नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि "धर्मनिरपेक्षता" शब्द संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है और ऐसे कई फैसले हैं, जो यह स्पष्ट करते हैं कि इसे संशोधन न किए जा सकने वाले हिस्से का दर्जा दिया गया है, क्योंकि यह मूल ढांचे का हिस्सा है. बेंच ने बताया कि अदालत ने धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ जाने वाले कानूनों को खारिज कर दिया है.
सुप्रीम कोर्ट संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवाद' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को शामिल किए जाने को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा था. प्रस्तावना में संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाएं बलराम सिंह, वरिष्ठ भाजपा नेता डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दायर की हैं. यह मामला जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की बेंच के समक्ष आया.
जस्टिस खन्ना ने कहा, "ऐसे कई फैसले हैं, जिनमें हमने कहा है कि धर्मनिरपेक्षता (मूल ढांचे का) हिस्सा है... और, वास्तव में, इसे मूल ढांचे के रूप में असंशोधनीय हिस्से का दर्जा दिया गया है. ऐसे कई फैसले हैं, अगर आप चाहें, तो मैं उनका हवाला दे सकता हूं...". जस्टिस खन्ना ने इस बात पर जोर दिया कि, अगर कोई संविधान में इस्तेमाल किए गए समानता के अधिकार और बंधुत्व शब्द के साथ-साथ भाग III के तहत अधिकारों को देखता है, तो यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि धर्मनिरपेक्षता को संविधान की मुख्य विशेषता के रूप में माना गया है.
जस्टिस खन्ना ने कहा, "जहां तक धर्मनिरपेक्षता की बात है, जब संविधान को अपनाया गया था और चर्चा चल रही थी, तब हमारे पास केवल फ्रांसीसी मॉडल था. जिस तरह से हमने इसे विकसित किया है, वह कुछ अलग है. हमने जो अधिकार दिए हैं...हमने इसे संतुलित किया है". जस्टिस खन्ना ने कहा, "समाजवादी शब्द, निश्चित रूप से, अगर आप पश्चिमी अवधारणा से जाते हैं, तो इसका एक अलग अर्थ है, लेकिन हमने उसका पालन नहीं किया है.
हम उन बदलावों से बहुत खुश हैं...जो आर्थिक विकास हुआ है...". मामले में याचिकाकर्ताओं में से एक भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा कि, प्रस्तावना में 26 नवंबर, 1949 की तारीख है और जो जोड़ा गया है वह उससे मेल नहीं खाता है और इसे ठीक किया जाना चाहिए. स्वामी ने कहा, "प्रस्तावना इस अर्थ में सही नहीं है कि...हमारी संविधान सभा में 26 नवंबर, 1949...जोड़-तोड़ अलग पैराग्राफ के रूप में होने चाहिए थे."
जस्टिस खन्ना ने कहा कि, संशोधन हमेशा किए जाते हैं और संविधान में संशोधन हैं और संशोधन वाला हिस्सा कोष्ठक में रखा गया है. खन्ना ने कहा, "हर कोई 42वें संशोधन के बारे में जानता है...संविधान में अन्य संशोधन भी किए गए थे." स्वामी ने कहा कि प्रस्तावना दो भागों में हो सकती है, एक जिसमें तारीख हो और दूसरे में दूसरी तारीख हो सकती है और यह स्वीकार्य है. बेंच ने मामले की अगली सुनवाई 18 नवंबर से शुरू होने वाले सप्ताह में तय की और याचिकाकर्ताओं से संबंधित दस्तावेज जमा करने को कहा ताकि वह उनकी जांच कर सके. सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक याचिकाओं पर नोटिस जारी नहीं किया है.
सुनवाई के दौरान, जस्टिस खन्ना ने याचिकाकर्ताओं में से एक का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील से कहा, "आप नहीं चाहते कि भारत धर्मनिरपेक्ष हो?" अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने जवाब दिया कि उनके मुवक्किल बलराम सिंह यह नहीं कह रहे हैं कि भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं है, बल्कि "हम इस संशोधन को चुनौती दे रहे हैं". पीठ (सुप्रीम कोर्ट की बेंच) के समक्ष यह तर्क दिया गया कि डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि "समाजवाद" शब्द को शामिल करने से व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश लगेगा.
जस्टिस खन्ना ने कहा कि समाजवाद का अर्थ यह भी हो सकता है कि अवसर की समानता होनी चाहिए और देश की संपत्ति समान रूप से वितरित की जानी चाहिए, जबकि उन्होंने वकील से पश्चिमी अर्थ न लेने को कहा. जैन ने तर्क दिया कि 1976 में संविधान में 42वें संशोधन, जिसने इन परिवर्तनों को प्रभावित किया, पर संसद में कभी बहस नहीं हुई. जस्टिस खन्ना ने कहा कि, इस मामले पर लंबी बहस हो चुकी है, और उन्होंने कहा, "कृपया देखें श्रीमान जैन, इन शब्दों की अलग-अलग व्याख्याएँ हैं. आज दोनों शब्दों की अलग-अलग व्याख्याएं हैं".
जस्टिस खन्ना ने कहा, "यहां तक कि, हमारी अदालतों ने भी इन्हें बार-बार (संविधान के) मूल ढांचे का हिस्सा घोषित किया है." उपाध्याय ने इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लगाए गए आपातकाल का हवाला दिया, जिसके दौरान यह संशोधन प्रभावित हुआ था. उन्होंने पीठ के समक्ष दलील दी, "मैं इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहता कि न्यायमूर्ति एचआर खन्ना ने क्या किया और हमें बचाया...." पीठ ने बताया कि सर्वोच्च न्यायालय ने धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ जाने वाले कानूनों को खारिज कर दिया है.
उपाध्याय ने जोरदार तरीके से तर्क दिया कि प्रस्तावना में जोड़े गए दो शब्दों ने भानुमती का पिटारा खोल दिया है. उपाध्याय ने कहा, "हम हमेशा से धर्मनिरपेक्ष रहे हैं. इसे जोड़ने से एक पिटारा खुल गया है, कल लोकतंत्र शब्द हटाया जा सकता है या कुछ भी." उपाध्याय ने कहा कि इन शब्दों को जोड़ने के दौरान लोगों की कोई इच्छा नहीं थी और उन्होंने कहा, "हम लोगों की कोई इच्छा नहीं थी.
ये भी पढ़ें: SC कर्नाटक को आठवीं से दसवीं कक्षा तक अर्द्धवार्षिक परीक्षाओं के नतीजे घोषित करने से रोका