देहरादून: पश्चिमी संस्कृति की व्यापकता पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के युवाओं को भी खूब लुभा रही है. ऐसे वक्त पर स्थानीय संस्कृति के लिए लोक कलाकारों की भूमिका काफी अहम हो जाती है. आज तमाम क्षेत्रीय फिल्में और गीत-गाने बुलेट ट्रेन सी सोच रखने वाले युवाओं को भी अपनी बोली, परंपराओं और संस्कृति से जोड़ रहे हैं. बावजूद इसके लोक कलाकारों का आर्थिक विकास कहीं पीछे छूटता दिखाई दे रहा है. हालात ये हैं कि लॉकडाउन की स्थिति में इन लोक कलाकारों को दो जून की रोटी के लिए भी काफी मशक्कत करनी पड़ रही है.
रंगबिरंगे परिधानों में लोकसंस्कृति की छटा बिखेरते कलाकार उत्तराखंडी फिल्मों, गीतों और तमाम मंचों पर दिखाई देते हैं. स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस के कार्यक्रमों से लेकर राजनीतिक मंचों पर लोगों का मनोरंजन कर भीड़ जुटाने तक में ये खूब काम आते हैं. मगर उत्तराखंडी संस्कृति, परंपराओं और इतिहास समेत हर लिहाज से राज्य का दर्शन कराने वाले लोक कलाकारों को हमेशा दोयम दर्जे का ही महत्व मिला है.
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इसी का नतीजा है कि लोक कलाकार हमेशा से ही आर्थिक रूप से बेहद पीछे खड़ा दिखाई दिया है. सरकारों के लिहाज से महत्व न मिलना भी एक बड़ी वजह रहा है. लॉकडाउन के दिनों में हर सेक्टर की तरह इस क्षेत्र में भी काम ठप ही रहा. जिसके चलते कलाकारों का जीवन कई कठिनाइयों से घिर गया. लोक कलाकार जितेंद्र बलूनी बताते हैं कि आज कलाकारों के सामने रोजी का संकट पैदा हो गया है. अपने स्वाभिमान के चलते कलाकार किसी के सामने हाथ भी नहीं फैला सकता. सरकार की तरफ से उसके लिए कोई मदद भी नहीं है. आज कई काबिल कलाकार परिवार चलाने के लिए सब्जी बेच रहे हैं, कुछ एक खाने पीने के दूसरे काम की तरफ भी शिफ्ट हो गए हैं.
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लोक कलाकारों, गीतकारों की राज्य निर्माण में भी अहम भूमिका रही है. लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी, प्रीतम भरतवाण और जागर गायिका बसंती बिष्ट जैसे बड़े नाम भी हैं, जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर उत्तराखंड का मान बढ़ाया. कई गीतों ने पलायन, बेरोजगारी जैसी समस्याओं पर चोट की, तो क्षेत्रीय गीतों ने राजनीति पर भी कटाक्ष कर सत्तासीनों की कुर्सियां हिला दी. लोक गायिका और कलाकार सुषमा व्यास अपने दर्द को बयां कर कहती हैं कि 90 के दशक से थियेटर, एलबम में कई गीत गाये और इन्हें खूब दिल से इन्जॉय किया लेकिन जब उन कलाकारों की दशा देखी तो मन बहुत व्यथित हुआ. आज कलाकार अपने परिवार तक को नहीं चला पा रहे है. सरकारों की बेरुखी को वे इसकी बड़ी वजह मानती हैं.
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लॉकडाउन में लोक कलाकारों की बदहाल स्थिति पर अब तक किसी की नजर नहीं गई है. राज्य सरकार की तरफ से भी अब तक इसके लिए कोई आगामी रणनीति नहीं बनाई गई है. उत्तराखंड में ही फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े गौरव गैरोला कहते हैं कि वह दूसरे प्रदेशों से आने वाले तमाम डायरेक्टर और फिल्म प्रोड्यूसर के साथ कॉर्डिनेट कर उत्तराखंड में फिल्मों के निर्माण की सभी व्यवस्थाएं करते हैं. मगर उत्तराखंड सरकार ने अब तक इसके लिए कोई गाइडलाइन ही तय नहीं की है. ऐसे में दूसरे राज्यों से जो निर्देशक उनसे संपर्क कर रहे हैं वह उनको भी कोई जवाब नहीं दे पा रहे हैं. जबकि दूसरे राज्यों ने इसके लिए रियायत देते हुए गाइडलाइन तय कर दी है. जिससे वहां के कलाकारों के साथ ही संस्कृति भी फल फूल रही है.