किशनगंजः नाम बदल गये, लेकिन अत्याचार नहीं रुका. नाम जब पूर्वी पाकिस्तान था तब भी हिंदुओं के खिलाफ अत्याचार होता था. 1971 में भारत की मदद से अस्तित्व में आने के बाद पूर्वी पाकिस्तान भले बांग्लादेशहो गया लेकिन हिंदुओं के खिलाफ अत्याचार बदस्तूर जारी है. 5 अगस्त को शेख हसीना के तख्ता पलट के बाद बांग्लादेश में हिंदू एक बार फिर निशाने पर हैं. बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार से किशनगंज में रह रहे बांग्लादेशी हिंदू परिवारों को अपने दर्दभरे दिन तो याद आ ही रहे हैं अपने रिश्तेदारों की चिंता भी सता रही है.
याद आयी दर्द भरी दास्तांः किशनगंज के नेपालगढ़ कॉलोनी में आज भी वैसे कई बांग्लादेशी हिंदू परिवारों का बसेरा है जिन्हें 1965 में भारत-पाकिस्तान की जंग के वक्त पूर्वी पाकिस्तान में अपने बसे-बसाए संसार को छोड़कर दर-दर भटकना पड़ा था. तब हिंदुओं के खिलाफ भड़की हिंसा के बाद आज के बांग्लादेश यानी पूर्वी पाकिस्तान से कई हिंदू परिवारों ने पलायन कर भारत में शरण ली थी. ऐसे ही 67 हिंदू परिवारों को विभिन्न कैंपों में रखने के बाद भारत सरकार ने किशनगंज के रिफ्यूजी कॉलोनी यानी वर्तमान में नेपालगढ़ कॉलोनी में पुनर्वासित किया था.
जमीन के साथ-साथ रोजगार की व्यवस्था भी की गयी थीः बांग्लादेश से आए 67 हिंदू परिवारों को करीब 18-18 डिस्मिल जमीन देकर बसाया गया और साथ ही रोजगार के लिए ऋण भी मुहैया कराया गया था. आज सभी लोगों को भारत की नागरिकता मिल चुकी है और सभी अमन-चैन से रह रहे हैं लेकिन बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा के दौर ने उनकी पेशानी पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं.
आज भी बांग्लादेश में रहते हैं कई रिश्तेदारः दरअसल नेपालगढ़ कॉलोनी में रहनेवाले बांग्लादेशी हिंदू परिवारों के कई रिश्तेदार आज भी बांग्लादेश में रहते हैं. जाहिर है बांग्लादेश के खराब हालात ने उन परिवारों के लिए भी मुश्किलें बढ़ा दी हैं और नेपालगढ़ कॉलोनी के इन हिंदू परिवारों की चिंता का सबब भी यही है.
कई लोगों से नहीं हो रहा है संपर्कः 82 साल की शोलोबाला भट्टाचार्य का कहना है कि मेरे कई रिश्तेदार बांग्लादेश में रहते हैं.पहले चिट्ठियों आना-जाना होता था, कभी-कभी फोन पर बात होती थी लेकिन काफी समय से संपर्क नहीं हुआ है. अब उनलोगों की चिंता हो रही है. वहीं चितरंजन शर्मा के फुफेरे भाई बांग्लादेश के रतनपुर हबीबगंज सबडिवीजन के सिलेट जिले में रहते हैं. कुछ दिनों पहले बात हुई थी लेकिन अभी संपर्क नहीं हो रहा है.
बांग्लादेश के हालात ने हरे कर दिए जख्मःनेपालगढ़ कॉलोनी के रहने वाले 70 वर्षीय शक्ति दत्त पुराने दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि उनका जन्मस्थान बांग्लादेश के कोमिल्ला जिले में है. वो जब 10 साल के थे तो उनके पिता धीरेष चंद्र दत्त और मां हेमा प्रभा दत्त अपने पूरे परिवार के साथ 1964 में बांग्लादेश से भाग कर भारत में शरणार्थी के तौर पर आ गए थे. भारत में प्रवेश करने के बाद वे त्रिपुरा के फूल कुमारी कैंप में शरणार्थी के तौर पर रह रहे थे. वहां से 1965 में उन्हें सहरसा के शरणार्थी कैंप में भेज दिया गया.
"सहरसा शरणार्थी कैंप में 2 साल तक रहने के बाद उन्हें 1967 में पूर्णिया कैंप में भेज दिया गया. पूर्णिया से 1969 में किशनगंज के नेपालगर कॉलोनी में शरणार्थी के तौर पर आए.परिवार को सरकार ने 18-20 डेसिमल जमीन देकर पुनर्वास कराया और आज सभी भारतीय नागरिकता प्राप्त कर चुके हैं."-शक्ति दत्ता, निवासी, नेपालगढ़ कॉलोनी
'पिताजी सुनाते थे अत्याचार की कहानी':शक्ति दत्ता ने बताया उनके पिताजी कहानी सुनाते थे कि उस समय पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश में हिंदुओं पर खूब अत्याचार होता था. तब ढाका में किसी बात को लेकर पूरे पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं को टारगेट किया जा रहा था. जिसके बाद कई हिंदू परिवार देश छोड़ने के लिए मजबूर हो गये.