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तिब्बत के साथ व्यापार की फिर जगी आस, कभी उत्तराखंड बॉर्डर के समृद्ध गांव कहलाते थे मिनी यूरोप - INDIA TIBET TRADE

उत्तराखंड के भारत-तिब्बत बॉर्डर पर सैकड़ों साल पुराने व्यापार की जगी आस, पूर्व आईएएस से जानें क्या है समृद्ध व्यापार की कहानी

INDIA TIBET TRADE
भारत-तिब्बत व्यापार की फिर जगी आस (Photo- ETV Bharat)

By ETV Bharat Uttarakhand Team

Published : Feb 25, 2025, 12:40 PM IST

Updated : Feb 25, 2025, 4:50 PM IST

देहरादून (धीरज सजवाण): भारत और तिब्बत के बीच सैकड़ों सालों से व्यापार होता आया है. भारत के व्यापारी खासकर उत्तराखंड के पिथौरागढ़, चमोली और उत्तरकाशी जिलों के व्यापारी गुड़, मिस्री, नमक, राशन, बर्तन, ऊनी कपड़े और जूतों का व्यापार तिब्बतियों के साथ करते थे. इस व्यापार के लिए हिमालय के जान जोखिम में डालने वाले दुर्गम दर्रों का इस्तेमाल होता था.

फिर शुरू होगा भारत-तिब्बत व्यापार! चीन ने जब तिब्बत पर कब्जा कर लिया तो उससे कुछ साल पहले से ही कम हुआ भारत-तिब्बत का स्वर्णिम व्यापार भी बंद हो गया था. अब उत्तराखंड से कैलाश मानसरोवर यात्रा को हरी झंडी मिलने के बाद उत्तराखंड तिब्बत के बीच होने वाले सीमांत व्यापार की सैकड़ों साल पुरानी यादें फिर ताजा होने लगी हैं. क्या है इस सम्मिलित व्यापार की कहानी आइए आपको बताते हैं.

सैकड़ों वर्ष पुराना है भारत-तिब्बत व्यापार (ETV Bharat Graphics)

भारत-तिब्बत व्यापार की समृद्ध यादें: तिब्बत पर चीन के कब्जे से पहले उत्तराखंड के कुछ गांव इतने समृद्ध हुआ करते थे कि उन्हें छोटा विलायत यानी मिनी यूरोप तक की संज्ञा दी जाती थी. इन गांवों की समृद्धि इतनी थी कि ये केवल उत्तराखंड ही नहीं, बल्कि पूरे भारत के सबसे अमीर गांवों में आते थे. इन गांवों की समृद्धि का कारण इनका तिब्बत के साथ होने वाला व्यापार था. सीमा पार से होने वाले व्यापार पर इन गांवों का एकाधिकार था.

भारत-चीन युद्ध के बाद बंद हुआ था तिब्बत से व्यापार: जानकार बताते हैं कि इस व्यापार का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उत्तराखंड के सीमावर्ती गांव गर्ब्यांग के एक व्यापारी ने तो कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) जाकर अपना एक पानी का जहाज खरीद लिया था. लेकिन 50 के दशक में तिब्बत पर चीन के बढ़ते कब्जे के बाद इस व्यापार में धीरे-धीरे कमी आने लगी, और 1962 में हुए भारत चीन युद्ध के बाद यहां व्यापार पूरी तरह से थम गया.

पिथौरागढ़ जिला भारत-तिब्बत व्यापार का प्रमुख रास्ता था (ETV Bharat Graphics)

हालांकि, इसके बाद 90 के दशक में एक बार फिर से इस व्यापार को बढ़ावा दिया गया, लेकिन लगातार कभी आपदा कभी कुछ अन्य कारणों की वजह से यह व्यापार उतनी रफ्तार नहीं पकड़ पाया, और ना ही उतनी समृद्धि आई जिसके लिए यह जाना जाता था.

उत्तराखंड-तिब्बत व्यापार की क्या है यह समृद्धि की कहानी और किन वस्तुओं का व्यापार किया जाता था और कहां उनकी बड़ी मंडी लगती थी. किस दौर में यह अपने चरम पर था उत्तराखंड के पूर्व आईएएस अधिकारी एसएस पांगती से यह हमने जानने की कोशिश की.

बार्टर सिस्टम से जुड़ा था उत्तराखंड तिब्बत का समृद्ध व्यापार: उत्तराखंड के पूर्व आईएएस अधिकारी एसएस पांगती के पास तिब्बत के साथ व्यापार की सुनहरी यादें जुड़ी हैं. वो बताते हैं कि तिब्बत से सटे हुए भारत के सभी राज्यों से तिब्बत से व्यापार किया जाता था. भारत के इन राज्यों में सिक्किम, हिमाचल, लद्दाख सहित उत्तराखंड से व्यापारी तिब्बत व्यापार के लिए जाते थे.

तिब्बत में अन्न पैदा नहीं होता है. उसके लिए हमेशा से तिब्बत को चीन पर निर्भर रहना पड़ा है. लेकिन चीन से बहुत ज्यादा दूरी होने की वजह से उत्तराखंड से तिब्बत को व्यापार ज्यादा आसान था. यही वजह थी कि 18वीं शताब्दी के बाद उत्तराखंड और तिब्बत का व्यापार खूब फला फूला. उत्तराखंड और तिब्बत के बीच सीमाओं पर होने वाले इस व्यापार की सबसे बड़ी मंडी तकलाकोट थी. इस व्यापार में उत्तराखंड के व्यापारी ज्यादा फायदे में रहते थे, क्योंकि उनके पास प्रोडक्ट ज्यादा होते थे और ये पढ़े-लिखे भी ज्यादा होते थे.
-एसएस पांगती, पूर्व आईएएस-

तिब्बत के साथ इन प्रोडक्ट का होता था आदान-प्रदान: उत्तराखंड के पूर्व आईएएस अधिकारी सुरेंद्र सिंह पांगती उत्तराखंड के सीमांत जिले पिथौरागढ़ के मुनस्यारी से आते हैं. ये क्षेत्र भारत-तिब्बत सीमा से लगता है.

धारचूला विधायक धामी भारत-तिब्बत व्यापार शुरू करवाना चाहते हैं (ETV Bharat Graphics)

हमारे गांव से भी तिब्बत में लगातार उस समय व्यापार हुआ करता था. तिब्बत से बड़ी मात्रा में नमक उत्तराखंड की मंडियों में पहुंचता था. यहां से अनाज उसी मात्रा में तिब्बत जाता था. यह सारा व्यापार बार्टर सिस्टम यानी सामान के बदले सामान पर चलता था. एक बर्तन हुआ करता था, जिसका पैमाना नाली होता था. उससे जितना नाली अनाज उधर जाएगा, उतना नाली नमक इधर लिया जाता था.
-एसएस पांगती, पूर्व आईएएस-

सुरेंद्र सिंह पांगती बताते हैं कि इसके अलावा सुहागा (बोरेक्स) जिसे सोने चांदी के आभूषणों को आकार देने में इस्तेमाल किया जाता है, वह भी तिब्बत को बेचा जाता था.

18वीं शताब्दी के अंत में एक ब्रिटिश ऑर्डर में यह कहा गया था कि कुमाऊं की जोहार मंडी में इसका रेट 3 लाख होगा जो कि आज के अनुमान के अनुसार 30 करोड़ के आसपास होगा. इसके अलावा भारत से जो मुख्य प्रोडक्ट तिब्बत जाते थे, उनमें अनाज और सूती कपड़ा मुख्य थे. दरअसल सूती कपड़ा भी तिब्बत में नहीं होता है.
-एसएस पांगती, पूर्व आईएएस-

बागेश्वर थी उत्तर भारत में ऊन की सबसे बड़ी मंडी: पांगती बताते हैं कि जब उत्तराखंड तिब्बत बॉर्डर पर व्यापार होता था, तो ब्रिटिश काल में बागेश्वर को उत्तर भारत की सबसे बड़ी वूलन मंडी कहा जाता था. यहां पर तिब्बत के लोग अपने यहां बनाया ऊन बेचने आते थे. तिब्बत की ऊन बहुत ज्यादा नरम होती थी. इसकी वजह थी कि वहां की जो भेड़ होती थीं, उनके बाल बेहद नरम और लंबे हुआ करते थे. उस गुणवत्ता की भेड़ उत्तराखंड या फिर भारत के किसी अन्य इलाके में नहीं पाई जाती थी. इसके अलावा पश्मीना भी तिब्बत का एक मुख्य प्रोडक्ट था. एक ब्रिटिश नागरिक ने उत्तराखंड में तिब्बत से आने वाले पश्मीना को लेकर अपनी किताब में भी जिक्र किया है.

पूर्व आईएएस अफसर एसएस पांगती की इस व्यापार से यादें जुड़ी हैं (ETV Bharat Graphics)

ईस्ट इंडिया कंपनी ने यह पश्मीना फैब्रिक से बना कपड़ा खरीदा और इसे इंग्लैंड भेजा. इंग्लैंड में पश्मीना प्रोडक्ट रातों-रात लोगों ने खरीद लिया. इसके बाद अंग्रेजों ने देखा कि आखिर इस प्रोडक्ट में ऐसा क्या है. पता चला कि इसकी सॉफ्टनेस और गर्माहट के सभी मुरीद हो गए. जिसके बाद इसकी डिमांड ग्लोबली बहुत ज्यादा बढ़ गई.
-एसएस पांगती, पूर्व आईएएस-

तिब्बत का चामुर्थी घोड़ा दुनिया के सर्वश्रेष्ठ घोड़ों में एक: पूर्व आईएएस अधिकारी पांगती बताते हैं कि तिब्बत से आने वाले दुनिया के सबसे यूनिक प्रोडक्ट में एक उनका चामुर्थी घोड़ा भी प्रसिद्ध था.

चामुर्थी घोड़ा बेहद समझदार, चालाक और विषम भौगोलिक परिस्थितियों में भी शानदार परफॉर्मेंस देने वाला होता था. उस समय जब दुनिया में ट्रांसपोर्ट सिस्टम घोड़ा, बैलगाड़ी और पैदल तक सीमित थे, तो उस समय यह चामुर्थी घोड़ा एक लग्जरी व्यापार में आता था. तिब्बत का यह घोड़ा हाई एल्टीट्यूड पर सरवाइव करने के साथ-साथ ज्यादा से ज्यादा सामान उठाने में सक्षम रहता था.

ऐसा बताया जाता है कि तिब्बत का यह घोड़ा जब चलता था तो ये अपने ऊपर सवार व्यक्ति को हिलने डुलने का बिल्कुल भी एहसास नहीं होने देता था. यानी कि इसकी चाल बेहद सधी हुई थी. ऐसा कहा जाता है कि महाराणा प्रताप का चेतक घोड़ा भी चामुर्थी नस्ल का घोड़ा था.
-एसएस पांगती, पूर्व आईएएस-

1962 के भारत चीन युद्ध के बाद खत्म हुआ समृद्ध व्यापार: 1962 में जब भारत चीन वॉर हुई, उसके बाद तिब्बत के साथ उत्तराखंड का यह व्यापार पूरी तरह से ठप हो गया. सुरेंद्र सिंह पांगती बताते हैं कि उस समय दोनों देशों के बीच व्यापार इतना बढ़ चुका था कि उत्तराखंड के कई लोगों का सामान तिब्बत में रखा हुआ था. वहीं तिब्बत के लोगों की भी यहां पर काफी सारी प्रॉपर्टी मौजूद थी.

पूर्व आईएएस एसएस पांगती ने भारत-तिब्बत व्यापार होते देखा था (ETV Bharat Graphics)

मेरे गांव के एक रतन सिंह पांगती थे. उनका भी उस समय काफी सामान तिब्बत में छूटा था. उसमें उन्होंने सरकार से मुआवजे के रूप में ₹8000 लिए थे.
-एसएस पांगती, पूर्व आईएएस-

वरिष्ठ पत्रकार मनोज रावत की यादों में भारत-तिब्बत व्यापार: इसी तरह से केदारनाथ विधानसभा सीट से पूर्व विधायक रहे और वरिष्ठ पत्रकार मनोज रावत बताते हैं कि उत्तराखंड के लोगों की करोड़ों की संपत्तियां आज भी तिब्बत में मौजूद हैं. तिब्बत से व्यापार करने वाले बड़े व्यापारियों में उत्तराखंड के बाल सिंह पाल फैमिली और सायना परिवार शामिल थे. कई ऐसे बड़े व्यापारी थे जिनकी वहां पर बड़ी-बड़ी प्रॉपर्टियां मौजूद थीं. इनमें व्यापारिक नातेदारी होती थी और व्यापार का पहला अधिकार इस नातेदार या मित्र का होता था.

तिब्बत के पश्मीना शॉल की इंग्लैंड तक थी डिमांड (ETV Bharat Graphics)

रं जनजाति समाज की थी अपनी व्यापारिक भाषा: केदारनाथ के पूर्व विधायक मनोज रावत बताते हैं कि तिब्बत में उत्तराखंड की तरफ से व्यापार करने वाले लोग ज्यादातर उच्च हिमालय क्षेत्र में रहने वाले रं समाज के होते थे. उनकी अपनी एक रं भाषा होती थी जो कि व्यापारिक भाषा होती थी.

व्यापारिक भाषा रं ना तो तिब्बत का आम व्यक्ति समझ पाता था, ना ही उत्तराखंड का आम व्यक्ति समझ पाता था. इस तरह से यह व्यापारिक भाषा केवल व्यापारियों के बीच में होती थी. व्यापारी लेनदेन इसी भाषा में करते थे. तिब्बत और उत्तराखंड के बीच होने वाले इस व्यापार के कई केंद्र बिंदु थे. गढ़वाल क्षेत्र में माणा और मलारी पास से होते हुए व्यापार होता था. गौचर में कई दिनों के लिए एक बड़ा मेला लगता था, जहां पर खरीददारी की जाती थी. इसी तरह से कुमाऊं क्षेत्र में जौलजीवी में व्यापारिक मेला लगता था.
-मनोज रावत, वरिष्ठ पत्रकार-

मनोज रावत बताते हैं कि तिब्बत के लिए चीन की टेक्सटाइल इंडस्ट्री की तुलना में भारत की टेक्सटाइल मंडियां जो कि उत्तर भारत के मेरठ, सहारनपुर और दिल्ली में मौजूद हैं, ज्यादा नजदीक पड़ती हैं. उनकी मांग है कि कैलाश मानसरोवर यात्रा केवल धारचूला से शुरू हो रही है जबकि रास्ता चमोली जिले के माणा गांव से भी खुलना चाहिए. यह व्यापार एक बार फिर से बहाल होना चाहिए. आज भी इस ट्रेड में इतनी संभावना है कि यह उत्तराखंड की इकोनॉमी को बदल सकता है.

पूर्व विधायक और वरिष्ठ पत्रकार मनोज रावत ने भारत-तिब्बत व्यापार की यादें ताजा की (ETV Bharat Graphics)

धारचूला के विधायक जाना चाहते हैं तिब्बत: उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के धारचूला से विधायक हरीश धामी स्वयं तिब्बत जाना चाहते हैं. वो कहते हैं, कैलाश मानसरोवर यात्रा से सीमांत क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को रोजगार मिलेगा. इस ट्रेड रूट को खोलने के लिए व्यापारियों द्वारा लंबे समय से मांग की जा रही थी.

तमाम मुश्किलों और विषम परिस्थितियों के बावजूद भी उत्तराखंड तिब्बत ट्रेड चला आ रहा था. लेकिन कोविड में यह पूरी तरह से बंद हो गया. तब से व्यापार में कई लोगों को नुकसान भी हुआ है. उन्होंने कहा कि जिस तरह से मानसरोवर यात्रा की फिर से शुरुआत होती है, निश्चित तौर से यह सीमा क्षेत्र पर रहने वाले व्यापारियों के लिए भी एक बड़ी उम्मीद की किरण है.
-हरीश धामी, विधायक, धारचूला-

भारत तिब्बत व्यापार मंडल के प्रतिनिधिमंडल की मुख्यमंत्री से मुलाकात:अब मानसरोवर यात्रा के बहाने यह रूट खुलता है तो निश्चित तौर से उत्तराखंड समेत उत्तर भारत की इकोनॉमी बढ़ेगी. वहीं, इन व्यापारियों के नुकसान की भरपाई होने की भी उम्मीद है. हरीश धामी ने बताया कि भारत तिब्बत व्यापार मंडल का एक प्रतिनिधिमंडल मुख्यमंत्री से मिल रहा है. प्रतिनिधिमंडल मुख्यमंत्री से अनुरोध करेगा कि वो उनके साथ तिब्बत जाएं.

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Last Updated : Feb 25, 2025, 4:50 PM IST

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