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औरंगाबाद: बढ़ती महंगाई से कुम्हार परेशान, छोड़ना चाहते हैं मूर्ति बनाने का पेशा

कारीगर राजू प्रजापति बताते हैं कि उचित मेहनताना तो छोड़िये कभी-कभी लागत निकालना भी मुश्किल हो जाता है. जिन मूर्तियों को 4 से 5 हजार मिलने चाहिए. उन मूर्तियों को लोग 10 हजार से 1200 रुपये में खरीदकर ले जाते हैं. पहले मूर्ति बनाना मुनाफा का काम हुआ करता था. लेकिन आज इस व्यवसाय में मुनाफा नहीं मिलता है.

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बढ़ती महंगाई से कुम्हार परेशान
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Published : Jan 17, 2020, 6:50 PM IST

औरंगाबाद: जिले में मूर्ति कला को पेशा बनाने वाले कुम्हार इन दिनों बढ़ती महंगाई से परेशान हैं. बढ़ती महंगाई और आर्थिक मंदी से न सिर्फ बड़े उद्योग घाटे में हैं, बल्कि मूर्ति बनाने वाले कुम्हार भी घाटे में हैं. आने वाले सरस्वती पूजा के लिए मूर्ति बना रहे कलाकारों का दर्द किसी से छिपी नहीं है. ऐसे में मिट्टी पर कारीगरी करने वाले कुम्हार लागत भी मुश्किल से निकाल पा रहे हैं. मूर्तियों की उचित मूल्य न मिलने की वजह से वे मूर्ति बनाने का पेशा छोड़ना चाह रहे हैं.

कारीगर राजू प्रजापति बताते हैं कि उचित मेहनताना तो छोड़िये कभी-कभी लागत निकालना भी मुश्किल हो जाता है. जिन मूर्तियों को 4 से 5000 मिलने चाहिए. उन मूर्तियों को लोग 1000 से 1200 रुपये में खरीदकर ले जाते हैं. पहले मूर्ति बनाना मुनाफा का काम हुआ करता था. लेकिन आज इस व्यवसाय में मुनाफा नहीं मिलता है.

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बढ़ती महंगाई से कुम्हार परेशान

नहीं मिलता है उचित मूल्य
कुम्हारों के मुताबिक उन्हें मूर्तियों का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है. कुम्हार आने वाले सरस्वती पूजा को देखते हुए दिन-रात एक कर मूर्ति गढ़ने में लगे हुए हैं. लेकिन इतनी मेहनत करने के बाद भी उन्हें उन मूर्तियों का उचित मूल्य नहीं मिलता है. बचपन से ही इस काम में लगे 60 साल के गोविंद प्रजापति बताते हैं कि बचपन से ही मूर्तियों में लगे हुए हैं. लेकिन आज तक उनका परिवार कभी तरक्की नहीं कर पाया है. वे बेहतर रोजगार की तलाश में है और उन्होंने कहा कि उन्हें इससे बेहतर काम मिलेगा तो वे इस काम को छोड़ देंगे. क्योंकि यहां उन्हें उचित मेहनताना नहीं मिलता है.

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कारीगर

सनातन संस्कृति की परंपरा में है मिट्टी की मूर्ति
बताया जाता है कि हिंदू धर्म और सनातन संस्कृति में मिट्टी की मूर्तियों का काफी महत्व है. प्रमुख त्योहारों दुर्गा पूजा, गणपति पूजा और सरस्वती पूजा जैसे प्रमुख त्योहारों में मिट्टी की मूर्ति की पूजा की परंपरा है. इस पूजा में बड़े-बड़े पंडाल सजाए जाते हैं. दुर्गा की प्रतिमा को स्थापित किया जाता है. पूजा कमिटी के सदस्य सब जगह पैसे खर्च करते हैं. लेकिन मूर्तियों का उचित मूल्य नहीं देते है. जिससे इन मूर्तियों को बनाने वाले कुम्हार घाटे में चला जाता है.

मौसमी रोजगार है मूर्ति निर्माण
कुम्हारों के लिए मूर्ति निर्माण मौसमी काम है या हमेशा का काम नहीं है. जिसकी वजह से खाली समय में कुम्हार मजदूरी करके अपना पेट पालते हैं. कारीगर राजू प्रजापति के अनुसार जो इस पेशे से निकल गए हैं. वह सुखी संपन्न है. वहीं, जो इस पेशे में रह गए हैं वह मजदूर बनकर रह गए हैं. कारीगरों के मुताबिक आज प्राचीन मूर्ति कला को बचाने की जरूरत है. कुम्हारों को उनकी मेहनत का उचित मूल्य मिलना चाहिए. नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब मूर्ति निर्माण में मल्टीनेशनल कंपनियों का बोलबाला हो जाएगा.

ईटीवी भारत की रिपोर्ट

सरकारी योजनाओं का पता नहीं
केंद्र सरकार की ओर से कौशल विकास योजना चलाया जा रहा है. इसके अलावा मुद्रा लोन योजना भी चलाया गया. जिसमें स्वरोजगार वालों को आमदनी और ट्रेनिंग उपलब्ध कराने की बात कही गई थी. लेकिन कुम्हारों तक इस तरह की योजनाओं की न तो कोई सूचना पहुंची है और न ही किसी योजना का क्रियान्वयन हो पाता है.

औरंगाबाद: जिले में मूर्ति कला को पेशा बनाने वाले कुम्हार इन दिनों बढ़ती महंगाई से परेशान हैं. बढ़ती महंगाई और आर्थिक मंदी से न सिर्फ बड़े उद्योग घाटे में हैं, बल्कि मूर्ति बनाने वाले कुम्हार भी घाटे में हैं. आने वाले सरस्वती पूजा के लिए मूर्ति बना रहे कलाकारों का दर्द किसी से छिपी नहीं है. ऐसे में मिट्टी पर कारीगरी करने वाले कुम्हार लागत भी मुश्किल से निकाल पा रहे हैं. मूर्तियों की उचित मूल्य न मिलने की वजह से वे मूर्ति बनाने का पेशा छोड़ना चाह रहे हैं.

कारीगर राजू प्रजापति बताते हैं कि उचित मेहनताना तो छोड़िये कभी-कभी लागत निकालना भी मुश्किल हो जाता है. जिन मूर्तियों को 4 से 5000 मिलने चाहिए. उन मूर्तियों को लोग 1000 से 1200 रुपये में खरीदकर ले जाते हैं. पहले मूर्ति बनाना मुनाफा का काम हुआ करता था. लेकिन आज इस व्यवसाय में मुनाफा नहीं मिलता है.

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बढ़ती महंगाई से कुम्हार परेशान

नहीं मिलता है उचित मूल्य
कुम्हारों के मुताबिक उन्हें मूर्तियों का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है. कुम्हार आने वाले सरस्वती पूजा को देखते हुए दिन-रात एक कर मूर्ति गढ़ने में लगे हुए हैं. लेकिन इतनी मेहनत करने के बाद भी उन्हें उन मूर्तियों का उचित मूल्य नहीं मिलता है. बचपन से ही इस काम में लगे 60 साल के गोविंद प्रजापति बताते हैं कि बचपन से ही मूर्तियों में लगे हुए हैं. लेकिन आज तक उनका परिवार कभी तरक्की नहीं कर पाया है. वे बेहतर रोजगार की तलाश में है और उन्होंने कहा कि उन्हें इससे बेहतर काम मिलेगा तो वे इस काम को छोड़ देंगे. क्योंकि यहां उन्हें उचित मेहनताना नहीं मिलता है.

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कारीगर

सनातन संस्कृति की परंपरा में है मिट्टी की मूर्ति
बताया जाता है कि हिंदू धर्म और सनातन संस्कृति में मिट्टी की मूर्तियों का काफी महत्व है. प्रमुख त्योहारों दुर्गा पूजा, गणपति पूजा और सरस्वती पूजा जैसे प्रमुख त्योहारों में मिट्टी की मूर्ति की पूजा की परंपरा है. इस पूजा में बड़े-बड़े पंडाल सजाए जाते हैं. दुर्गा की प्रतिमा को स्थापित किया जाता है. पूजा कमिटी के सदस्य सब जगह पैसे खर्च करते हैं. लेकिन मूर्तियों का उचित मूल्य नहीं देते है. जिससे इन मूर्तियों को बनाने वाले कुम्हार घाटे में चला जाता है.

मौसमी रोजगार है मूर्ति निर्माण
कुम्हारों के लिए मूर्ति निर्माण मौसमी काम है या हमेशा का काम नहीं है. जिसकी वजह से खाली समय में कुम्हार मजदूरी करके अपना पेट पालते हैं. कारीगर राजू प्रजापति के अनुसार जो इस पेशे से निकल गए हैं. वह सुखी संपन्न है. वहीं, जो इस पेशे में रह गए हैं वह मजदूर बनकर रह गए हैं. कारीगरों के मुताबिक आज प्राचीन मूर्ति कला को बचाने की जरूरत है. कुम्हारों को उनकी मेहनत का उचित मूल्य मिलना चाहिए. नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब मूर्ति निर्माण में मल्टीनेशनल कंपनियों का बोलबाला हो जाएगा.

ईटीवी भारत की रिपोर्ट

सरकारी योजनाओं का पता नहीं
केंद्र सरकार की ओर से कौशल विकास योजना चलाया जा रहा है. इसके अलावा मुद्रा लोन योजना भी चलाया गया. जिसमें स्वरोजगार वालों को आमदनी और ट्रेनिंग उपलब्ध कराने की बात कही गई थी. लेकिन कुम्हारों तक इस तरह की योजनाओं की न तो कोई सूचना पहुंची है और न ही किसी योजना का क्रियान्वयन हो पाता है.

Intro:संक्षिप्त- जिले में मूर्ति कला को पेशा बनाने वाले कुम्हार इन दिनों बढ़ती महंगाई से परेशान हैं। मूर्तियों की उचित मूल्य न मिलने के कारण हुए मूर्ति बनाने के पेशा को छोड़ना चाह रहे हैं।

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औरंगाबाद- बढ़ती महंगाई और आर्थिक मंदी में ना सिर्फ बड़े उद्योग घाटे में हैं बल्कि मूर्ति बनाने वाले कुम्हार भी घाटे में हैं। आने वाले सरस्वती पूजा के लिए मूर्ति बना रहे कलाकारों का दर्द किसी से छिपी नहीं है। मिट्टी पर कारीगरी करने वाले कुम्हार लागत भी मुश्किल से निकाल पा रहे हैं। पेश है औरंगाबाद संवाददाता राजेश रंजन की रिपोर्ट।


Body:गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट, अंतर हाथ सहार दे बाहर बाहर चोट । कबीरदास का यह दोहा कुम्हारों के विषय में कही गई है। जिसमें उन्होंने कुम्हार को गुरु और शिष्य को घड़ा कह कर संबोधित किया है और उनकी महिमा का बखान किया है कि कैसे कुम्हार मिट्टी के अंदर हाथ लगाकर सहारा देता है और बाहर चोट देकर उसे उचित आकार देता है। मिट्टी को उचित आकार देकर ही कुम्हार विभिन्न तरह के देवी देवताओं की रचना करता है । उन देवी देवताओं की मूर्तियों को लाखों रुपए के पूजा पंडाल में प्राण प्रतिष्ठा के साथ रखा जाता है और पूजा के बाद उन्हें ससम्मान जल समाधि दी जाती है। लेकिन क्या उन कुम्हारों को भी इसका मेहनताना मिलता है जिसके लिए वे दिन रात एक कर देते हैं?

नहीं मिलता है उचित मूल्य

इस संबंध में जब हमने कुम्हारों के जीवन को टटोलना शुरू किया तो पता चला कि उन्हें मूर्तियों का उचित मूल्य तक नहीं मिलता। कुम्हार आने वाले सरस्वती पूजा को देखते हुए दिन रात एक कर के अपने बाल बच्चों के साथ मिलकर मूर्ति गढ़ने में लगे हुए हैं । लेकिन इतनी मेहनत करने के बाद भी उन्हें उन मूर्तियों का उचित मूल्य नहीं मिलता है। बचपन से ही इस काम में लगे 60 वर्षीय गोविंद प्रजापति बताते हैं कि बचपन से ही मूर्तियों में लगे हुए हैं लेकिन आज तक उनका परिवार कभी तरक्की नहीं कर पाया। वे बेहतर रोजगार की तलाश में है और उन्होंने कहा कि उन्हें इससे बेहतर काम मिलेगा तो कला के इस काम को छोड़ देंगे। क्योंकि यहां उन्हें उचित मेहनताना नहीं मिलता है। वहीं नवीनगर के ही राजू प्रजापति बताते हैं कि उचित मेहनताना तो छोड़िये कभी कभी लागत निकालना मुश्किल हो जाता है। जिन मूर्तियों को चार से ₹5000 मिलने चाहिए उन मूर्तियों को लोग 1000 से 12 सौ रुपए के बीच में खरीदकर ले जाते हैं। वह उनके पारिवारिक पेशे को ढो रहे हैं। इस काम को इसलिए ढो रहे हैं कि उनके पास कोई दूसरा काम नहीं है। पहले मूर्ति बनाना मुनाफा का काम हुआ करता था। उनके पुरखों की रोजी-रोटी थी। लेकिन आज इस व्यवसाय में मुनाफा नहीं मिलता है। जितनी मेहनत इस कार्य में लगाते हैं दूसरे कामों में काफी मुनाफा मिलता ।

सनातन संस्कृति की परंपरा में है मिट्टी की मूर्ति

हिंदू धर्म और सनातन संस्कृति में मिट्टी मूर्तियों का काफी महत्व है और प्रमुख त्योहारों जैसे दुर्गा पूजा, गणपति पूजा और सरस्वती पूजा आदि प्रमुख त्योहारों में मिट्टी की मूर्ति की पूजा की परंपरा है। इन पूजा में बड़े-बड़े भव्य पंडाल सजाए जाते हैं और देवी दुर्गा की प्रतिमा को स्थापित किया जाता है। पूजा कमेटी सब जगह तो पैसे खर्च करते हैं लेकिन मूर्तियों को उचित मूल्य नहीं देते। इन प्रतिमाओं को बनाने वाले कुम्हार कंगाल का कंगाल ही रह जाता है क्योंकि उन्हें ना तो उचित मूल्य मिलता है और ना ही उन्हें सालों भर के लिए रोजगार।

मौसमी रोजगार है मूर्ति निर्माण
कुम्हारों के लिए मूर्ति निर्माण मौसमी काम है या हमेशा का काम नहीं है। जिस कारण खाली समय में कुम्हार मजदूरी करके अपने पेट पालते हैं। राजू प्रजापति के अनुसार जो इस पेशे से निकल गए हैं वह सुखी संपन्न है और जो इस पेशे में रह गए हैं वह मजदूर बनकर रह गए हैं।

सरकारी योजनाओं का पता नहीं
अभी केंद्र सरकार द्वारा कौशल विकास योजना चलाया जा रहा था। इसके अलावा मुद्रा लोन योजना भी चलाया गया था जिसमें स्वरोजगार वालों को धन और ट्रेनिंग उपलब्ध कराने की बात कही गई थी। लेकिन इनको कुम्हारों तक इस तरह की योजनाओं का न तो कोई सूचना पहुंच पाती है और ना ही कोई योजना क्रियान्वयन हो पाता है।


Conclusion:आज प्राचीन मूर्ति कला को बचाने की जरूरत है। इन कुम्हारों को उचित मूल्य मिलना ही चाहिए। नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब मूर्ति निर्माण में मल्टीनेशनल कंपनियों का बोलबाला होगा।
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