत्पादन को रोकने के साथ-साथ इनके वास्तविक उत्पादकों के सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए सहायक सिद्ध होगा. भौगोलिक संकेतक अधिनियम में पंजीकरण यह भी सुनिश्चित करेगा कि निर्देशित क्षेत्र से बाहर इन उत्पादों का उत्पादन नहीं हो सकता है.
इसके अलावा जीआई अधिनियम के तहत, इन उत्पादों के मूल क्षेत्र के अलावा अन्य उत्पादकों द्वारा पंजीकृत भौगोलिक संकेत के उपयोग और उल्लंघन के परिणामस्वरूप अधिकतम तीन वर्ष का कारावास और अधिकतम दो लाख रुपए का जुर्माना हो सकता है. लाहुली जुराबें एवं दस्ताने का भौगोलिक संकेतक पंजीकरण इन उत्पादों के डोमेस्टिक एवं वैश्विक बाजार में मूल्य क्षमता में मूल्य संवर्धन एवं क्षमता निर्माण में सहायक होगा, जिससे जीआई क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा. वहीं, जीआई टैग के जरिए उत्पादों को कानूनी संरक्षण मिलता है. यानी जीआई टैग उत्पादों की नकल को रोकता है. साथ ही जीआई टैग किसी उत्पाद की अच्छी गुणवत्ता का पैमाना भी होता है, जिससे देश के साथ-साथ विदेशों में भी उस उत्पाद के लिए बाजार आसानी से मिल जाता है. इस टैग से किसी उत्पाद के विकास और फिर उस क्षेत्र विशेष के विकास, रोजगार से लेकर राजस्व वृद्धि तक के द्वार खुलते हैं.
हथकरघा कारोबार से जुड़ी महिलाओं को होगा फायदा
कुल्लू शॉल को 2005, कांगड़ा चाय को 2005, चंबा रुमाल को 2008, किन्नौरी शॉल को 2010, कांगड़ा पेंटिंग्स को 2014, हिमाचली कालाजीरा, हिमाचली चुली तेल के बाद चंबा चप्पल और लाहुली जुराबें एवं दस्ताने जीआई टैग पाने वाले क्रमशः आठवें और नौवें पारंपरिक उत्पाद हैं. सेव लाहौल-स्पीति के अध्यक्ष प्रेम कटोच ने कहा कि, 'संस्था के सामूहिक प्रयास से पारंपरिक लाहौली उत्पादों को नई पहचान मिली है. जीआई टैग मिलने का फायदा हथकरघा कारोबार से जुड़ी महिलाओं को मिलेगा. घाटी की करीब 5 हजार से अधिक महिलाएं इस पारंपरिक कारोबार से सीधे तौर पर जुड़ी हैं. लाहौली महिलाएं इस शिल्प की रीढ़ हैं. उनके प्रयासों की बदौलत ही पारंपरिक कला को बनाए रखने में सफलता मिली है. सेव लाहौल-स्पीति संस्था ने लाहौली क्रियाशील हथकरघा को विकसित करने और विपणन संबंधी मदद देने का लक्ष्य रखा है. इसका उद्देश्य केवल उच्चतम गुणवत्ता वाले उत्पादों का उत्पादन करना ही नहीं है, बल्कि इसके साथ लाहौली कारीगरों को उचित मूल्य भी सुनिश्चित करवाना है.'
केलांग में खुला था पहला बुनाई स्कूल
लाहौल स्पीति सोसायटी के अध्यक्ष प्रेमचंद कटोच ने बताया कि, 'साल 1856 में मोरेबियन मिशनरी के केलांग आगमन के साथ-साथ लाहौल में बुनाई पर लिखित जानकारी सामने आने लगी. मारिया हाईडे ने केलांग में पहला बुनाई स्कूल खोला. इस स्कूल ने स्थानीय महिलाओं के बुनाई कौशल को विकसित करने में अहम योगदान दिया. उसके बाद घाटी में बुनाई उत्पाद के आधुनिकीकरण और व्यवसायीकरण की शुरुआत हुई. घाटी में बुनाई का काम पीढ़ी दर पीढ़ी चलता है.'
लाहुली जुराब के होते हैं पांच हिस्से
लाहौल की जुराब बहुत ही आकर्षक है. इस जुराब के पांच अलग-अलग हिस्से होते हैं जिन्हें बुनाई के बाद जोड़ा जाता है. ऊपरी हिस्से को 8 रंगों के आकर्षक पारंपरिक पैटर्न देकर बुना जाता है. स्थानीय बोली में इस पेटर्न को दशी कहा जाता है, जिसमें 7 से 8 तरह के पेटर्न शामिल हैं. जुराबों का पहले ऊपरी हिस्सा बुना जाता है और सबसे अंत में तलवे का हिस्सा बुना जाता है. उसके बाद दोनों को आपस में जोड़ते हुए पंजे के सिरे तक ले जाते हैं.
लाहौल स्पीति के गोंदला गांव की रहने वाली महिलाओं संगीता शासनी, कांता, अनुपमा ने बताया कि घाटी में अधिकतर महिलाएं अपना समय व्यतीत करने के लिए पहले जुराबें-दस्ताने बनाने का काम करती थी और इससे सर्दियों में भी ठंड से बचाव के लिए मदद मिलती थी, लेकिन अब व्यवसाय के लिए भी महिलाएं इसका कार्य कर रही हैं. लाहौल के जुराबें-दस्ताने जीआई टैग मिलने के बाद बाजार में बिक रहे हैं और देश-विदेश से आए सैलानी भी इन्हें पसंद कर रहे हैं, क्योंकि धागों की गुणवत्ता अच्छी होने के चलते यह कड़ाके की ठंड में भी व्यक्ति के हाथों और पैरों को गर्म रखने में मदद करते हैं. इसके अलावा आज भी घाटी के धार्मिक त्योहार, शादी में जुराबें वह दस्ताने देने का रिवाज है, जो आज भी निभाया जा रहा है.
वहीं, राधा एनजीओ की संचालिका सुदर्शन ठाकुर ने बताया कि, 'वो लोग भी अब लाहुली जुराबें-दस्ताने तैयार कर रहे हैं और संस्था की ओर से देश के विभिन्न राज्यों में प्रदर्शनी लगाई जाती है. वहां पर भी इन जुराबों की अच्छी डिमांड है, जिससे संस्था को भी फायदा हो रहा है. ऐसे में मनाली में भी संस्था के द्वारा स्टॉल लगाया जाता है और वहां पर भी लाहुली जुराबें-दस्ताने बेचने के लिए रखे जाते हैं.
लाहौल स्पीति की विधायक अनुराधा राणा ने बताया कि, 'जिला प्रशासन को भी इस बारे निर्देश दिए गए हैं कि सरकारी समारोह में मेहमानों को उपहार के तौर पर लाहौली जुराबें, दस्ताने दिए जाएंगे. वहीं, ये सीधे तौर पर महिलाओं से खरीदे जाएंगे, ताकि महिलाओं को इसका सीधा फायदा हो सके. जिला प्रशासन के द्वारा इस बारे में स्वयं सहायता समूह की महिलाओं से बात की जाएगी और हर समारोह में स्वयं सहायता समूह के द्वारा तैयार किए गए उत्पादों को ही उपहार में दिया जाएगा.'
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