शिमला:कारगिल युद्ध की जीत के उपलक्ष्य में इस बार भारत रजत जयंती मना रहा है. दुनिया की इस सबसे मुश्किल जंग को आज 25 साल बीत चुके हैं. आज पूरा देश उन वीर जवानों को याद कर रहा है, जिन्होंने देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी. इन वीर जवानों के खौलते हुए लहू से पहाड़ों पर पड़ी सफेद भी लाल हो गई थी. कारगिल जंग के कई नायक थे, जिन्होंने अपनी बहादुरी से दुश्मनों के कदम भारत की जमीन से उखाड़ दिए. उन्हीं में से एक हैं शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा, जिनके जिक्र के बिना करगिल की जीत की कहानी हमेशा अधूरी रहेगी, क्योंकि जब-जब कारगिल की बात होगी कैप्टन विक्रम बत्रा का जिक्र होना लाजमी हो जाएगा. कारगिल के उस शेरशाह के किस्से ही ऐसे हैं, जिन्हें सुनकर आपमें जोश भर जाएगा.
विक्रम बत्रा को करगिल का शेरशाह कहा जाता है. उनकी कहानी को इसी नाम से बनी फिल्म में पर्दे पर दिखाया गया था. फिल्म में कैप्टन विक्रम बत्रा का किरदार सिद्धार्थ मल्होत्रा ने निभाया था. शेरशाह सिर्फ एक फिल्म नहीं इससे हर भारतीय के जज्बात जुड़े हैं, क्योंकि इनके बिना करगिल की कहानी अधूरी है. इससे पहले भी करगिल युद्ध पर बनी फिल्म LOC KARGIL में भी विक्रम बत्रा का किरदार अभिषेक बच्चन ने निभाया था. विक्रम बत्रा का पंच लाइन 'ये दिल मांगे मोर' बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ़ गया था. यही पंचलाइन उनकी पहचान बन गई थी. कारगिल में पड़ी बर्फ पिघल सकती है, लेकिन कैप्टन बत्रा की बहादुरी की कहानी कभी नहीं मिटाई जा सकती है.
डीएवी चंडीगढ़ से की पढ़ाई
देश के लिए बत्रा करगिल का शेरशाह थे, लेकिन माता-पिता के लिए लव थे. उनका जन्म 9 सितंबर 1974 को हिमाचल के पालमपुर में हुआ था. घुग्गर गांव के स्कूल टीचर जीएल बत्रा और मां कमलकांता बत्रा दो बेटियों के बाद एक बेटा चाहते थे. भगवान ने दोगुनी खुशियां उनकी झोली में डाल दीं और कमलकांता बत्रा ने जुड़वां बेटों को जन्म दिया, जो माता-पिता के लिए लव-कुश थे. विक्रम बड़े थे जिन्हें लव और छोटे भाई विशाल को कुश कहकर बुलाते थे. मां भी टीचर थी तो बत्रा ब्रदर्स की पढ़ाई की शुरुआत घर से ही शुरू हो गई थी. डीएवी स्कूल पालमपुर में पढ़ाई के बाद कॉलेज की पढ़ाई के लिए वो चंडीगढ़ चले गए. स्कूल और कॉलेज के उनके साथी और टीचर आज भी उनकी मुस्कान, दिलेरी और उनके मिलनसार स्वभाव को याद करते हैं.
लाखों का सैलरी पैकेज ठुकराया
विक्रम बत्रा का सेलेक्शन मर्चेंट नेवी में हॉन्गकांग की एक शिपिंग कंपनी में हुआ था, ट्रेनिंग के लिए बुलावा भी आ चुका था, लेकिन उन्हें सेना की वर्दी से ज्यादा प्यार था. मर्चेंट नेवी की लाखों की तनख्वाह उनसे उनकी पहली मोहब्बत (आर्मी) को जुदा नहीं कर पाई. सेना के लिए कैप्टन बत्रा के मन में प्यार का बीज एनसीसी ने डाला था. 1995 में बत्रा ने सीडीएस की परीक्षा पास की.
"तिरंगा लहराकर आऊंगा या तिरंगे में लिपटकर"
विक्रम बत्रा को सिर्फ बंदूक और गोली से ही प्यार नहीं था, वो यारों के यार भी थे. छुट्टियों में वो दोस्तों के साथ वक्त बिताने का कोई मौके नहीं छोड़ते थे. उन्हें अपनी काबिलियत पर पूरा भरोसा था. दरअसल करगिल की जंग से कुछ वक्त पहले विक्रम बत्रा अपने घर आए थे. तब उन्होंने अपने दोस्तों को एक कैफे में पार्टी दी थी. बातचीत के दौरान उनके एक दोस्त ने कहा कि तुम अब फौजी हो अपना ध्यान रखना, जिसपर विक्रम बत्रा का जवाब था ''चिंता मत करो, मैं तिरंगा लहराकर आऊंगा या फिर तिरंगे में लिपटकर आऊंगा, लेकिन आऊंगा जरूर''.
5140 से गूंजा ये दिल मांगे मोर
विक्रम 13 जैक में थे. करगिल में जंग के मैदान में उन्हें 5140 को कैप्चर करने के लिए भेजा गया था. उनके कमांडिंग ऑफिसर ने उनका कोड नेम 'शेरशाह' रखा था. 5140 की चोटी जीतने के लिए रात के अंधेरे में पहाड़ की खड़ी चढ़ाई से दुश्मन की निगाहों से बचते हुए पाकिस्तानियों को धूल चटाई और उस पोस्ट पर कब्जा किया. जीत के बाद वायरलेस से बेस पर संदेश पहुंचाना था तो वायरलेस पर विक्रम बत्रा की आवाज गूंजी 'ये दिल मांगे मोर'.
लेफ्टिनेंट से बने कैप्टन