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यूं ही चलता रहा तो तेजस्वी भी कहीं 'अखिलेश' न बन जाए!

पांच विधान पार्षदों के आरजेडी छोड़ने और रघुवंश प्रसाद सिंह के सभी पदों से इस्तीफा देना तेजस्वी के लिए खतरे का अलार्म है. कयास तो ये भी लग रहे हैं कि विधानसभा चुनाव से पहले कई और नेता उनका साथ छोड़ सकते हैं. ये तमाम लोग तेजस्वी के फैसलों से नाराज बताए जाते हैं.

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Published : Jun 23, 2020, 5:18 PM IST

Updated : Jun 24, 2020, 3:49 PM IST

Akhilesh
Akhilesh

पटना: बिहार के मुख्यमंत्री का ख्वाब देख रहे नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव को चुनाव से ठीक पहले तगड़ा झटका लगा है. उनके 5 विधान पार्षदों ने पाला बदलकर नीतीश कुमार की सरपरस्ती स्वीकार कर ली है. इस झटके से वे उबरे भी नहीं थे कि चंद घंटे के भीतर ही लालू के सबसे भरोसेमंद रघुवंश प्रसाद सिंह ने आरजेडी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया. ऐसे में सवाल ये उठ खड़ा हुआ है कि क्या तेजस्वी अपने कुनबे को संभाल नहीं पा रहे हैं?

Tejashwi Yadav
(फाइल)

राजनीति में चुनाव से ऐन पहले पाला बदलना कोई नई बात नहीं है. हर दल में ऐसा होता है. कुछ लोग इधर से उधर होते हैं, लेकिन सवाल तब गंभीर हो जाता है जब पुराने और वफादार लोग नाराज होकर ऐसा कदम उठाते हैं. जिस तरह से पिछले 2-3 सालों में आरजेडी के कई कद्दावर और पुराने लोग पार्टी से अलग हुए हैं या अलग-थलग कर दिए गए हैं, वह आरजेडी और खासकर तेजस्वी के लिए परेशानी और चिंता की असल वजह होनी चाहिए.

तेजस्वी के सामने चुनौती

तेजस्वी के नेतृत्व और कार्यकुशलता को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं. कहा जाता है कि तेजस्वी पुराने और अनुभवी चेहरों को बहुत तरजीह नहीं देते. जिस वजह से कई वरिष्ठ नेता खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं. कुछ अलग रास्ता अख्तियार कर लेते हैं और कुछ शांत होकर बैठ जाते हैं. चूकि चंद महीनों में विधानसभा के चुनाव होने हैं, ऐसे में राजनीतिक हलकों में ये सवाल उठने लगे हैं कि अगर तेजस्वी अपनी पार्टी और गठबंधन को संभालकर नहीं रख पाए तो कहीं 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव की तरह उनका हाल अखिलेश यादव जैसा न हो जाए.

Tejashwi Yadav
तेजस्वी के सामने पार्टी को संभालने की चुनौती

तेजस्वी-अखिलेश को मिली पिता की सियासी विरासत

वैसे तो हर प्रदेश की सियासत दूसरे से भिन्न होती है, लेकिन कई मायनों में तुलना एक हदतक हो ही सकती है. तेजस्वी और अखिलेश के मामले में भी कई बातें बिल्कुल जुदा है, लेकिन कई बातों में समानता भी है. मसलन अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव और तेजस्वी के पिता लालू प्रसाद यादव दोनों समाजवादी नेता हैं. दोनों ने अपने बूते लंबा संघर्ष कर राजनीति की पथरीली राह पर अपना अलग मुकाम हासिल किया है. दोनों अपने-अपने प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. आज भी दोनों की पार्टी विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल है. जातिगत समीकरण के लिहाज से भी दोनों की ताकत 'माय' (मुस्लिम-यादव गठजोड़) समीकरण है. तेजस्वी और अखिलेश अपने-अपने पिता की सियासी विरासत को संभाल रहे हैं.

यूपी की तरह बिहार में भी 'पॉलिटिकल ड्रामा'!

2020 बिहार विधानसभा चुनाव का परिणाम क्या आएगा, ये तो भविष्य के गर्त में है. मगर चुनाव से पहले जिस तरह के हालात बन रहे हैं, वो 2017 के यूपी चुनाव से ठीक पहले हुए 'द ग्रेट पॉलिटिकल ड्रामा' की चंद झलकियां दिखा रहे हैं. उस दौरान अखिलेश यादव का असल मुकाबला चाचा शिवपाल सिंह यादव से था. दोनों के बीच टकराव इतना बढ़ा कि बेहतर काम और मजबूत सियासी समीकरण के बावजूद अखिलेश यादव चुनावी अखाड़े में धराशायी हो गए. अब यही स्थिति कमोबेश तेजस्वी के सामने भी आन पड़ी है.

Tejashwi Yadav
प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान लालू-तेजस्वी (फाइल)

तेजस्वी के नेतृत्व पर सवाल

नीतीश कुमार के खिलाफ 15 साल से जारी सत्ता विरोधी लहर, खराब होती कानून-व्यवस्था, मुजफ्फरपुर शेल्टर होम कांड, चमकी बुखार से सैकड़ों बच्चों की मौत, पटना का जलजमाव, सृजन समेत दर्जनभर घोटाले, लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों की नाराजगी समेत तमाम मुद्दों के बावजूद तेजस्वी लड़ाई शुरू होने से पहले ही शिकस्त खाते दिख रहे हैं. नेता पार्टी छोड़ रहे हैं और सहयोगी उन्हें सीएम उम्मीदवार मानने को तैयार नहीं हैं.

पार्टी और परिवार में मतभेद

दरअसल, परिवार में लालू के सियासी उत्तराधिकारी के लिए मची होड़ में बड़ी मुश्किल से तेजस्वी के नाम पर भाई तेजप्रताप और बहन मीसा भारती ने मजबूरन अपनी रजामंदी दी है. पार्टी ने भी धीरे-धीरे तेजस्वी को अपना 'बॉस' स्वीकार भी कर लिया है, लेकिन उनके तौर-तरीकों से कई बड़े नेता क्षुब्ध रहते हैं. जिसका नतीजा है कि लालू की गैर-मौजूदगी के बीच कई बड़े नेताओं ने आरजेडी का दामन छोड़ दिया.

Tejashwi Yadav
लालू-रघुवंश (फाइल)

तेजस्वी से कई नेता नाराज

लालू की अनुपस्थिति में तेजस्वी ने यूं तो कई उपचुनाव लड़े और जीते भी, लेकिन 2019 का आम चुनाव उनके लिए असली इम्तहान था. इस चुनाव के दौरान ही लालू के कई करीबी, मसलन पूर्व केंद्रीय मंत्री अली अशरफ फातमी, पूर्व सांसद मंगनी लाल मंडल, पूर्व विधान पार्षद राम बदन राय, पूर्व विधायक गोपाल मंडल और पूर्व विधायक जगत नारायण सिंह कुशवाहा ने टिकट बंटवारे से नाराज होकर पार्टी छोड़ दी. ये सभी लालू के जमाने में पार्टी में काफी सक्रिय थे. वहीं, टिकट नहीं मिलने से पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. कांति सिंह भी नाराज थीं, हालांकि वे पार्टी में बनी हुई हैं.

बड़े नेता दरकिनार

पिछले लोकसभा चुनाव में पहली बार ऐसा हुआ कि आरजेडी खाता भी नहीं खोल सका, जिसके बाद तेजस्वी के नेतृत्व और चुनावी कौशल को लेकर सवाल उठने लगे थे. इसके बावजूद तेजस्वी को कोई फर्क नहीं पड़ा. बजाय सड़कों पर उतरने और लोगों के बीच रहने के वे 'अज्ञातवास' में चले गए. वहीं, रघुवंश प्रसाद सिंह, अब्दुल बारी सिद्दीकी और शिवानंद तिवारी जैसे लालू के खास रहे पुराने वफादारों की भूमिका सीमित कर दी गई. शिवानंद तिवारी ने तो कुछ दिनों के लिए राजनीतिक एकांतवास की भी घोषणा कर दी. हालांकि बाद में सक्रिय राजनीति में लौट आए.

Tejashwi Yadav
रघुवंश प्रसाद के साथ लालू (फाइल)

वफादार रहे हैं रघुवंश

बहरहाल हालिया घटनाक्रम ये बताता है कि तेजस्वी अपने ही नेताओं से कितने दूर-दूर रहते हैं कि 5 एमएलसी पटना में रहते विधान परिषद जाकर सभापति को जेडीयू में शामिल होने के लिए औपचारिक पत्र भी सौंप देते हैं और तेजस्वी को कानों-कान खबर तक नहीं होती. उससे भी जो गंभीर बात है, वो ये कि उन रघुवंश बाबू ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया है, जो लालू के शायद सबसे खास और सबसे भरोसेमंद रहे हैं. वफादारी इतनी कि 2014 और 2019 में चुनाव हारने के बावजूद भी साथ नहीं छोड़ा. जबकि उन्हें अपने साथ लेने के लिए जेडीयू और बीजेपी ललायित थी.

Tejashwi Yadav
सभा को संबोधित करते रघुवंश सिंह (फाइल)

नेताओं की नाराजगी से तेजस्वी बेखबर

रघुवंश सिंह की नाराजगी का कारण राज्यसभा सीट नहीं मिलने से लेकर रामा सिंह भी हैं, जिन्हें तेजस्वी अपने साथ लेने को बेताब दिख रहे हैं. इसके लिए बकायदा 29 जून की तारीख भी तय कर दी गई, जब धूमधाम से रामा सिंह को आरजेडी की सदस्यता दिलाई जाएगी. ये वही रामा सिंह हैं, जो लालू और रघुवंश के धूर-विरोधी रहे हैं. 2014 में रघुवंश बाबू को वैशाली सीट पर चुनाव भी हराया था. उनके पार्टी में आने की बात से रघुवंश काफी नाराज हैं. उनकी नाराजगी किस कदर है कि कोरोना पॉजिटिव होने के कारण अस्पताल में भर्ती होने के बावजूद पद से इस्तीफा दे दिया. मतलब साफ है कि तेजस्वी को या तो उनकी नाराजगी का पता नहीं था या उन्होंने इसे बहुत तवज्जो नहीं दिया.

Tejashwi Yadav
अखिलेश यादव के साथ तेजस्वी यादव

अखिलेश की राह पर तेजस्वी!

तो सवाल उठता है कि क्या तेजस्वी अपने ही नेताओं की भावनाओं का ख्याल नहीं रखते. या उन्होंने ठान लिया है कि वे अपने मन की करेंगे, फिर चाहे इसके लिए पुराने स्तंभों को उखाड़ना ही क्यों न पड़े. राजनीतिक जानकार कहते हैं कि पार्टी में नए लोगों को शामिल कराने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन शीर्ष नेतृत्व को पुराने नेताओं को विश्वास में लेकर ही आगे बढ़ना चाहिए. नहीं तो सियासी नफा से अधिक नुकसान होने की संभावना बढ़ जाती है. अगर तेजस्वी भी इस बात को वक्त रहते नहीं समझे और पार्टी को संभालकर नहीं रख पाए तो नीतीश सरकार की तमाम नाकामी और मजबूत जातिगत समीकरण के बावजूद भी ठीक वैसे ही एनडीए के सामने नहीं टिक पाएंगे जैसा कि पार्टी और परिवार में मची कलह के कारण अखिलेश यादव यूपी में बीजेपी से लड़ाई में पिछड़ गए. जबकि उन्होंने तो 5 साल सत्ता में रहते विकास के कई महत्वपूर्ण काम भी किए थे.

पटना: बिहार के मुख्यमंत्री का ख्वाब देख रहे नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव को चुनाव से ठीक पहले तगड़ा झटका लगा है. उनके 5 विधान पार्षदों ने पाला बदलकर नीतीश कुमार की सरपरस्ती स्वीकार कर ली है. इस झटके से वे उबरे भी नहीं थे कि चंद घंटे के भीतर ही लालू के सबसे भरोसेमंद रघुवंश प्रसाद सिंह ने आरजेडी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया. ऐसे में सवाल ये उठ खड़ा हुआ है कि क्या तेजस्वी अपने कुनबे को संभाल नहीं पा रहे हैं?

Tejashwi Yadav
(फाइल)

राजनीति में चुनाव से ऐन पहले पाला बदलना कोई नई बात नहीं है. हर दल में ऐसा होता है. कुछ लोग इधर से उधर होते हैं, लेकिन सवाल तब गंभीर हो जाता है जब पुराने और वफादार लोग नाराज होकर ऐसा कदम उठाते हैं. जिस तरह से पिछले 2-3 सालों में आरजेडी के कई कद्दावर और पुराने लोग पार्टी से अलग हुए हैं या अलग-थलग कर दिए गए हैं, वह आरजेडी और खासकर तेजस्वी के लिए परेशानी और चिंता की असल वजह होनी चाहिए.

तेजस्वी के सामने चुनौती

तेजस्वी के नेतृत्व और कार्यकुशलता को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं. कहा जाता है कि तेजस्वी पुराने और अनुभवी चेहरों को बहुत तरजीह नहीं देते. जिस वजह से कई वरिष्ठ नेता खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं. कुछ अलग रास्ता अख्तियार कर लेते हैं और कुछ शांत होकर बैठ जाते हैं. चूकि चंद महीनों में विधानसभा के चुनाव होने हैं, ऐसे में राजनीतिक हलकों में ये सवाल उठने लगे हैं कि अगर तेजस्वी अपनी पार्टी और गठबंधन को संभालकर नहीं रख पाए तो कहीं 2017 के उत्तर प्रदेश चुनाव की तरह उनका हाल अखिलेश यादव जैसा न हो जाए.

Tejashwi Yadav
तेजस्वी के सामने पार्टी को संभालने की चुनौती

तेजस्वी-अखिलेश को मिली पिता की सियासी विरासत

वैसे तो हर प्रदेश की सियासत दूसरे से भिन्न होती है, लेकिन कई मायनों में तुलना एक हदतक हो ही सकती है. तेजस्वी और अखिलेश के मामले में भी कई बातें बिल्कुल जुदा है, लेकिन कई बातों में समानता भी है. मसलन अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव और तेजस्वी के पिता लालू प्रसाद यादव दोनों समाजवादी नेता हैं. दोनों ने अपने बूते लंबा संघर्ष कर राजनीति की पथरीली राह पर अपना अलग मुकाम हासिल किया है. दोनों अपने-अपने प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. आज भी दोनों की पार्टी विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल है. जातिगत समीकरण के लिहाज से भी दोनों की ताकत 'माय' (मुस्लिम-यादव गठजोड़) समीकरण है. तेजस्वी और अखिलेश अपने-अपने पिता की सियासी विरासत को संभाल रहे हैं.

यूपी की तरह बिहार में भी 'पॉलिटिकल ड्रामा'!

2020 बिहार विधानसभा चुनाव का परिणाम क्या आएगा, ये तो भविष्य के गर्त में है. मगर चुनाव से पहले जिस तरह के हालात बन रहे हैं, वो 2017 के यूपी चुनाव से ठीक पहले हुए 'द ग्रेट पॉलिटिकल ड्रामा' की चंद झलकियां दिखा रहे हैं. उस दौरान अखिलेश यादव का असल मुकाबला चाचा शिवपाल सिंह यादव से था. दोनों के बीच टकराव इतना बढ़ा कि बेहतर काम और मजबूत सियासी समीकरण के बावजूद अखिलेश यादव चुनावी अखाड़े में धराशायी हो गए. अब यही स्थिति कमोबेश तेजस्वी के सामने भी आन पड़ी है.

Tejashwi Yadav
प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान लालू-तेजस्वी (फाइल)

तेजस्वी के नेतृत्व पर सवाल

नीतीश कुमार के खिलाफ 15 साल से जारी सत्ता विरोधी लहर, खराब होती कानून-व्यवस्था, मुजफ्फरपुर शेल्टर होम कांड, चमकी बुखार से सैकड़ों बच्चों की मौत, पटना का जलजमाव, सृजन समेत दर्जनभर घोटाले, लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों की नाराजगी समेत तमाम मुद्दों के बावजूद तेजस्वी लड़ाई शुरू होने से पहले ही शिकस्त खाते दिख रहे हैं. नेता पार्टी छोड़ रहे हैं और सहयोगी उन्हें सीएम उम्मीदवार मानने को तैयार नहीं हैं.

पार्टी और परिवार में मतभेद

दरअसल, परिवार में लालू के सियासी उत्तराधिकारी के लिए मची होड़ में बड़ी मुश्किल से तेजस्वी के नाम पर भाई तेजप्रताप और बहन मीसा भारती ने मजबूरन अपनी रजामंदी दी है. पार्टी ने भी धीरे-धीरे तेजस्वी को अपना 'बॉस' स्वीकार भी कर लिया है, लेकिन उनके तौर-तरीकों से कई बड़े नेता क्षुब्ध रहते हैं. जिसका नतीजा है कि लालू की गैर-मौजूदगी के बीच कई बड़े नेताओं ने आरजेडी का दामन छोड़ दिया.

Tejashwi Yadav
लालू-रघुवंश (फाइल)

तेजस्वी से कई नेता नाराज

लालू की अनुपस्थिति में तेजस्वी ने यूं तो कई उपचुनाव लड़े और जीते भी, लेकिन 2019 का आम चुनाव उनके लिए असली इम्तहान था. इस चुनाव के दौरान ही लालू के कई करीबी, मसलन पूर्व केंद्रीय मंत्री अली अशरफ फातमी, पूर्व सांसद मंगनी लाल मंडल, पूर्व विधान पार्षद राम बदन राय, पूर्व विधायक गोपाल मंडल और पूर्व विधायक जगत नारायण सिंह कुशवाहा ने टिकट बंटवारे से नाराज होकर पार्टी छोड़ दी. ये सभी लालू के जमाने में पार्टी में काफी सक्रिय थे. वहीं, टिकट नहीं मिलने से पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. कांति सिंह भी नाराज थीं, हालांकि वे पार्टी में बनी हुई हैं.

बड़े नेता दरकिनार

पिछले लोकसभा चुनाव में पहली बार ऐसा हुआ कि आरजेडी खाता भी नहीं खोल सका, जिसके बाद तेजस्वी के नेतृत्व और चुनावी कौशल को लेकर सवाल उठने लगे थे. इसके बावजूद तेजस्वी को कोई फर्क नहीं पड़ा. बजाय सड़कों पर उतरने और लोगों के बीच रहने के वे 'अज्ञातवास' में चले गए. वहीं, रघुवंश प्रसाद सिंह, अब्दुल बारी सिद्दीकी और शिवानंद तिवारी जैसे लालू के खास रहे पुराने वफादारों की भूमिका सीमित कर दी गई. शिवानंद तिवारी ने तो कुछ दिनों के लिए राजनीतिक एकांतवास की भी घोषणा कर दी. हालांकि बाद में सक्रिय राजनीति में लौट आए.

Tejashwi Yadav
रघुवंश प्रसाद के साथ लालू (फाइल)

वफादार रहे हैं रघुवंश

बहरहाल हालिया घटनाक्रम ये बताता है कि तेजस्वी अपने ही नेताओं से कितने दूर-दूर रहते हैं कि 5 एमएलसी पटना में रहते विधान परिषद जाकर सभापति को जेडीयू में शामिल होने के लिए औपचारिक पत्र भी सौंप देते हैं और तेजस्वी को कानों-कान खबर तक नहीं होती. उससे भी जो गंभीर बात है, वो ये कि उन रघुवंश बाबू ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया है, जो लालू के शायद सबसे खास और सबसे भरोसेमंद रहे हैं. वफादारी इतनी कि 2014 और 2019 में चुनाव हारने के बावजूद भी साथ नहीं छोड़ा. जबकि उन्हें अपने साथ लेने के लिए जेडीयू और बीजेपी ललायित थी.

Tejashwi Yadav
सभा को संबोधित करते रघुवंश सिंह (फाइल)

नेताओं की नाराजगी से तेजस्वी बेखबर

रघुवंश सिंह की नाराजगी का कारण राज्यसभा सीट नहीं मिलने से लेकर रामा सिंह भी हैं, जिन्हें तेजस्वी अपने साथ लेने को बेताब दिख रहे हैं. इसके लिए बकायदा 29 जून की तारीख भी तय कर दी गई, जब धूमधाम से रामा सिंह को आरजेडी की सदस्यता दिलाई जाएगी. ये वही रामा सिंह हैं, जो लालू और रघुवंश के धूर-विरोधी रहे हैं. 2014 में रघुवंश बाबू को वैशाली सीट पर चुनाव भी हराया था. उनके पार्टी में आने की बात से रघुवंश काफी नाराज हैं. उनकी नाराजगी किस कदर है कि कोरोना पॉजिटिव होने के कारण अस्पताल में भर्ती होने के बावजूद पद से इस्तीफा दे दिया. मतलब साफ है कि तेजस्वी को या तो उनकी नाराजगी का पता नहीं था या उन्होंने इसे बहुत तवज्जो नहीं दिया.

Tejashwi Yadav
अखिलेश यादव के साथ तेजस्वी यादव

अखिलेश की राह पर तेजस्वी!

तो सवाल उठता है कि क्या तेजस्वी अपने ही नेताओं की भावनाओं का ख्याल नहीं रखते. या उन्होंने ठान लिया है कि वे अपने मन की करेंगे, फिर चाहे इसके लिए पुराने स्तंभों को उखाड़ना ही क्यों न पड़े. राजनीतिक जानकार कहते हैं कि पार्टी में नए लोगों को शामिल कराने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन शीर्ष नेतृत्व को पुराने नेताओं को विश्वास में लेकर ही आगे बढ़ना चाहिए. नहीं तो सियासी नफा से अधिक नुकसान होने की संभावना बढ़ जाती है. अगर तेजस्वी भी इस बात को वक्त रहते नहीं समझे और पार्टी को संभालकर नहीं रख पाए तो नीतीश सरकार की तमाम नाकामी और मजबूत जातिगत समीकरण के बावजूद भी ठीक वैसे ही एनडीए के सामने नहीं टिक पाएंगे जैसा कि पार्टी और परिवार में मची कलह के कारण अखिलेश यादव यूपी में बीजेपी से लड़ाई में पिछड़ गए. जबकि उन्होंने तो 5 साल सत्ता में रहते विकास के कई महत्वपूर्ण काम भी किए थे.

Last Updated : Jun 24, 2020, 3:49 PM IST
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