औरंगाबाद: जिले में मूर्ति कला को पेशा बनाने वाले कुम्हार इन दिनों बढ़ती महंगाई से परेशान हैं. बढ़ती महंगाई और आर्थिक मंदी से न सिर्फ बड़े उद्योग घाटे में हैं, बल्कि मूर्ति बनाने वाले कुम्हार भी घाटे में हैं. आने वाले सरस्वती पूजा के लिए मूर्ति बना रहे कलाकारों का दर्द किसी से छिपी नहीं है. ऐसे में मिट्टी पर कारीगरी करने वाले कुम्हार लागत भी मुश्किल से निकाल पा रहे हैं. मूर्तियों की उचित मूल्य न मिलने की वजह से वे मूर्ति बनाने का पेशा छोड़ना चाह रहे हैं.
कारीगर राजू प्रजापति बताते हैं कि उचित मेहनताना तो छोड़िये कभी-कभी लागत निकालना भी मुश्किल हो जाता है. जिन मूर्तियों को 4 से 5000 मिलने चाहिए. उन मूर्तियों को लोग 1000 से 1200 रुपये में खरीदकर ले जाते हैं. पहले मूर्ति बनाना मुनाफा का काम हुआ करता था. लेकिन आज इस व्यवसाय में मुनाफा नहीं मिलता है.
नहीं मिलता है उचित मूल्य
कुम्हारों के मुताबिक उन्हें मूर्तियों का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है. कुम्हार आने वाले सरस्वती पूजा को देखते हुए दिन-रात एक कर मूर्ति गढ़ने में लगे हुए हैं. लेकिन इतनी मेहनत करने के बाद भी उन्हें उन मूर्तियों का उचित मूल्य नहीं मिलता है. बचपन से ही इस काम में लगे 60 साल के गोविंद प्रजापति बताते हैं कि बचपन से ही मूर्तियों में लगे हुए हैं. लेकिन आज तक उनका परिवार कभी तरक्की नहीं कर पाया है. वे बेहतर रोजगार की तलाश में है और उन्होंने कहा कि उन्हें इससे बेहतर काम मिलेगा तो वे इस काम को छोड़ देंगे. क्योंकि यहां उन्हें उचित मेहनताना नहीं मिलता है.
सनातन संस्कृति की परंपरा में है मिट्टी की मूर्ति
बताया जाता है कि हिंदू धर्म और सनातन संस्कृति में मिट्टी की मूर्तियों का काफी महत्व है. प्रमुख त्योहारों दुर्गा पूजा, गणपति पूजा और सरस्वती पूजा जैसे प्रमुख त्योहारों में मिट्टी की मूर्ति की पूजा की परंपरा है. इस पूजा में बड़े-बड़े पंडाल सजाए जाते हैं. दुर्गा की प्रतिमा को स्थापित किया जाता है. पूजा कमिटी के सदस्य सब जगह पैसे खर्च करते हैं. लेकिन मूर्तियों का उचित मूल्य नहीं देते है. जिससे इन मूर्तियों को बनाने वाले कुम्हार घाटे में चला जाता है.
मौसमी रोजगार है मूर्ति निर्माण
कुम्हारों के लिए मूर्ति निर्माण मौसमी काम है या हमेशा का काम नहीं है. जिसकी वजह से खाली समय में कुम्हार मजदूरी करके अपना पेट पालते हैं. कारीगर राजू प्रजापति के अनुसार जो इस पेशे से निकल गए हैं. वह सुखी संपन्न है. वहीं, जो इस पेशे में रह गए हैं वह मजदूर बनकर रह गए हैं. कारीगरों के मुताबिक आज प्राचीन मूर्ति कला को बचाने की जरूरत है. कुम्हारों को उनकी मेहनत का उचित मूल्य मिलना चाहिए. नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब मूर्ति निर्माण में मल्टीनेशनल कंपनियों का बोलबाला हो जाएगा.
सरकारी योजनाओं का पता नहीं
केंद्र सरकार की ओर से कौशल विकास योजना चलाया जा रहा है. इसके अलावा मुद्रा लोन योजना भी चलाया गया. जिसमें स्वरोजगार वालों को आमदनी और ट्रेनिंग उपलब्ध कराने की बात कही गई थी. लेकिन कुम्हारों तक इस तरह की योजनाओं की न तो कोई सूचना पहुंची है और न ही किसी योजना का क्रियान्वयन हो पाता है.