कटिहार: सूबे में चार दिनों तक चलने वाले छठ महापर्व के प्रति आस्था को लेकर एक से बढ़कर एक बानगी देखने को मिलती है. बिना कर्मकांड वाले इस महापर्व का पूरा दारोमदार लोगों के असीम श्रद्धा पर निर्भर है. यहीं वजह हैं कि लोग किसी भी परिस्थिति में इस पर्व को करने या फिर शरीक होने से नहीं चूकते. यह हालात आज ही नहीं, बल्कि आठ, नौ दशक पहले भी आस्था की डोर इतनी ही मजबूत थी.
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभाने के लिये कई सेनानी आस्था के नाम पर तरह-तरह के स्वांग रचते थे. भगवान भास्कर को अर्घ्य देने के लिये कभी महिला, तो कभी छठव्रती तक का वेश धारण कर लेते थे. कटिहार के स्वतंत्रता सेनानी सत्यनारायण सौरभ बताते हैं कि अटूट आस्था और गोरे सिपाहियों के खौफ के साये में छठ पर्व मनाने का वो दौर भी एक अनूठा इतिहास है.
अंग्रेजों ने दी थी छठ करने की अनुमति
लोक आस्था के इस महापर्व के दौरान उस समय सत्यनारायण सौरभ महाराष्ट्र के गोरेगांव में थे. उन्होंने अंग्रेजों से छठ पूजा करने की अनुमति मांगी. चूंकि अंग्रेजों को छठ के बारे में कुछ नहीं पता था, इसलिये उन्हें पूजा की पूरी विधि बतानी पड़ी. सत्यनारायण सौरभ बताते हैं कि काफी विनती करने के बाद अंग्रेजों ने छठ करने की अनुमति तो दे दी लेकिन गोरे सिपाहियों का आसपास पहरा भी लगा दिया.
क्रांतिकारी वेश बदलकर पहुंचते थे छठ घाट
इस बात की सूचना मिलते ही बहुत से लोग घाट पर नहीं पहुंचे. लेकिन कुछ क्रांतिकारी महिला का वेश बदलकर घाट पहुंचे, तो कुछ मजदूर का शक्ल बदलकर, तो किसी ने नवविवाहिता की तरह पल्लू से मुंह छिपाकर अंग्रेजों की नजरों से खुद को बचाया. उन्होंने बताया कि अंग्रेजों कड़ी हुकुमत के दौरान भी लोगों में इतनी आस्था थी कि वो किसी भी लिबास में घाठ पहुंचकर सूर्य देवता को अर्घ्य जरूर देते थे.
गुलामी के दिनों मे भी लोगों में थी आस्था
अंग्रेज हुकूमत ये बखूबी जानते थे कि क्रांतिकारी आस्था के भी पुजारी होते हैं. इसलिये वह ऐसे मौके के इंतजार में रहते थे कि कैसे लोग छठ महापर्व के बहाने एकजुट हों और हम डंडे बरसा कर सभी को काल कोठरी में डाल दें, ताकि स्वतंत्रता का आंदोलन धूमिल पड़ जाये. लेकिन आजादी के दीवाने यहां भी वेश बदलकर पूजा-अर्चना कर लेते थे और अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ती थी. हर परिस्थिति में छठ महापर्व को लेकर लोगों में आस्था की डोर हमेशा से मबजूत रही है.