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अंग्रेजों के शासनकाल में कैसे मनाई जाती थी छठ पूजा, सुनिये स्वतंत्रता सेनानी की जुबानी

देश के स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभाने के लिये कई सेनानी आस्था के नाम पर तरह-तरह के स्वांग रचते थे. भगवान भास्कर को अर्घ्य देने के लिये कभी महिला, तो कभी छठव्रती तक का वेष धारण कर लेते थे.

कटिहार के स्वतंत्रता सेनानी सत्यनारायण सौरभ
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Published : Nov 2, 2019, 1:26 PM IST

कटिहार: सूबे में चार दिनों तक चलने वाले छठ महापर्व के प्रति आस्था को लेकर एक से बढ़कर एक बानगी देखने को मिलती है. बिना कर्मकांड वाले इस महापर्व का पूरा दारोमदार लोगों के असीम श्रद्धा पर निर्भर है. यहीं वजह हैं कि लोग किसी भी परिस्थिति में इस पर्व को करने या फिर शरीक होने से नहीं चूकते. यह हालात आज ही नहीं, बल्कि आठ, नौ दशक पहले भी आस्था की डोर इतनी ही मजबूत थी.

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभाने के लिये कई सेनानी आस्था के नाम पर तरह-तरह के स्वांग रचते थे. भगवान भास्कर को अर्घ्य देने के लिये कभी महिला, तो कभी छठव्रती तक का वेश धारण कर लेते थे. कटिहार के स्वतंत्रता सेनानी सत्यनारायण सौरभ बताते हैं कि अटूट आस्था और गोरे सिपाहियों के खौफ के साये में छठ पर्व मनाने का वो दौर भी एक अनूठा इतिहास है.

जानकारी देते कटिहार के स्वतंत्रता सेनानी सत्यनारायण सौरभ

अंग्रेजों ने दी थी छठ करने की अनुमति
लोक आस्था के इस महापर्व के दौरान उस समय सत्यनारायण सौरभ महाराष्ट्र के गोरेगांव में थे. उन्होंने अंग्रेजों से छठ पूजा करने की अनुमति मांगी. चूंकि अंग्रेजों को छठ के बारे में कुछ नहीं पता था, इसलिये उन्हें पूजा की पूरी विधि बतानी पड़ी. सत्यनारायण सौरभ बताते हैं कि काफी विनती करने के बाद अंग्रेजों ने छठ करने की अनुमति तो दे दी लेकिन गोरे सिपाहियों का आसपास पहरा भी लगा दिया.

क्रांतिकारी वेश बदलकर पहुंचते थे छठ घाट
इस बात की सूचना मिलते ही बहुत से लोग घाट पर नहीं पहुंचे. लेकिन कुछ क्रांतिकारी महिला का वेश बदलकर घाट पहुंचे, तो कुछ मजदूर का शक्ल बदलकर, तो किसी ने नवविवाहिता की तरह पल्लू से मुंह छिपाकर अंग्रेजों की नजरों से खुद को बचाया. उन्होंने बताया कि अंग्रेजों कड़ी हुकुमत के दौरान भी लोगों में इतनी आस्था थी कि वो किसी भी लिबास में घाठ पहुंचकर सूर्य देवता को अर्घ्य जरूर देते थे.

गुलामी के दिनों मे भी लोगों में थी आस्था
अंग्रेज हुकूमत ये बखूबी जानते थे कि क्रांतिकारी आस्था के भी पुजारी होते हैं. इसलिये वह ऐसे मौके के इंतजार में रहते थे कि कैसे लोग छठ महापर्व के बहाने एकजुट हों और हम डंडे बरसा कर सभी को काल कोठरी में डाल दें, ताकि स्वतंत्रता का आंदोलन धूमिल पड़ जाये. लेकिन आजादी के दीवाने यहां भी वेश बदलकर पूजा-अर्चना कर लेते थे और अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ती थी. हर परिस्थिति में छठ महापर्व को लेकर लोगों में आस्था की डोर हमेशा से मबजूत रही है.

कटिहार: सूबे में चार दिनों तक चलने वाले छठ महापर्व के प्रति आस्था को लेकर एक से बढ़कर एक बानगी देखने को मिलती है. बिना कर्मकांड वाले इस महापर्व का पूरा दारोमदार लोगों के असीम श्रद्धा पर निर्भर है. यहीं वजह हैं कि लोग किसी भी परिस्थिति में इस पर्व को करने या फिर शरीक होने से नहीं चूकते. यह हालात आज ही नहीं, बल्कि आठ, नौ दशक पहले भी आस्था की डोर इतनी ही मजबूत थी.

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभाने के लिये कई सेनानी आस्था के नाम पर तरह-तरह के स्वांग रचते थे. भगवान भास्कर को अर्घ्य देने के लिये कभी महिला, तो कभी छठव्रती तक का वेश धारण कर लेते थे. कटिहार के स्वतंत्रता सेनानी सत्यनारायण सौरभ बताते हैं कि अटूट आस्था और गोरे सिपाहियों के खौफ के साये में छठ पर्व मनाने का वो दौर भी एक अनूठा इतिहास है.

जानकारी देते कटिहार के स्वतंत्रता सेनानी सत्यनारायण सौरभ

अंग्रेजों ने दी थी छठ करने की अनुमति
लोक आस्था के इस महापर्व के दौरान उस समय सत्यनारायण सौरभ महाराष्ट्र के गोरेगांव में थे. उन्होंने अंग्रेजों से छठ पूजा करने की अनुमति मांगी. चूंकि अंग्रेजों को छठ के बारे में कुछ नहीं पता था, इसलिये उन्हें पूजा की पूरी विधि बतानी पड़ी. सत्यनारायण सौरभ बताते हैं कि काफी विनती करने के बाद अंग्रेजों ने छठ करने की अनुमति तो दे दी लेकिन गोरे सिपाहियों का आसपास पहरा भी लगा दिया.

क्रांतिकारी वेश बदलकर पहुंचते थे छठ घाट
इस बात की सूचना मिलते ही बहुत से लोग घाट पर नहीं पहुंचे. लेकिन कुछ क्रांतिकारी महिला का वेश बदलकर घाट पहुंचे, तो कुछ मजदूर का शक्ल बदलकर, तो किसी ने नवविवाहिता की तरह पल्लू से मुंह छिपाकर अंग्रेजों की नजरों से खुद को बचाया. उन्होंने बताया कि अंग्रेजों कड़ी हुकुमत के दौरान भी लोगों में इतनी आस्था थी कि वो किसी भी लिबास में घाठ पहुंचकर सूर्य देवता को अर्घ्य जरूर देते थे.

गुलामी के दिनों मे भी लोगों में थी आस्था
अंग्रेज हुकूमत ये बखूबी जानते थे कि क्रांतिकारी आस्था के भी पुजारी होते हैं. इसलिये वह ऐसे मौके के इंतजार में रहते थे कि कैसे लोग छठ महापर्व के बहाने एकजुट हों और हम डंडे बरसा कर सभी को काल कोठरी में डाल दें, ताकि स्वतंत्रता का आंदोलन धूमिल पड़ जाये. लेकिन आजादी के दीवाने यहां भी वेश बदलकर पूजा-अर्चना कर लेते थे और अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ती थी. हर परिस्थिति में छठ महापर्व को लेकर लोगों में आस्था की डोर हमेशा से मबजूत रही है.

Intro:.......बिहार में चार दिनों तक चलने वाले छठ महापर्व के प्रति आस्था को लेकर एक से बढ़कर एक बानगी सामने आती रही हैं । बिना कर्मकांड वाले इस महापर्व का पूरा दारोमदार लोगों के असीम श्रद्धा पर निर्भर हैं । यहीं वजह हैं कि लोग किसी भी परिस्थिति में इस पर्व को करने या फिर शरीक होने से नहीं चूकते थे । यह हालात आज ही नहीं हैं बल्कि आठ - नौ दशक पूर्व भी आस्था की डोर इतनी ही मजबूत थी । भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका के लिये उस दौरान राष्ट्रीय फलक पर चर्चा में रहे कटिहार जिले में सेनानियों द्वारा इस आस्था के चलते तरह - तरह के स्वांग रच लेते थे । भगवान भाष्कर को अर्घ्य देने के लिये कभी महिला तो कभी छठव्रती तक का वेश धारण कर लेते थे.....। आईये , आप भी सुनिये कटिहार के वयोवृद्ध आजादी के दीवाने स्वतंत्रता सेनानी सत्यनारायण सौरभ की जुबानी कि कैसी होती थी गोरे सिपाहियों के डंडे के दहशत के बीच छठ महापर्व .....।


Body:कटिहार के स्वतंत्रता सेनानी सत्यनारायण सौरभ बताते हैं कि अटूट आस्था और गोरे सिपाहियों के खौफ का वह दौर भी एक अनूठा इतिहास हैं । लोकआस्था के इस महापर्व के दौरान उस समय वह महाराष्ट्र के गोरेगांव में थे तो उन्होंने अंग्रेज बाबुओं से छठ पूजा करने की अनुमति माँगी तो वह सभी छठ पूजा समझ नहीं पाये । क्या होती है छठ पूजा तो उन्होंने बताया कि यह छठ पूजा , सूर्य की पूजा हैं और हमसभी भगवान भाष्कर को पानी मे खड़े होकर अर्घ्यदान करते हैं । उन्होंने पूछा कि इसमें प्रसाद भी चढ़ता हैं तो हमलोगों ने बताया कि हमलोगों के किसी भी पूजा में प्रसाद चढ़ता हैं । उन्होंने तत्काल तो अनुमति दे दी लेकिन गोरे सिपाहियों का आसपास पहरा भी लगा दिया । इसका पता चलते ही लोग वहाँ नहीं आये तो कुछ ने महिला का वेश बदलकर घाट पहुँचे तो कुछ मजदूर का शक्ल बदलकर तो किसी ने नवविवाहिता की तरह पल्लू गिराकर घाट तक पहुँचते थे । महिलाओं को ताकीद रहती थी कि लोग लगातार आसपास पर नजर रखे । आस्था ऐसी थी कि लोग लिबास पहुँचकर घाट पर पहुँच अर्घ्यदान करते जरूर थे और इधर अंग्रेज हुकूमत , गोरे सिपाही इस ताक में रहते थे कि क्रांतिकारी आस्था की वजह से घाट तक निश्चित ही पहुँचेगें और उनके पहुँचते ही डंडे बरसाकर उसे काल कोठरी में डाल देंगे .......।


Conclusion:स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई ऐसे लोग थे जो हर पल गोरे सिपाहियों के टारगेट में रहते थे । इसमें हर वर्ग और समाज शामिल था । अंग्रेज हुकूमत जानते थे कि क्रांतिकारी आस्था के भी पुजारी होते हैं इसलिये वह ऐसे मौके के इंतजार में रहते थे कि कैसे लोग छठ महापर्व के बहाने एकजुट हों और हम डंडे बरसा सबको अँधे काल कोठरी में डाल दें ताकि स्वतंत्रता के आंदोलन धूमिल पड़ जाये लेकिन आजादी के दीवाने यहाँ भी वेश बदलकर पूजा - अर्चना कर लेते थे और अंग्रेजों को मुँह की खानी पड़ती थी..........। हर स्थिति में छठ महापर्व को लेकर लोगों में आस्था की डोर रही हैं मजबूत........।
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