रायपुर :सुआ नृत्य छत्तीसगढ़ की आदिवासी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. जो न केवल उनके धार्मिक और सामाजिक जीवन को समृद्ध करता है, बल्कि उनके सांस्कृतिक गर्व और पहचान को भी बनाए रखता है. सुआ नृत्य को तोता के लिए नृत्य भी कहा जाता है. छत्तीसगढ़ की आदिवासी संस्कृति का एक प्रमुख लोकनृत्य है. सुआ नृत्य मुख्यतः आदिवासी महिलाएं करती हैं. दीपावली के समय इसका आयोजन खासतौर पर होता है.
आदिवासियों की है पहचान :यह नृत्य छत्तीसगढ़ की जनजातियों, विशेष रूप से गोंड, बैगा और हल्बा जनजातियों में प्रचलित है, जो इसे अपनी सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मनाते हैं. वर्तमान दौर में यह नृत्य आदिवासी परंपराओं से आगे बढ़कर अब सामान्य संस्कृति का हिस्सा बन चुका है. ईटीवी भारत ने सुआ नृत्य करने वाली टीम से बात की और इसके बारे में जाना. सुआ नृत्य करने वाली सारी लड़कियां स्कूल और कॉलेज में पढ़ती हैं. पढ़ाई और शिक्षा तो जरूरी हैं लेकिन साथ में हमारी संस्कृति और परंपरा को बचाने के लिए गांव की लड़कियां एकजुट हुई हैं.
सामाजिक एकता को देता है बढ़ावा : सुआ नृत्य के महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि गांव हो या शहर हर तरफ दीपावली के अवसर पर छोटी बच्चियों से लेकर बुजुर्ग महिलाओं तक सुआ नृत्य करते दिखाई देती हैं. यह केवल एक सांस्कृतिक आयोजन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आदिवासी समुदाय की धार्मिक और सामाजिक परंपराओं से भी जुड़ा हुआ है. इस नृत्य के माध्यम से महिलाएं अपनी फसल कटाई के बाद की खुशियों को साझा करती हैं. आने वाले समय के लिए समृद्धि की कामना करती हैं. यह नृत्य सामुदायिक एकता को भी बढ़ावा देता है, क्योंकि इसे सामूहिक रूप से आयोजित किया जाता है, जिसमें गांव के सभी लोग हिस्सा लेते हैं. सुआ नृत्य करने वाली दुलेश्वरी ठाकुर ने बताया कि सुआ नृत्य गांव वालों के लिए त्यौहार है. इसे दिवाली में मनाते हैं. साथ ही शिव और पार्वती की शादी भी करते हैं.
सुआ हमारी सांस्क़ृतिक और पारंपरिक नृत्य है. ज्यादातर इसे गांव के लोग करते हैं. गांव में ही आयोजन किया जाता हैं. अभी के लोग ज्यादा जानते नहीं हैं. इस परंपरा को हम आगे बढ़ा रहे हैं ताकि आगे की पीढ़ी भी इसे अपनाएं- दुलेश्वरी ठाकुर, सुआ डांस करने वाली युवती