पटनाः मई दिवस यानी कि मजदूर दिवस, हर साल 1 मई को दुनिया भर में यह दिन मनाया जाता है. इस दिन भारत ही नहीं दुनिया के करीब 80 देशों में राष्ट्रीय अवकाश रहता है. भारत में मजदूरों की स्थिति बेहद दयनीय है. चुनावी मौसम में नेताओं के वादों, घोषणा पत्रों या सिर्फ भाषणों में ही मजदूरों का जिक्र होता है.
इससे आगे मजदूरों का कितना भला हुआ है इसकी जमीनी पड़ताल की तो काफी मायूसी नजर आती है. इसकी शुरुआत 1886 में हुई थी और 1889 में मजदूर दिवस मनाने का ऐलान किया गया था. पिछले कुछ सालों में मजदूरों की मजदूरी थोड़ी बढ़ी जरूर है मगर काम आधा हो गया है.
कितने मजबूर राजधानी के मजदूर
राजधानी पटना में मजदूरों से बात की गई तो उनका कहना है कि हम लोग हर साल वोट डालते हैं. इसके बाद भी उनके इलाके के नेता उनकी सुध नहीं लेते. इसको लेकर ईटीवी भारत में पटना के विभिन्न चौक चौराहों पर मजदूर दिवस के दिन भी काम के जुगाड़ में खड़े मजदूरों से बात की तो उन्होंने बताया कि बिना कमाए उनके घर के चूल्हे नहीं जलते और बच्चों को पढ़ाने की बात तो छोड़ ही दीजिये.
दूसरे जिलों से आए मजदूरों की समस्या
बिहार के कई जिलों से पटना के भट्टाचार्य मोड़, हड़ताली मोड़ और बेली रोड पर दिहाड़ी मजदूरी ढूंढते मजदूरों ने बताया कि शाम को रोटी का इंतजाम हो जाए इसकी खातिर सड़क पर खड़े होकर खुद की बोली लगानी पड़ती है. 400 से 600 रु रोजाना दिहाड़ी मजदूरी मिलने के बावजूद उनके हिस्से में 300 से 500 ही आते हैं. बीच के 100 रुपये तो दलाली में चले जाते हैं. ये पैसे उन्हें सड़क पर खड़े वैसे दलालों को देना पड़ता है जो उन्हें काम दिलाने का जुगाड़ करते हैं.
मजदूरों के लिए अवकाश
मजदूरों का कहना है कि आज होगी हर कहीं छुट्टी, लेकिन हमारे लिए कैसा अवकाश. आज के दिन हम घर पर बैठ जाए तो इससे हमें ही नुकसान होगा. उनके घर के चूल्हे बिना दिहाड़ी मजदूरी के नहीं जलते और खासकर के शहर में रहकर बच्चों को पढ़ाना बहुत मुश्किल हो जाता है.
उनके लिए कितने बदले हालात
सड़क पर खड़े 40% मजदूर काम ना मिलने की वजह से घर लौट जाते हैं. खुद वे भूखे सो भी जाएं पर परिवार को भूखा कैसे छोड़े. मजदूर दिवस पर मिलने वाले अवकाश से इनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आता. इतने साल बीत जाने के बाद भी मजदूरों की मनोदशा और परिस्थिति वैसे ही है.