देहरादून: बीती 17 अगस्त को उत्तराखंड मंत्रिमंडल ने संविदा कर्मियों के नियमितीकरण को लेकर नई नियमावली बनाने पर हरी झंडी दी है. यह खबर जैसे ही सार्वजनिक हुई तो एक नया विवाद खड़ा होता दिखाई देने लगा. दरअसल, उपनल कर्मी खुद को नियमितीकरण से दूर रखे जाने पर नाराज दिखाई दिए. साथ ही दस्तावेजों के साथ कुछ ऐसे सवाल भी उनकी जुबान पर थे जो सरकारों की कार्यप्रणाली को कटघरे में खड़ा करने के लिए काफी है.
दैनिक कर्मचारियों को रखने पर रोक: उत्तराखंड में 6 फरवरी 2003 को शासन ने संविदा, तदर्थ और दैनिक वेतन पर कर्मचारियों को रखे जाने के लिए पूरी तरह रोक लगा दी थी. आदेश में यह भी स्पष्ट किया गया कि यदि किसी विभाग को कर्मचारियों की जरूरत होगी तो उसके लिए कार्मिक विभाग की अनुमति के बाद मंत्रिमंडल के अनुमोदन के साथ ही एक निश्चित समय तक के लिए ही कर्मचारी रखे जाएंगे.
कई विभाग कर्मचारियों को कर रहे मासिक भुगतान: खास बात ये है कि 15 नवंबर 2023 को अपर मुख्य सचिव वित्त आनंद वर्धन ने एक बार फिर अपने आदेश में 2003 के इस आदेश का जिक्र करते हुए स्पष्ट किया कि संविदा, तदर्थ या दैनिक वेतन के रूप में कर्मचारियों की तैनाती पर रोक लगाई गई है. इसके बावजूद भी कई विभाग अपने स्तर पर कर्मचारियों को मासिक रूप से वेतन भुगतान कर रहे हैं.
कर्मचारी संगठन ने आवाज की मुखर: अपर मुख्य सचिव आनंद वर्धन के आदेश में साल 2003 के पुराने आदेश का जिक्र करना यह स्पष्ट करता है कि संबंधित आदेश अब भी लागू है. ऊर्जा विभाग में उपनल कर्मचारी संगठन के प्रदेश अध्यक्ष विनोद कवि का कहना है कि ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि जब 2003 से ही राज्य में तदर्थ, संविदा या दैनिक वेतन के रूप में कर्मचारियों की नियुक्ति पर रोक है तो फिर संविदा कर्मियों के नियमितीकरण के लिए नियमावली सरकार किस आधार पर और किसके लिए ला रही है. विधानसभा में बैकडोर से कर्मचारियों की भर्ती का मामला अभी ज्यादा पुराना नहीं हुआ है.
कर्मचारी संगठन ने उठाए कई सवाल: ऐसे भी सवाल उठ रहा है कि जब 2003 से ही कर्मचारियों की तैनाती पर रोक लगाई गई है तो फिर किस नियम के तहत विभागों ने कर्मचारियों की संविदा पर भर्ती की है. विनोद कवि कहते हैं कि साल 2003 में रोक लगाई जाने के बाद सरकार ने ही उपनल का गठन करते हुए इसके जरिए आउटसोर्स कर्मियों की तैनाती के निर्देश जारी किए थे. उपनल कर्मचारी की तैनाती के दौरान विभिन्न नियमों का पालन भी किया गया. लेकिन उनके नियमितीकरण पर सरकार कोई बात नहीं कर रही.
संविदा कर्मियों पर दरियादिली और उपनल कर्मियों के खिलाफ लड़ाई: उत्तराखंड में धामी सरकार ने पहली बार संविदा कर्मियों के नियमितीकरण को लेकर चर्चा नहीं की है. इससे पहले 2011 में तत्कालीन भाजपा सरकार ने संविदा कर्मियों के नियमितीकरण को लेकर पॉलिसी तैयार करते हुए 10 साल सेवा देने वाले संविदा कर्मियों को नियमित करने का फैसला किया था. इसके बाद 2013 में इस पॉलिसी की जगह एक नई पॉलिसी लाई गई और कांग्रेस सरकार ने 5 साल की सेवा देने वाले संविदा कर्मियों को नियमित करने का प्रावधान रखा.
हाईकोर्ट की शरण में गए थे कर्मचारी: साल 2016 में भी एक नई पॉलिसी आई जिसमें 5 साल के इसी नियम को आगे बढ़ाया गया. हालांकि इसके खिलाफ कुछ कर्मचारी कोर्ट पहुंच गए और हाईकोर्ट ने 2016 की पॉलिसी को रद्द करने का निर्णय सुनाया. हाईकोर्ट के इस आदेश के दौरान नई पॉलिसी पर जो बात कही गई, उसी के तहत अब धामी सरकार संविदा कर्मियों के नियमितीकरण का रास्ता तैयार कर रही है.
कर्मियों को नियमितीकरण का रास्ता तलाश रही सरकार: ऐसे में उपनल कर्मचारियों के भी कुछ सवाल हैं. जिसको धामी सरकार को स्पष्ट करना होगा. ऐसा इसलिए की एक तरफ संविदा कर्मचारियों को नियमितीकरण करने का रास्ता सरकार तलाश रही है तो दूसरी तरफ हाई कोर्ट ने उपनल कर्मचारियों को समान काम के बदले समान वेतन या नियमितीकरण करने का आदेश दिया था. जिसको सरकार कोर्ट में चुनौती देकर उपनल कर्मियों के नियमितीकरण के खिलाफ खड़ी हो गई है.
नियम के तहत फैसले या नियमितीकरण में भी मनमर्जी: सवाल उठ रहा है कि जिन संविदा कर्मियों को विभागों या सचिवालय स्तर पर नियुक्ति दी गई है. वो कौन लोग है और इसमें कौन सी प्रक्रिया अपनाई गई है? हैरत की बात ये है कि कुछ जगह पर तो कर्मचारियों को नियमित भी किया गया है. दरअसल, विनियमितीकरण नियमावली का हवाला देकर सगंध पौधा केंद्र में कर्मचारियों का नियमित करने का आदेश हुआ. जबकि कई विभाग ऐसे थे, जहां कर्मचारियों का नियमितीकरण नहीं किया गया. यानी प्रदेश में नियमितीकरण को लेकर भी कोई एकरूपता नहीं रही.
कहीं 5 साल या 8 साल वाले भी नियमित हो गए तो कहीं 15 साल से कम कर रहे कर्मचारियों का नियमितीकरण नहीं हो पाया. बड़ी बात ये है कि कुछ जगह तो आउटसोर्स कर्मचारियों ने विभाग से इस्तीफा देकर इसके बाद फौरन उसी विभाग में संविदा पर तैनाती ले ली. यह सब किस नियम के तहत हुआ और आरक्षण से लेकर समान अवसर देने की अवधारणा इसमें कैसे अपनी गई? ये सब कुछ सवालों के घेरे में है.
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