देहरादून: देवभूमि की संस्कृति का प्रकृति के साथ आदि काल से ही गहरा रिश्ता रहा है. ऐसा ही एक रिश्ता उत्तराखंड की संस्कृति का बांज के पेड़ से भी है. बांज का पेड़ (Oak) न केवल प्राकृतिक जल स्रोतों की एक महत्वपूर्ण कड़ी है, बल्कि इसे पहाड़ के कई संस्कारों में पूजनीय भी माना जाता है. अब तक आपने बांज के पेड़ का उपयोग चारा पत्ती के अलावा सीमित रूप में ही देखा होगा. लेकिन बांज के पेड़ का एक ऐसा भी उपयोग हो सकता है, जिससे उत्तराखंड देश में नहीं, बल्कि विश्व भर में अपना एक अलग आयाम स्थापित कर सकता है.
बांज के वैश्विक उपयोग को अंग्रेजों ने पहचाना था: उत्तराखंड स्पेस एप्लीकेशन सेंटर के निदेशक प्रोफेसर एमपीएस बिष्ट बताते हैं कि देश में पहली दफा वर्ष 1858 में अंग्रेजों ने देहरादून सहित समूचे उत्तराखंड के क्षेत्र को सिल्क उत्पादन के दृष्टिकोण से बेहद मुफीद पाया था. बिष्ट कहते हैं कि अंग्रेजों के एक शोधकर्ता दल जिसके प्रमुख डॉक्टर हटन थे, उन्होंने पाया कि देहरादून की जलवायु और भौगोलिक अनुकूलता शहतूती रेशम (mulberry silk) के लिए बिल्कुल अनुकूल है और यहां पर विश्वस्तर की गुणवत्ता वाले सिल्क का उत्पादन किया जा सकता है.
देहरादून में सिल्क उत्पादन केंद्र: जिसके बाद देहरादून में सिल्क उत्पादन केंद्र (Silk Production Center in Dehradun) (रेशम फार्म) स्थापित किया गया. जो विशेष गुणवत्ता वाला सिल्क उत्पादन केंद्र था. आज भी देहरादून में यह जगह रेशम माजरी के नाम से जानी जाती है. इसी के बाद देश में रेशम उत्पादन को लेकर माहौल शुरू हुआ. जिसके बाद ही सिल्क के प्रकारों की खोज की गई. इस दौरान शोध में टसर सिल्क की भी खोज हुई.
बांज वृक्ष से टसर सिल्क उत्पादन: अच्छी बात यह थी कि टसर सिल्क ऐसा सिल्क था, जो खासतौर से उत्तराखंड के मूल वृक्ष बांज से प्राप्त होता है. इसकी उत्तराखंड में भरपूर मात्रा है. हालांकि, इतिहासकार कहते हैं कि यह अफसोस की बात है कि उत्तराखंड में बहुतायत मात्रा में पाए जाने वाले बांज के जंगलों में मौजूद जिस टसर सिल्क को अंग्रेजो ने पहचान लिया था, कालांतर के बाद उसके बारे में आज तक बेहद कम ही चर्चा की गई. आज तक बांज केवल पशुओं के चारा पत्ती तक ही सीमित रह गया.
उत्तराखंड में बांज का पेड़ देवतुल्य: भले ही प्रदेश के नीति नियंताओं ने उत्तराखंड में बहुतायत मात्रा में पाए जाने वाले बांज के पेड़ के तकनीकी पहलुओं पर गौर नहीं किया, लेकिन बांज के महत्व को उत्तराखंड में पूर्वजों ने पहले ही पहचान लिया था. यही वजह है कि बांज का पेड़ आज भी पहाड़ों पर पूजनीय है, जिसके पीछे एक नहीं, कई वजह हैं. बांज के पेड़ के पूजनीय होने के पीछे सबसे बड़ी वजह यह है कि यह एक ऐसा अद्भुत पेड़ है, जो प्राकृतिक जल स्रोत पैदा करता है. इस तथ्य को आप प्रमाण के साथ भी उत्तराखंड के पहाड़ों में देख सकते हैं. जहां पर बांज के पेड़, फल और फूल रहे होंगे, उसके आसपास आपको जरूर प्राकृतिक जल स्रोत मिल जायेगा.
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जल स्रोतों की महत्वपूर्ण कड़ी बांज: यह तथ्य ऐतिहासिक है कि जहां पर जल स्रोत होते हैं, उसी के आसपास मानवीय सभ्यता भी पनपती है. यही वजह है कि आज भी पहाड़ों पर जब कोई नवजात जन्म लेता है या फिर विवाह संस्कार होता है तो घर या गांव के पास मौजूद प्राकृतिक जल स्रोत को पूजा जाता है. साथ ही जल स्रोत पर मौजूद पेड़ को भी पूजा जाता है. प्रोफेसर एमपीएस बिष्ट बताते हैं कि बांज के इसी गुण की वजह से इस पेड़ को देव तुल्य माना जाता है.
बांज कार्बन का शोषण करता है: यही नहीं बांज के पेड़ के प्राकृतिक प्रभाव के बारे में भी प्रोफेसर बिष्ट बताते हैं कि बांज का पेड़ चौड़ी पत्ती वाला पेड़ है. यह अधिक मात्रा में कार्बन का शोषण करता है और उतनी ही अधिक मात्रा में ऑक्सीजन का उत्सर्जन करता है. साथ ही बांज का पेड़ भू क्षरण यानी धरती के कटाव और भूस्खलन को भी रोकता है.
वर्ल्ड क्लास टसर सिल्क का उत्पादन: उत्तराखंड में मौजूद बांज से प्राप्त होने वाले टसर सिल्क की गुणवत्ता का अंग्रेज शोधकर्ता 18वीं सदी में ही कर चुके थे. भले ही इसके बाद इस विषय पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई, लेकिन आज भी जानकार बताते हैं कि उत्तराखंड में 1800 मीटर से लेकर 2000 मीटर तक की ऊंचाई पर पाए जाने वाले बांज के पेड़ से दुनिया का सबसे बेहतर टसर सिल्क मिलता है.
बांज की चार प्रजाति: उत्तराखंड स्पेस एप्लीकेशन सेंटर (Uttarakhand Space Application Center) के निदेशक प्रोफेसर एमपीएस बिष्ट बताते हैं कि उत्तराखंड में वैसे तो चार प्रकार का बांज पाया जाता है, जिसमें मोरू, खरसू, पालिंदा, मणिपुरी बांज जैसी कुछ प्रजातियां है. इनमें से जो ओरिजनल बांज है, जिसे अंग्रेजी में ओक (Oak) कहा जाता है, यह उत्तराखंड की अपनी एक विशेष प्रजाति है. इसी पेड़ पर दुनिया का सबसे बेहतर टसर सिल्क (world best tussar silk) पाया जाता है.
उत्तराखंड में टसर सिल्क की संभावना: उत्तराखंड में बांज के पेड़ से मिलने वाले टसर सिल्क को लेकर पिछले कुछ सालों से कवायद शुरू हुई है. जिसको लेकर उत्तराखंड रेशम विभाग (Uttarakhand Silk Department), उत्तराखंड स्पेस एप्लीकेशन सेंटर और नॉर्थ ईस्ट स्पेस एप्लिकेशन सेंटर शिलांग (North Eastern Space Application Centre) की मदद से उत्तराखंड में टसर सिल्क की संभावनाओं को तलाशने के लिए बांज के जंगलों की सेटेलाइट मैपिंग करवा रहा है. अब तक उत्तराखंड स्पेस एप्लीकेशन सेंटर और नॉर्थ ईस्ट स्पेस एप्लिकेशन सेंटर शिलॉन्गने मिलकर पहले चरण में 5 जिलों में सर्वे करते हुए सेटेलाइट मैपिंग (Satellite mapping of oak forests) की. वहीं, अब दूसरे चरण की प्रक्रिया जारी है. इसमें प्रदेश के तीन और महत्वपूर्ण जिले पौड़ी गढ़वाल, बागेश्वर और चमोली जिलों के सर्वे का काम चल रहा है.
उत्तराखंड में बांज पर सर्वे जारी: उत्तराखंड स्पेस एप्लीकेशन सेंटर से मिली जानकारी अनुसार पहले चरण में 5 जिले उत्तरकाशी, देहरादून, नैनीताल, उधम सिंह नगर और पिथौरागढ़ का सर्वे किया गया है. वहीं दूसरे चरण में अब 3 जिले पौड़ी गढ़वाल, चमोली और बागेश्वर के सर्वे का काम जारी है. तीसरे चरण में बचे हुए आखिरी 5 जिले रुद्रप्रयाग, टिहरी गढ़वाल, अल्मोड़ा, चंपावत और हरिद्वार का सर्वे किया जाएगा. इस तरह से पूरे प्रदेश में बांज के पेड़ों की उपलब्धता पर विस्तृत रिपोर्ट तैयार की जाएगी. इस रिपोर्ट में टसर सिल्क का उत्पादन करने वाले अलग-अलग वर्ग के बांज के पेड़ों का सेटेलाइट मैपिंग के जरिए डाटा कलेक्ट किया जा रहा है.
तीन जिलों में बांज की उपलब्धता: वर्तमान में बागेश्वर, पौड़ी गढ़वाल और चमोली जिले में दूसरे चरण का सर्वे जारी है. सर्वे में अब तक बागेश्वर में 10,317.68 हेक्टेयर, चमोली जिले में 15,896.94 हेक्टेयर और पौड़ी गढ़वाल में 1,408.93 हेक्टेयर भूमि पर बांज के जंगल उपलब्ध हैं. इस तरह से इन तीनों जिलों में कुल 27,623.55 हेक्टेयर भूमि पर बांज की उपलब्धता है. रेशम विभाग U-SAC और NESAC शिलांग के साथ मिल कर स्टडी कर रहा है.