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यहां से हुई थी होली की शुरुआत, जानें क्या है इतिहास... - एरिकच्छ दैत्यराज हिरण्यकश्यप

होली का त्योहार आते ही पूरा देश रंग व गुलालों की मस्ती में सराबोर हो जाता है. लेकिन यह बात बहुत कम ही लोग जानते हैं कि जालौन जिले के बेतवा नदी के सुप्रसिद्ध शालाघाट के उस पार ग्राम डीकौली से होली की शुरुआत हुई थी. बता दें कि ग्राम डीकौली झांसी जिले में आता है.

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Published : Mar 18, 2022, 12:52 PM IST

झांसी: झांसी से करीब 70 किलोमीटर दूर एरच कस्बा है. माना जाता है कि ये वही स्थान है, जहां से होली की शुरुआत हुई थी. इसी जगह पर होलिका का दहन हुआ था. शास्त्रों व पुराणों के मुताबिक वर्तमान में झांसी जिले का एरच कस्बा त्रेतायुग में एरिकच्छ के नाम से प्रसिद्ध था. यह एरिकच्छ दैत्यराज हिरण्यकश्यप की राजधानी थी. हिरण्यकश्यप को ये वरदान मिला था कि वो न तो दिन में मरेगा और न ही रात में. न उसे इंसान मार पाएगा और न ही जानवर. इसी वरदान को हासिल करने के बाद वो स्वयं को अमर समझने लगा था और लगातार उसका अत्याचार बढ़ने लगा था.

तभी राक्षसराज के घर भक्त प्रह्लाद का जन्म हुआ. भक्त प्रह्लाद की नारायण भक्ति से परेशान होकर हिरण्यकश्यप ने उन्हें मरवाने के कई प्रयास किए. फिर भी प्रह्लाद बच गए. आखिरकार हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को डीकौली पर्वत से नीचे फेंक दिया. डीकौली पर्वत और जिस स्थान पर प्रह्लाद गिरे, वो आज भी मौजूद है. इसका जिक्र श्रीमद् भागवत पुराण के 9वें स्कन्ध में व झांसी गजेटियर पेज 339ए, 357 में मिलता है. पौराणिक कथाओं के मुताबिक हिरण्यकश्यप की बहन होलिका ने प्रह्लाद को मारने की ठानी.

यहां से हुई थी होली की शुरुआत

होलिका के पास एक ऐसी चुनरी थी, जिसे पहनने पर वो आग के बीच बैठ सकती थी. जिसको ओढ़कर आग का कोई असर नहीं पड़ता था. होलिका वही चुनरी ओढ़ प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठ गई, लेकिन भगवान की माया का असर यह हुआ कि हवा चली और चुनरी होलिका के ऊपर से उड़कर प्रह्लाद पर आ गई. इस तरह प्रह्लाद फिर बच गए और होलिका जल गई. इसके तुरंत बाद विष्णु भगवान ने नरसिंह के रूप में अवतार लिया और गौधुली बेला यानी न दिन न रात में अपने नाखूनों से डीकौली स्थित मंदिर की दहलीज पर हिरण्यकश्यप का वध कर दिया. बुंदेलखंड ही नहीं, बल्कि पूरे देश में होली के एक दिन पहले होलिका दहन की परंपरा है. एरच में आज भी इस परंपरा को स्थानीय निवासी फाग और गानों के साथ हर्षोल्लास से मनाते हैं.

इसे भी पढ़ें - यहां होली को विजय पर्व के रूप में मानते हैं लोग... जानें क्या है इसके पीछे की कहानी

आज भी मौजूद पर्वत और कुंड

होली के इस महापर्व से जुड़े कई कथाओं के सैकड़ों प्रमाण है. लेकिन शालाघाट के बेतवा तट से निकली मनोहारी चट्टानों पर खड़े होकर दिखाई देने वाला डीकौली का पर्वत प्रह्लाद को फेंके जाने की कथा बयां करता है. इस पर्वत से जहां भक्त प्रह्लाद को फेंका गया था, उस जगह को प्रह्लाद कुंड के नाम से जाना जाता है. इस जगह बेतवा की गहराई 30 मीटर तक बताई जाती है. जिसकी वजह से यहां मऊरानीपुर व कोटरा क्षेत्र में सिंचाई और पेयजल समस्या हल करने के लिए बैराज बनाए जाने का प्रस्ताव है.

प्रह्लाद कुंड के पास नदी तट पर बनी संरचना भी प्रह्लाद के गिरने की गवाही के रूप में दिखाई देती है. डीकौली के पर्वत के ऊपर बना गवाक्ष ग्रीष्मकाल में हिरणकश्यप की आरामगाह के रूप में जाना जाता है. यहां पर कुछ वर्ष पहले विशाल यज्ञ कराया गया था, जिसमें हजारों की संख्या में जालौन और झांसी जिले से श्रद्धालु ग्रामीण उमड़े थे.

इसलिए बुंदेलखंड में तीसरे दिन खेली जाती है होली...

जिस तरह दुनिया के लोग यह नहीं जानते कि होली की शुरुआत डीकौली से हुई थी, ठीक उसी तरह आपको यह जानकर हैरानी होगी कि आज भी बुंदेलखंड में होली जलने के तीसरे दिन यानी दौज पर खेली जाती है. क्योंकि हिरणकश्यप के वध के बाद अगले दिन एरिकच्छ के लोगों ने राजा की मृत्यु का शोक मनाया था और एक दूसरे पर होली की राख डालने लगे थे. बाद में भगवान विष्णु ने दैत्यों और देवताओं के बीच सुलह कराई थी. समझौते के बाद सभी लोग एक-दूसरे पर रंग गुलाल डालने लगे. इसलिए बुंदेलखंड में होली के अगले दिन कीचड़ की होली खेली जाती है और रंगों की होली दौज के दिन खेली जाती है.

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झांसी: झांसी से करीब 70 किलोमीटर दूर एरच कस्बा है. माना जाता है कि ये वही स्थान है, जहां से होली की शुरुआत हुई थी. इसी जगह पर होलिका का दहन हुआ था. शास्त्रों व पुराणों के मुताबिक वर्तमान में झांसी जिले का एरच कस्बा त्रेतायुग में एरिकच्छ के नाम से प्रसिद्ध था. यह एरिकच्छ दैत्यराज हिरण्यकश्यप की राजधानी थी. हिरण्यकश्यप को ये वरदान मिला था कि वो न तो दिन में मरेगा और न ही रात में. न उसे इंसान मार पाएगा और न ही जानवर. इसी वरदान को हासिल करने के बाद वो स्वयं को अमर समझने लगा था और लगातार उसका अत्याचार बढ़ने लगा था.

तभी राक्षसराज के घर भक्त प्रह्लाद का जन्म हुआ. भक्त प्रह्लाद की नारायण भक्ति से परेशान होकर हिरण्यकश्यप ने उन्हें मरवाने के कई प्रयास किए. फिर भी प्रह्लाद बच गए. आखिरकार हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को डीकौली पर्वत से नीचे फेंक दिया. डीकौली पर्वत और जिस स्थान पर प्रह्लाद गिरे, वो आज भी मौजूद है. इसका जिक्र श्रीमद् भागवत पुराण के 9वें स्कन्ध में व झांसी गजेटियर पेज 339ए, 357 में मिलता है. पौराणिक कथाओं के मुताबिक हिरण्यकश्यप की बहन होलिका ने प्रह्लाद को मारने की ठानी.

यहां से हुई थी होली की शुरुआत

होलिका के पास एक ऐसी चुनरी थी, जिसे पहनने पर वो आग के बीच बैठ सकती थी. जिसको ओढ़कर आग का कोई असर नहीं पड़ता था. होलिका वही चुनरी ओढ़ प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठ गई, लेकिन भगवान की माया का असर यह हुआ कि हवा चली और चुनरी होलिका के ऊपर से उड़कर प्रह्लाद पर आ गई. इस तरह प्रह्लाद फिर बच गए और होलिका जल गई. इसके तुरंत बाद विष्णु भगवान ने नरसिंह के रूप में अवतार लिया और गौधुली बेला यानी न दिन न रात में अपने नाखूनों से डीकौली स्थित मंदिर की दहलीज पर हिरण्यकश्यप का वध कर दिया. बुंदेलखंड ही नहीं, बल्कि पूरे देश में होली के एक दिन पहले होलिका दहन की परंपरा है. एरच में आज भी इस परंपरा को स्थानीय निवासी फाग और गानों के साथ हर्षोल्लास से मनाते हैं.

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आज भी मौजूद पर्वत और कुंड

होली के इस महापर्व से जुड़े कई कथाओं के सैकड़ों प्रमाण है. लेकिन शालाघाट के बेतवा तट से निकली मनोहारी चट्टानों पर खड़े होकर दिखाई देने वाला डीकौली का पर्वत प्रह्लाद को फेंके जाने की कथा बयां करता है. इस पर्वत से जहां भक्त प्रह्लाद को फेंका गया था, उस जगह को प्रह्लाद कुंड के नाम से जाना जाता है. इस जगह बेतवा की गहराई 30 मीटर तक बताई जाती है. जिसकी वजह से यहां मऊरानीपुर व कोटरा क्षेत्र में सिंचाई और पेयजल समस्या हल करने के लिए बैराज बनाए जाने का प्रस्ताव है.

प्रह्लाद कुंड के पास नदी तट पर बनी संरचना भी प्रह्लाद के गिरने की गवाही के रूप में दिखाई देती है. डीकौली के पर्वत के ऊपर बना गवाक्ष ग्रीष्मकाल में हिरणकश्यप की आरामगाह के रूप में जाना जाता है. यहां पर कुछ वर्ष पहले विशाल यज्ञ कराया गया था, जिसमें हजारों की संख्या में जालौन और झांसी जिले से श्रद्धालु ग्रामीण उमड़े थे.

इसलिए बुंदेलखंड में तीसरे दिन खेली जाती है होली...

जिस तरह दुनिया के लोग यह नहीं जानते कि होली की शुरुआत डीकौली से हुई थी, ठीक उसी तरह आपको यह जानकर हैरानी होगी कि आज भी बुंदेलखंड में होली जलने के तीसरे दिन यानी दौज पर खेली जाती है. क्योंकि हिरणकश्यप के वध के बाद अगले दिन एरिकच्छ के लोगों ने राजा की मृत्यु का शोक मनाया था और एक दूसरे पर होली की राख डालने लगे थे. बाद में भगवान विष्णु ने दैत्यों और देवताओं के बीच सुलह कराई थी. समझौते के बाद सभी लोग एक-दूसरे पर रंग गुलाल डालने लगे. इसलिए बुंदेलखंड में होली के अगले दिन कीचड़ की होली खेली जाती है और रंगों की होली दौज के दिन खेली जाती है.

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