आज की प्रेरणा: जो भक्त किसी फल के लिए प्रयत्नशील नहीं रहता, वही ईश्वर को प्रिय है
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यदि मनुष्य ईश्वर में अपने चित्त को स्थिर करता है और अपनी सारी बुद्धि को ईश्वर में लगाता है, तो निस्संदेह मनुष्य को ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है. यदि मनुष्य अपने चित्त को अविचल भाव से परमात्मा में स्थिर नहीं कर सकता, तो भक्तियोग के विधि-विधानों का पालन करना चाहिए. जिससे मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर सके. यदि मानव भक्तियोग के विधि-विधानों का भी अभ्यास नहीं कर सकता, तो परमात्मा के लिए कर्म करने का प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि परमात्मा के लिए कर्म करने से मनुष्य पूर्ण सिद्धि को प्राप्त होता है. यदि मानव परमात्मा के लिए कर्म करने में असमर्थ हो, तो अपने कर्म के समस्त फलों को त्याग कर कर्म करने का तथा आत्म-स्थित होने का प्रयत्न करे. यदि मनुष्य कर्म फलों का त्याग तथा आत्म-स्थित होने में असमर्थ हो तो उसे ज्ञान अर्जित करने का प्रयास करना चाहिए. ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है और ध्यान से भी श्रेष्ठ कर्म फलों का परित्याग क्योंकि ऐसे त्याग से मनुष्य को परम शांति मिलती है. ऐसा भक्त जो सामान्य कार्य-कलापों पर आश्रित नहीं है, जो शुद्ध है, दक्ष है, चिंता रहित है, समस्त कष्टों से रहित है और किसी फल के लिए प्रयत्नशील नहीं रहता, ईश्वर को अतिशय प्रिय है. जो न कभी हर्षित होता है, न शोक करता है, जो न पछताता है, न इच्छा करता है, तथा शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकार की वस्तुओं का परित्याग कर देता है, ऐसा भक्त परमात्मा को अत्यंत प्रिय है. जो सदैव मौन और किसी भी वस्तु से संतुष्ट रहता है, जो परिवार, समाज की परवाह नहीं करता, जो ज्ञान में दृढ़ है और जो भक्ति में संलग्न है – ऐसा व्यक्ति ईश्वर को अत्यंत प्रिय है. सब प्राणियों के प्रति जो द्वेष रहित है तथा सबका मित्र और करुणावान है, जो ममता और अहंकार से रहित, सुख और दु:ख में सम और क्षमावान है, ऐसा व्यक्ति ईश्वर को अत्यंत प्रिय है. ऐसा भक्त जो निरंतर संतुष्ट, योगी, सहिष्णु, आत्मसंयमी है, जो शरीर को वश में किए हुए, दृढ़ निश्चयी, समर्पित मन, बुद्धिवाला भक्त ईश्वर को प्रिय है.