छिंदवाड़ा: नवरात्र के पावन पर्व पर गांव के एक छोर पर मां अम्बे की प्रतिमा के पंडाल में भजन कीर्तन चल रहा है. गांव वाले मां शक्ति की भक्ति में लीन हैं और पंडाल के पास ही जोरों से भक्तिमय संगीत बज रहा है. लेकिन इस पंडाल से महज 100 मीटर की दूरी पर एक और पंडाल सजा है, जहां देवी की नहीं, बल्कि रावण की पूजा हो रही है. यहां बड़ी संख्या में आदिवासी समाज के लोग जुटे हैं. मामला छिंदवाड़ा के जमुनिया गांव का है.
10 दिनों तक रावण की आराधना
आदिवासी समाज के कुछ लोगों ने इस बार नवरात्रि के दौरान रावण की प्रतिमा भी स्थापित की है. ऐसी प्रतिमा किसी एक गांव में नहीं, बल्कि जिले के कुछ और गांवों में भी देखी जा रही है. सुबह-शाम जिस तरह मां दुर्गा की आरती पूजा पंडालों में हो रही है, ठीक वैसे ही रावण की भी पूजा की जा रही है. फर्क सिर्फ इतना है कि यहां आरती की बजाय सुमरणी (याद करना) की जाती है. आदिवासी समाज के लोगों द्वारा बैठाई गई रावेन पेन की प्रतिमा को भगवान शिव की पूजा करते दिखाया गया है.
दुर्गा पूजा की तरह की गई है कलश स्थापना
जिस प्रकार मां दुर्गा की स्थापना के साथ कलश स्थापित किए जाते हैं, वैसे ही इस बार आदिवासी समुदाय के लोगों ने पंडाल में पांच कलश स्थापित किए हैं. इन्हें प्रतिमा के ठीक सामने रखा गया है. 9 दिन पूजा-अर्चना कर मां दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है. आदिवासी समाज के लोगों ने भी 9 दिन प्रतिमा बैठाने के बाद दशहरा पर विसर्जन का फैसला किया है.
रावण की मां आदिवासियों की वंशज, इसलिए होती है पूजा
पंडा सुमित कुमार सल्लाम ने बताया कि, ''हमने जिस प्रतिमा की स्थापना की है, वे रामायण के रावण नहीं, बल्कि हमारे पूर्वजों द्वारा पूजे जाने वाले रावेन पेन हैं. पिछले कई सालों से हमारे पूर्वज इनकी पूजा करते आ रहे हैं, हमें किसी धर्म से बैर नहीं है. दुर्गा पंडाल में पूजा होती है, उसके बाद ही हम रावण पंडाल में सुमरणी करते हैं. भगवान शिव हमारे आदिवासी समाज के आराध्य हैं. जिले के आदिवासी अंचल में रावण को आराध्य माना जाता है.''