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2022 चुनावी दंगल से पहले गिले शिकवे हुए दूर, साथ चलने को 'दिग्गज' मजबूर

राज्य में आगामी चुनाव को लेकर सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है. ऐसे में पार्टियों के दिग्गज अपने पुराने गिले शिकवे भुलाकर एक-दूसरे को गले लगाने से भी नहीं चुक रहे हैं. ऐसे में क्या पार्टी के भीतर की खेमेबाजी भुलकर एक दूसरे के गले मिलना इन नेताओं की चाहत है या फिर से एक बार चुनावी मौसम में यह मौका परस्ती वाली दोस्ती है. देखिए स्पेशल रिपोर्ट...

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साथ चलने को विरोधी मजबूर
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Published : Jul 12, 2020, 11:52 AM IST

Updated : Jul 12, 2020, 1:37 PM IST

देहरादून: उत्तराखंड में 2022 में होने वाले चुनाव को लेकर प्रदेश में राजनीति का अनोखा सीजन शुरू हो गया है. यह मौसम राजनेताओं की दोस्ती का है. यही वह समय है, जब बड़े से बड़ा विरोधी भी राजनीतिक प्रतिद्वंदी को गले लगाने से गुरेज नहीं करता. दो घोर विरोधी भी दोस्ती की नई इबारत गढ़ने की कसमें खाते दिख जाते हैं. जानिए राजनीति में सियासी मौका परस्ती की ऐसी ही कहानी को जो उत्तराखंड का इतिहास रही है.

2022 में होंगे विधानसभा चुनाव

हाल फिलहाल में राजनीतिक विरोधी को दोस्त बनाने का सिलसिला जारी है. इसका जवाब आने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में छिपा हैं. दरअसल, उत्तराखंड में साल 2022 विधानसभा चुनाव होना तय है. 2022 साल के शुरुआती महीनों में ही पांचवी विधानसभा के लिए चुनाव होने हैं. ऐसे भी यही वह समय होता है जब राजनीति में दुश्मन भी दोस्त बन जाते हैं और दोस्त एकाएक विरोधी गुट में शामिल हो जाता है.

साथ चलने को विरोधी मजबूर

विरोधी भी दे रहे एकता की दुहाई

फिलहाल, उत्तराखंड में भी कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिल रहा है. चुनावी वर्ष करीब आते ही पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत और प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह समेत नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश मंच साझा करते दिखने लगे हैं. इस दौरान एक मंच पर पार्टी और नेताओं की एकता की भी दुहाई दी जा रही है. जबकि, यही नेता कुछ दिन पहले चिट्ठी-चिट्ठी का खेल खेलकर पार्टी में असंतोष के हालातों को बयां कर रहे थे.

कांग्रेस पार्टी भारी खेमेबाजी

उत्तराखंड में कांग्रेस कई खेमों में बंटी हुई है, पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत खुद में कई समर्थकों के साथ सभी खेमों पर भारी पड़ते रहे हैं. दूसरा खेमा इंदिरा हृदयेश का है. जो कुमाऊं में पूरी ताकत के साथ समय-समय पर हरीश रावत को चुनौती देती हुई नजर आती रहती है. तीसरा खेमा प्रीतम सिंह का है, जो उत्तराखंड कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष है. हालांकि, हरीश रावत की मजबूती के चलते इंदिरा और प्रीतम एक मंच पर दिखाई देते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि अपने समर्थकों के साथ प्रीतम एक अलग ही राह पर दिखाई देते हैं. वहीं, कांग्रेस पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय भी एकला चलो की स्थिति में दिखाई देते हैं.

ये भी पढ़े: ETV BHARAT की खबर का असर, सैटेलाइट फोन कॉल का खर्च वहन करेगी सरकार

बीजेपी में भी गुटबाजी कम नहीं

भारतीय जनता पार्टी में भी गुटबाजी कांग्रेस से कम नहीं है. वह बात अलग है कि बीजेपी के नेता सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे खिलाफ बयान देते हुए कम ही नजर आते हैं. आगामी चुनाव को लेकर सीएम त्रिवेंद्र को निशाने पर लेने वाले तमाम मंत्री और विधायक इन दिनों सीएम से जुड़कर अपने क्षेत्रों में काम करवाने की कोशिश कर रहे है. सबसे ताजा उदाहरण हरक सिंह रावत और सीएम त्रिवेंद्र के बीच होती करीबी है, जो एक समय काफी तल्खी के रूप में दिखाई देती थी. इसी तरह कई विधायक भी समय-समय पर सरकार के कामों पर सवाल उठाकर मुखिया को घेरने की कोशिश करते दिखाई देते रहे हैं.

बीजेपी में भी खेमेबाजी है भारी

प्रदेश का मुखिया होने के नाते सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत की भाजपा में अपनी ही एक लॉबी और समर्थक हैं. बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष बंशीधर भगत भी मुख्यमंत्री के समर्थन में ही बताए जाते हैं. वहीं, पार्टी में डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक के खेमें में भी बड़ी संख्या में विधायक और पार्टी पदाधिकारी मौजूद है. इसके अलावा कांग्रेस से आए नेताओं का भी एक अलग गुट दिखाई देता है, जिसमें विजय बहुगुणा, हरक सिंह रावत, उमेश काऊ शर्मा शामिल हैं.

अनिल बलूनी की चिट्ठी सीएम की परेशानी का सबब

राज्य की राजनीति में सीधा दखल ना होने के बावजूद भी राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी भी भाजपा की एक अलग टीम के नेता माने जाते हैं. समय-समय पर उनकी चिट्ठियां त्रिवेंद्र सरकार की भी मुशकिलें बढ़ाती रही है. सक्रिय राजनीति से दूर हो चुके पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी और महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के समर्थक अब विभिन्न खेमों में बंटते या जुड़ते दिखाई दे रहे हैं.

राजनीति में मौका परस्ती का दस्तूर पुराना है.

जानकार कहते हैं कि अभी तो चुनावी वर्ष की शुरुआत है और इसमें फिलहाल पार्टी के ही नेता दुश्मनी को भुला कर दोस्ती कर रहे हैं, लेकिन राजनीति में मौका परस्ती ही चलती है. ऐसे में आने वाले दिनों में दुश्मन नेताओं का दलबदल कर दोस्ती करने का सिलसिला भी तेज होगा. जानकार 2017 के विधानसभा चुनाव की याद दिलाते हुए कहते हैं कि इस दौरान कांग्रेस से जिस तरह पूर्व मुख्यमंत्री समेत कैबिनेट मंत्री और विधायकों ने पार्टी छोड़कर भाजपा का दामन थामा. वह उत्तराखंड की राजनीति में ऐतिहासिक घटना रही है और इस बार ऐसे दलबदल और दुश्मन के दोस्त बनने की घटनाओं में काफी ज्यादा इजाफा होगा.

देहरादून: उत्तराखंड में 2022 में होने वाले चुनाव को लेकर प्रदेश में राजनीति का अनोखा सीजन शुरू हो गया है. यह मौसम राजनेताओं की दोस्ती का है. यही वह समय है, जब बड़े से बड़ा विरोधी भी राजनीतिक प्रतिद्वंदी को गले लगाने से गुरेज नहीं करता. दो घोर विरोधी भी दोस्ती की नई इबारत गढ़ने की कसमें खाते दिख जाते हैं. जानिए राजनीति में सियासी मौका परस्ती की ऐसी ही कहानी को जो उत्तराखंड का इतिहास रही है.

2022 में होंगे विधानसभा चुनाव

हाल फिलहाल में राजनीतिक विरोधी को दोस्त बनाने का सिलसिला जारी है. इसका जवाब आने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में छिपा हैं. दरअसल, उत्तराखंड में साल 2022 विधानसभा चुनाव होना तय है. 2022 साल के शुरुआती महीनों में ही पांचवी विधानसभा के लिए चुनाव होने हैं. ऐसे भी यही वह समय होता है जब राजनीति में दुश्मन भी दोस्त बन जाते हैं और दोस्त एकाएक विरोधी गुट में शामिल हो जाता है.

साथ चलने को विरोधी मजबूर

विरोधी भी दे रहे एकता की दुहाई

फिलहाल, उत्तराखंड में भी कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिल रहा है. चुनावी वर्ष करीब आते ही पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत और प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह समेत नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश मंच साझा करते दिखने लगे हैं. इस दौरान एक मंच पर पार्टी और नेताओं की एकता की भी दुहाई दी जा रही है. जबकि, यही नेता कुछ दिन पहले चिट्ठी-चिट्ठी का खेल खेलकर पार्टी में असंतोष के हालातों को बयां कर रहे थे.

कांग्रेस पार्टी भारी खेमेबाजी

उत्तराखंड में कांग्रेस कई खेमों में बंटी हुई है, पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत खुद में कई समर्थकों के साथ सभी खेमों पर भारी पड़ते रहे हैं. दूसरा खेमा इंदिरा हृदयेश का है. जो कुमाऊं में पूरी ताकत के साथ समय-समय पर हरीश रावत को चुनौती देती हुई नजर आती रहती है. तीसरा खेमा प्रीतम सिंह का है, जो उत्तराखंड कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष है. हालांकि, हरीश रावत की मजबूती के चलते इंदिरा और प्रीतम एक मंच पर दिखाई देते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि अपने समर्थकों के साथ प्रीतम एक अलग ही राह पर दिखाई देते हैं. वहीं, कांग्रेस पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय भी एकला चलो की स्थिति में दिखाई देते हैं.

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बीजेपी में भी गुटबाजी कम नहीं

भारतीय जनता पार्टी में भी गुटबाजी कांग्रेस से कम नहीं है. वह बात अलग है कि बीजेपी के नेता सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे खिलाफ बयान देते हुए कम ही नजर आते हैं. आगामी चुनाव को लेकर सीएम त्रिवेंद्र को निशाने पर लेने वाले तमाम मंत्री और विधायक इन दिनों सीएम से जुड़कर अपने क्षेत्रों में काम करवाने की कोशिश कर रहे है. सबसे ताजा उदाहरण हरक सिंह रावत और सीएम त्रिवेंद्र के बीच होती करीबी है, जो एक समय काफी तल्खी के रूप में दिखाई देती थी. इसी तरह कई विधायक भी समय-समय पर सरकार के कामों पर सवाल उठाकर मुखिया को घेरने की कोशिश करते दिखाई देते रहे हैं.

बीजेपी में भी खेमेबाजी है भारी

प्रदेश का मुखिया होने के नाते सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत की भाजपा में अपनी ही एक लॉबी और समर्थक हैं. बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष बंशीधर भगत भी मुख्यमंत्री के समर्थन में ही बताए जाते हैं. वहीं, पार्टी में डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक के खेमें में भी बड़ी संख्या में विधायक और पार्टी पदाधिकारी मौजूद है. इसके अलावा कांग्रेस से आए नेताओं का भी एक अलग गुट दिखाई देता है, जिसमें विजय बहुगुणा, हरक सिंह रावत, उमेश काऊ शर्मा शामिल हैं.

अनिल बलूनी की चिट्ठी सीएम की परेशानी का सबब

राज्य की राजनीति में सीधा दखल ना होने के बावजूद भी राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी भी भाजपा की एक अलग टीम के नेता माने जाते हैं. समय-समय पर उनकी चिट्ठियां त्रिवेंद्र सरकार की भी मुशकिलें बढ़ाती रही है. सक्रिय राजनीति से दूर हो चुके पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी और महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के समर्थक अब विभिन्न खेमों में बंटते या जुड़ते दिखाई दे रहे हैं.

राजनीति में मौका परस्ती का दस्तूर पुराना है.

जानकार कहते हैं कि अभी तो चुनावी वर्ष की शुरुआत है और इसमें फिलहाल पार्टी के ही नेता दुश्मनी को भुला कर दोस्ती कर रहे हैं, लेकिन राजनीति में मौका परस्ती ही चलती है. ऐसे में आने वाले दिनों में दुश्मन नेताओं का दलबदल कर दोस्ती करने का सिलसिला भी तेज होगा. जानकार 2017 के विधानसभा चुनाव की याद दिलाते हुए कहते हैं कि इस दौरान कांग्रेस से जिस तरह पूर्व मुख्यमंत्री समेत कैबिनेट मंत्री और विधायकों ने पार्टी छोड़कर भाजपा का दामन थामा. वह उत्तराखंड की राजनीति में ऐतिहासिक घटना रही है और इस बार ऐसे दलबदल और दुश्मन के दोस्त बनने की घटनाओं में काफी ज्यादा इजाफा होगा.

Last Updated : Jul 12, 2020, 1:37 PM IST
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