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सर्वोपरि है सूचना का अधिकार

सुप्रीम कोर्ट ने हमेशा यह जाहिर किया है कि कानून सबके लिए समान है. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के दफ्तर को सूचना के अधिकार (आरटीआई) के दायरे में लाकर एक बार फिर साबित कर दिया कि कानून की नजर में सब बराबर हैं. इस फैसले के अनुसार अब आरटीआई एक्ट के तहत मुख्य न्यायाधीश भी पब्लिक अथॉरिटी माने जाएंगे.

सुप्रीम कोर्ट और आरटीआई
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Published : Nov 18, 2019, 7:59 PM IST

दरअसल, समय समय पर सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया है कि कानून के सामने सब समान हैं. सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजा फैसले में चीफ जस्टिस के दफ्तर को सूचना के अधिकार के दायरे में लाकर अपनी कथनी और करनी को एक समान ला खड़ा किया है.

सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यों की बेंच ने ये साफ कर दिया है कि चीफ जस्टिस आरटीआई एक्ट (सूचना का अधिकार अधिनियम) के तहत पब्लिक अथॉरिटी माने जायेंगे. बेंच ने ये भी माना कि सूचना का अधिकार और राइट टू प्राइवेसी (निजता का अधिकार) एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, और न्यापालिका की निष्पक्षता को किसी भी खतरे से बचाने की जरूरत है.

'न्यायिक स्वाधीनता और जवाबदेही एक साथ चलते हैं, लेकिन पारदर्शिता के कारण न्यायिक आजादी पर कोई खतरा नहीं आना चाहिये.' ये कहना था मुख्य न्यायाधीश, रंजन गोगोई का.

जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, 'न्यायिक आजादी का मतलब ये नहीं है कि जज और वकील कानून से ऊपर हैं. न्यापालिका दायरे से बाहर रहकर काम नहीं कर सकती है, क्योंकि जज एक संवैधानिक पद पर हैं और जनसेवा कर रहे हैं.'

ये भी पढ़ें: RTI के दायरे में होगा CJI कार्यालय : SC की संविधान पीठ ने सुनाया फैसला

2016 में रंजन गोगोई सहित तीन जजों की बेंच ने छह साल से चले आ रहे इस मामले को एक संवैधानिक बेंच को रेफर कर दिया था. इस बेंच के सामने मुख्य सवाल थे कि : क्या न्यायपालिका की आजादी के लिये जानकारी न देना जरूरी है? क्या जानकारी मांगने से न्यापालिका के काम पर असर पड़ता है?

इनके अलावा दो जजों की बेंच ने संविधान बेंच के सामने कुछ और सवाल भी रखे थे. रंजन गोगोई जो इस महीने की 17 तारीख को पदमुक्त हो गये वो इस संविधान बेंच के मुखिया थे. इस बेंच ने अपने फैसले से आरटीआई एक्ट को और बल दे दिया है.

आरटीआई एक्ट आम लोगों के लिये भ्रष्टाचार को खत्म करने की एक उम्मीद है. एक ऐसे समय में जब आरटीआई एक्ट से बचने के लिये सरकारें पुराने कानूनों का सहारा ले रही हैं, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले से इस एक्ट को काफी बल दे दिया है.

दरअसल इस मामले की शुरुआत तब हुई जब, सुभाष चंद्र अग्रवाल ने एक याचिका डाल के मुख्य न्यायाधीश समेत सभी जजों की प्रॉपर्टी का बारे में पारदर्शिता की मांग की. इस याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया.

जब सेंट्रल इंफॉर्मेशन कमीशन ने मुख्य न्यायाधीश को आरटीआई के अंतर्गत लाने के प्रावधानों के आदेश दिये तो एक असमंजस की स्थिति पैदा हो गई.

सुप्रीम कोर्ट ने सीआईसी के इस आदेश को दिल्ली हाई कोर्ट में ये कहते हुए चुनौती दी कि इस आदेश से न्यायिक आजादी पर खतरा पैदा हो जाता है. इस मामले पर पहले सिंगल जज बेंच और बाद में बनी तीन जजों की बेंच ने सीआईसी के फैसले को सही ठहराया.

2010 में सुप्रीम कोर्ट के सेकेट्री जनरल ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. इस मामले में जहां सुप्रीम कोर्ट याचिकाकर्ता और जज दोनों की भूमिका में था, कोर्ट ने सूचना में पारदर्शिता की वकालत की.

इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट न्यायिक जवाबदेही के लिये बने नेशनल ज्यूडीशियल एकांउटिबिलिटी एक्ट को खारिज कर चुका था. वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा था कि न्यायिक आजादी का मतलब न्यापालिका में राजनीतिक दखल अंदाजी से बचाना होता है न कि आम लोगों की नजरों से. सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच को भूषण की ये बात तर्कसंगत लगी.

भारतीय गणतंत्र में आम लोग ही सबसे बड़े हिस्सेदार हैं. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 लोगों को बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी का हक देता है. आम लोगों का सूचना का अधिकार भी इसी दायरे में आता है.

सुप्रीम कोर्ट इससे पहले भी चुनाव लड़ने वाले सभी उमीदवारों के लिये अपनी सारी संपत्ति की घोषणा करना अनिवार्य कर चुका है. अप्रैल 2019 में भी सुप्रीम कोर्ट ने ये साफ कर दिया थी कि सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर लोगों से जानकारियां नहीं छुपा सकती है.

2005 में आरटीआई के लागू होने के साथ ही, सरकारें लगातार इसे कमजोर करने की कोशिशें करती रही हैं. हर बार सुप्रीम कोर्ट के कारण ये होने से टलता रहा है.

इस बार भी सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले से ये साफ कर दिया है कि कानून के सामने सभी लोग एक समान हैं. लागू होने के बाद भारतीय आरटीआई एक्ट को विश्व के पांच बेहतरीन एक्ट में माना गया था, लेकिन सरकारी उदासीनता के कारण ये फिसल कर छठे स्थान पर आ गया है.

एक ऐसे समय में जब देश में पत्रकारों और आरटीआई कार्यकर्ताओं की आजादी पर खतरा बढ़ रहा है, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला आशा की किरण जगाता है. अब उस दिन का इंतजार है जब लंबे समय से आरटीआई के दायरे में आने से बचने वाले राजनीतिक दल भी इसके दायरे में आ जायेंगे. उस दिन सही मायने में भारत में गणतंत्र कामयाब हो सकेगा.

दरअसल, समय समय पर सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया है कि कानून के सामने सब समान हैं. सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजा फैसले में चीफ जस्टिस के दफ्तर को सूचना के अधिकार के दायरे में लाकर अपनी कथनी और करनी को एक समान ला खड़ा किया है.

सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यों की बेंच ने ये साफ कर दिया है कि चीफ जस्टिस आरटीआई एक्ट (सूचना का अधिकार अधिनियम) के तहत पब्लिक अथॉरिटी माने जायेंगे. बेंच ने ये भी माना कि सूचना का अधिकार और राइट टू प्राइवेसी (निजता का अधिकार) एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, और न्यापालिका की निष्पक्षता को किसी भी खतरे से बचाने की जरूरत है.

'न्यायिक स्वाधीनता और जवाबदेही एक साथ चलते हैं, लेकिन पारदर्शिता के कारण न्यायिक आजादी पर कोई खतरा नहीं आना चाहिये.' ये कहना था मुख्य न्यायाधीश, रंजन गोगोई का.

जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, 'न्यायिक आजादी का मतलब ये नहीं है कि जज और वकील कानून से ऊपर हैं. न्यापालिका दायरे से बाहर रहकर काम नहीं कर सकती है, क्योंकि जज एक संवैधानिक पद पर हैं और जनसेवा कर रहे हैं.'

ये भी पढ़ें: RTI के दायरे में होगा CJI कार्यालय : SC की संविधान पीठ ने सुनाया फैसला

2016 में रंजन गोगोई सहित तीन जजों की बेंच ने छह साल से चले आ रहे इस मामले को एक संवैधानिक बेंच को रेफर कर दिया था. इस बेंच के सामने मुख्य सवाल थे कि : क्या न्यायपालिका की आजादी के लिये जानकारी न देना जरूरी है? क्या जानकारी मांगने से न्यापालिका के काम पर असर पड़ता है?

इनके अलावा दो जजों की बेंच ने संविधान बेंच के सामने कुछ और सवाल भी रखे थे. रंजन गोगोई जो इस महीने की 17 तारीख को पदमुक्त हो गये वो इस संविधान बेंच के मुखिया थे. इस बेंच ने अपने फैसले से आरटीआई एक्ट को और बल दे दिया है.

आरटीआई एक्ट आम लोगों के लिये भ्रष्टाचार को खत्म करने की एक उम्मीद है. एक ऐसे समय में जब आरटीआई एक्ट से बचने के लिये सरकारें पुराने कानूनों का सहारा ले रही हैं, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले से इस एक्ट को काफी बल दे दिया है.

दरअसल इस मामले की शुरुआत तब हुई जब, सुभाष चंद्र अग्रवाल ने एक याचिका डाल के मुख्य न्यायाधीश समेत सभी जजों की प्रॉपर्टी का बारे में पारदर्शिता की मांग की. इस याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया.

जब सेंट्रल इंफॉर्मेशन कमीशन ने मुख्य न्यायाधीश को आरटीआई के अंतर्गत लाने के प्रावधानों के आदेश दिये तो एक असमंजस की स्थिति पैदा हो गई.

सुप्रीम कोर्ट ने सीआईसी के इस आदेश को दिल्ली हाई कोर्ट में ये कहते हुए चुनौती दी कि इस आदेश से न्यायिक आजादी पर खतरा पैदा हो जाता है. इस मामले पर पहले सिंगल जज बेंच और बाद में बनी तीन जजों की बेंच ने सीआईसी के फैसले को सही ठहराया.

2010 में सुप्रीम कोर्ट के सेकेट्री जनरल ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. इस मामले में जहां सुप्रीम कोर्ट याचिकाकर्ता और जज दोनों की भूमिका में था, कोर्ट ने सूचना में पारदर्शिता की वकालत की.

इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट न्यायिक जवाबदेही के लिये बने नेशनल ज्यूडीशियल एकांउटिबिलिटी एक्ट को खारिज कर चुका था. वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा था कि न्यायिक आजादी का मतलब न्यापालिका में राजनीतिक दखल अंदाजी से बचाना होता है न कि आम लोगों की नजरों से. सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच को भूषण की ये बात तर्कसंगत लगी.

भारतीय गणतंत्र में आम लोग ही सबसे बड़े हिस्सेदार हैं. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 लोगों को बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी का हक देता है. आम लोगों का सूचना का अधिकार भी इसी दायरे में आता है.

सुप्रीम कोर्ट इससे पहले भी चुनाव लड़ने वाले सभी उमीदवारों के लिये अपनी सारी संपत्ति की घोषणा करना अनिवार्य कर चुका है. अप्रैल 2019 में भी सुप्रीम कोर्ट ने ये साफ कर दिया थी कि सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर लोगों से जानकारियां नहीं छुपा सकती है.

2005 में आरटीआई के लागू होने के साथ ही, सरकारें लगातार इसे कमजोर करने की कोशिशें करती रही हैं. हर बार सुप्रीम कोर्ट के कारण ये होने से टलता रहा है.

इस बार भी सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले से ये साफ कर दिया है कि कानून के सामने सभी लोग एक समान हैं. लागू होने के बाद भारतीय आरटीआई एक्ट को विश्व के पांच बेहतरीन एक्ट में माना गया था, लेकिन सरकारी उदासीनता के कारण ये फिसल कर छठे स्थान पर आ गया है.

एक ऐसे समय में जब देश में पत्रकारों और आरटीआई कार्यकर्ताओं की आजादी पर खतरा बढ़ रहा है, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला आशा की किरण जगाता है. अब उस दिन का इंतजार है जब लंबे समय से आरटीआई के दायरे में आने से बचने वाले राजनीतिक दल भी इसके दायरे में आ जायेंगे. उस दिन सही मायने में भारत में गणतंत्र कामयाब हो सकेगा.

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