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बनारस संगीत घराना; उस्ताद बिस्मिल्लाह खान से लेकर छन्नूलाल मिश्रा तक ने दिलाई शोहरत, अब विरासत-परंपरा को बचाने की जंग - VARANASI CLASSICAL MUSIC

500 साल से भी ज्यादा पुराना है यह घराना, वाराणसी की गलियों को छोड़कर बड़े शहरों में बस रहे कलाकार.

अब पहले जैसे गुरु नहीं मिलते.
अब पहले जैसे गुरु नहीं मिलते. (Photo Credit; ETV Bharat)
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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Jan 5, 2025, 2:23 PM IST

वाराणसी : कभी सुर्खियों में रहने वाला बनारसी संगीत घराना अब अपनी विरासत को बचाने की जंग लड़ रहा है. अब न तो पहले जैसे फनकार हैं, और न ही तलबगार. इस घराने के कलाकारों ने पूरे विश्व में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया. इनमें भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान से लेकर पद्म विभूषण पंडित छन्नूलाल मिश्रा तक की लंबी फेहरिस्त है. इन्होंने अपने हुनर से गीत-संगीत को बुलंदी तक पहुंचाया. अब बाजारवाद ने इस घराने की बुनियाद को कमजोर करना शुरू कर दिया है. जिन गुरुकुलों में दाखिले के लिए होड़ लगी रहती थी, वहीं अब शिष्य ही इनसे दूरी बनाने लगे हैं. 500 हजार साल से भी ज्यादा पुराने इस घराने ने शास्त्रीय संगीत को नई ऊंचाई दी. आइए विस्तार से जानते हैं घराने की प्रमुख शख्सियत, इतिहास और मौजूदा समय की दुश्वारियों के बारे में....

कमजोर पड़ने लगी बनारस संगीत घराने की बुनियाद. (Video Credit; ETV Bharat)

देशभर में मौजूद अलग-अलग संगीत घरानों में से एक बनारस घराना भी है. इस घराने में संगीत व गायन दोनों की परंपराओं को जीवित रखने का काम किया जाता रहा है. इससे जुड़े कई कलाकारों ने संगीत के बल पर पूरे विश्व में भारत का लोहा मनवाया. भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, पद्म विभूषण पंडित छन्नूलाल मिश्रा, पद्मश्री पंडित राजेश्वराचार्य, सितार सम्राट पंडित शिवनाथ मिश्रा, पंडित रविशंकर, पद्म विभूषण और ठुमरी की महारानी कहीं जाने वाली गिरिजा देवी जैसे कई नाम इनमें शामिल हैं.

बदलते समय के साथ अब आधुनिकता और बाजारवाद ने बनारस के इस संपन्न संगीत घराने को कमजोर करने का काम शुरू कर दिया है. बड़े कलाकार तेजी से बनारसी संगीत घराने से दूरी बना रहे हैं. घराने के शिष्य यहां की गलियों और अपने गुरुकुल को छोड़कर दूसरे शहरों में बस रहे हैं. एक वक्त में कबीरचौरा, रामापुर और कई अलग-अलग इलाकों में बनारस की संगीत परंपरा के ध्वजवाहक कहे जाने वाले कई बड़े नाम अब बनारस से दूर हो चुके हैं.

कई बड़े कलाकारों के घरों में ताले बंद : कई बड़े कलाकारों के घरों में ताले बंद हैं. कई के घर सिर्फ बनारस की पहचान के तौर पर ही मौजूद रह गए हैं. शास्त्रीय संगीत के प्रसिद्ध घरानों में बनारस घराने को गिना जाता है. बनारस घराना जयपुर घराने के समकालीन माना जाता है. बनारस घराने के सबसे प्रसिद्ध और सबसे पुराने संगीतकार घरों में से एक बड़े रामदास जी के बेटे पंडित हरिशंकर मिश्र के शिष्य पंडित अनूप कुमार मिश्रा बताते हैं कि बनारस की यह संपन्न संगीत काफी पुरानी है.

संतों की इस संगीत परंपरा को सूरदास, कबीर, तुलसी और श्री कृष्ण के उपासक चैतन्य महाप्रभु अपने गायन के जरिए प्रस्तुत किया करते थे. पंडित अनूप मिश्रा का कहना है कि 4 वेदों में सांगवेद की ऋचाओं का गायन भी संगीत के जरिए ही किया जाता था और कहीं न कहीं से यह संगीत भी इसी परंपरा से निकला हुआ है. उनका कहना है कि घराने 1268 के दौरान बने. उस दौरान राजपूताना रियासतों ने अलग-अलग संगीत गानों को मजबूती प्रदान करने के लिए इस पर काम शुरू किया.

बनारस घराने में गीत-संगीत की 4 विधाएं शामिल : अनूप मिश्रा बताते हैं कि गीत-संगीत में बनारस घराना सबसे मजबूत माना जाता है. यहां पर चारों विधाएं, जिसमें गायन वादन के साथ ही तबला और शास्त्रीय संगीत भी शामिल है. बनारस एकमात्र ऐसा घराना है जहां संगीत के अलग-अलग 8 उपघराने हुए. इनमें रामापुरा घराना, कबीर चौरा घराना और बनारस के कई अलग-अलग इलाकों में रहने वाले बड़े संगीतकार और उनके परिवारों के अलौकिक प्रदर्शन की वजह से उन्हें अलग घराने के तौर पर पहचान मिली.

बनारस घराने में गति व श्रंगारिकता के स्थान पर प्राचीन व प्रारंभिक शैली पर अधिक जोर दिया गया. बनारस घराने के नाम से प्रख्यात नृत्यगुरु सितारा देवी के पश्चात उनकी पुत्री कथक क्वीन जयंतीमाला ने इसके वैभव और छवि को बरकरार रखने का प्रयास किया है. वह गुरु-शिष्य परंपरा को भी आगे बढ़ा रही है. पंडित अनूप मिश्र का कहना है यह घराना गायन और वादन दोनों कलाओं के लिए प्रसिद्ध रहा है. इस घराने के गायक ख्याल गायकी के लिए जाने जाते हैं.

बनारस संगीत घराने में शिक्षा के लिए आते हैं युवा.
बनारस संगीत घराने में शिक्षा के लिए आते हैं युवा. (Photo Credit; ETV Bharat)

सारंगी वादन में भी चर्चित रहा घराना : बनारस घराने के तबला वादकों की भी अपनी एक स्वतंत्र शैली रही है. सारंगी वादकों के लिए भी यह घराना काफी चर्चित रहा है. घराने की गायन एवं वादन शैली पर उत्तर भारत के लोक गायन का गहरा प्रभाव है. आर्यों के भारत में स्थायी होने से पहले यहां की जनजातियों में संगीत विद्यमान था. उसका आभास बनारस के लोक संगीत में दिखता है. ठुमरी मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश की ही देन है. लखनऊ में इसकी पैदाइश हुई थी और बनारस में इसका विकास हुआ.

बनारस में कोई बनावट नहीं : हालांकि समय के साथ कहीं न कहीं से अब बनारस की इस बेहद ही संपन्न संगीत परंपरा और गलियों में गूंजने वाले गायन-वादन संग वाद्य यंत्रों की आवाज भी अब सुनाई देना बंद हो रही हैं. इसके पीछे का बड़ा कारण संगीत से युवा और पुराने कलाकारों की दूरी माना जा सकता है. ध्रुपद गायन के जाने-माने नाम और संगीत अकादमी उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष रह चुके पद्मश्री पंडित राजेश्वर आचार्य का कहना है कि बनारस हमेशा से ही अपने असली और धार्मिक स्वरूप के लिए जाना जाता है. बनारस में कोई बनावट कभी नहीं रही है, और न रहेगी.

इस वजह से संगीत घराने से दूर होते गए कलाकार : यहां रहने वाले लोग कम संशाधनों में ही गुजारा करना ज्यादा बेहतर समझते थे, लेकिन समय के साथ बाजारवाद संग विज्ञापनों ने इन चीजों को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया. पंडित राजेश्वर आचार्य का कहना है कि बाजारवादी मानसिकता के कारण बनारसी संगीत घराने से जुड़े लोग इससे दूर होते गए. बनारस छोड़कर दूसरे शहरों में जाकर खुद को मजबूत करने की जगह विज्ञापन में उलझ गए. अपने प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने जब बनारस को छोड़ा तो संगीत के कमजोर होने का सिलसिला शुरू हो गया.

गुरु-शिष्य परंपरा का वह रूप भी बनारस में स्थापित नहीं हो सका जो पहले दिखाई देता था. आज शिष्य भी कम समय में सीखने की चाहत की वजह से गुरुओं के संपर्क में नहीं आ रहे हैं. पंडित राजेश्वर आचार्य का कहना है कि घरानों को लेकर भी एक भ्रम की स्थिति लोगों के अंदर रही है कि आखिर यह घराने कब के हैं, कितने पुराने हैं. इसमें भी कई तरह की भ्रांतियां हैं जैसे घरों को घरानों का नाम दिया गया, जबकि घराने किसी परंपरा के ध्वजवाहक माने गए हैं.

संगीत घराने का मान बढ़ाने में कई हस्तियों का योगदान.
संगीत घराने का मान बढ़ाने में कई हस्तियों का योगदान. (Photo Credit; ETV Bharat)

गुरु-शिष्य की टूट रही परंपरा : यह संप्रदाय विशेष के लिए नहीं बल्कि कलाकारों के लिए जुड़े हुए होते थे और इसी वजह से घराने के जरिए संगीत को एक अलग मुकाम देने की कोशिश की गई, लेकिन इसका भी इस्तेमाल गलत तरीके से हुआ. इसके कारण घराना कमजोर होता गया. प्रख्यात सितार वादक पद्मश्री शिवनाथ मिश्रा गुरु-शिष्य की टूट रही परंपरा को स्वीकार भी करते हैं. उनका कहना है कि अब वैसे गुरु पैदा ही नहीं हो रहे हैं, जैसे पहले होते थे. पहले एक गुरु, एक राग, एक संगीत के पद और अंदाज को अपने शिष्य को सिखाने में 8 से 10 साल का समय लगाते थे.

पहले के गुरु 18 घंटे करते थे रियाज : सितार वादक का कहना है कि अब तो गुरु इंस्टीट्यूट से पैदा हो रहे हैं. प्रोफेसर, डॉक्टरेट की उपाधि लेकर लोग शिष्यों को संगीत सिखाना शुरू कर दे रहे हैं. उन्हें खुद प्रैक्टिकल का ज्ञान कम है. सिर्फ पढ़ाई करके सुरों की जानकारी लेकर शिष्यों को सिखाना कहीं ना कहीं से इसके क्षय की प्रमुख वजह मानी जा सकती है. पंडित शिवनाथ मिश्रा का कहना है कि पहले गुरु भी 24 घंटे में 18 -18 घंटे का रियाज किया करते थे. फिर अपने शिष्यों के साथ सुबह-शाम समय दिया करते थे.

अब पहले जैसे गुरु नहीं रह गए : शिवनाथ मिश्रा ने बताया कि पहले के गुरु संगीत को जीते थे. संगीत को पीते थे, लेकिन अब न वैसे गुरु हैं, न वैसे शिष्य. इसकी वजह से भी बनारस का यह संगीत घराना कहीं न कहीं कमजोर हो रहा है. अब तो शिष्य कम समय में सीख कर स्टेज पर परफॉर्मेंस देना चाहते हैं. उनके पास समय ही नहीं है. कोई शिष्य 6 महीने के लिए आता है तो कोई एक महीने के लिए. वहीं बनारस घराने से जुड़े तबला सम्राट पंडित किशन महाराज के शिष्य पंडित अमित कुमार मिश्रा का कहना है कि बनारस घराने में तबला अपने आप में एक अलग ही हैसियत रखता है.

छोटे कलाकारों की सरकार नहीं करती मदद : अमित कुमार ने बताया कि यहां के प्रख्यात तबला वादकों ने पूरे विश्व में बनारस घराने का लोहा मनवाया. संगीतकारों के साथ शास्त्रीय गायकों और अलग-अलग वाद्य यंत्रों को बजने वाले लोगों ने बनारस घराने को बुलंदियों पर पहुंचाया. अब यह घराना कुछ लोगों के हाथों की कठपुतली बन कर रह गया है. सरकार भी कुछ नामचीन लोगों और उनके परिवार के लोगों को ही तवज्जो देती है. यदि आप किसी बड़े परिवार से हैं तो आपको सरकारी मदद भी मिलती है और प्लेटफार्म भी, लेकिन कोई छोटे कलाकार हैं या छोटे परिवार से जुड़े हैं तो महत्व नहीं मिलता.

बनारस संगीत घराना
बनारस संगीत घराना (Photo Credit; ETV Bharat)

कार्यक्रम न मिलने से युवा पीढ़ी मायूस : अमित कुमार का कहना है कि सबसे बड़ी जरूरत है अपना पेट भरने की. जब पेट खाली रहेगा तो कलाकार क्या करेगा, चाह कर भी लोग बनारस घराने और उसकी परंपरा को संभाल कर रखने का काम नहीं कर पा रहे हैं. युवा पीढ़ी सीख तो रही है, लेकिन प्रोग्राम न मिलने की वजह से मायूस हो जा रही है. फिर किसी दूसरे काम में लग जा रही है. ऐसे में जरूरत है. इसको संरक्षित और सुरक्षित करने की ताकि बनारस घराना मजबूती के साथ खड़ा हो और फिर से पूरे विश्व में इसका नाम हो सके.

संगीत की कई अलग-अलग विधाएं : बनारस घराने में संगीत की भी कई अलग-अलग विधाएं हैं. इसमें ध्रुपद, ठुमरी ख्याल और कई अलग-अलग तरह शास्त्री गायन शामिल हैं. बनारस की ठुमरी पंडित जगदीप मिश्र से शुरू हुई. पंडित जगदीप मिश्र, भैया गणपतराव एवं मौजुद्दीन खान के समय से ठुमरी के गाने का प्रचलन बढ़ा. बनारस में इसका अत्यधिक प्रचार-प्रसार हुआ. यही ठुमरी पूरब की बोलियाां, लोकगीतों के प्रभाव से और अधिक भाव प्रधान हो गई, और अंत में बनारसी ठुमरी के नाम से विख्यात हुई. बनारस घराने का ख्याल शैली में भी महत्त्वपूर्ण योगदान है. इस गायन पद्धति में शब्द का स्पष्ट उच्चारण किया जाता है.

भावनाओं को स्वरों के माध्यम से सशक्त रूप से प्रकट किया जाता है. बनारस घराने के गायक ख्याल गायन के लिए विशेष तौर पर पहचाने जाते हैं. ख्याल का तात्पर्य कल्पना से है. इसका अभिव्यक्तिकरण विविधता से और सावधानी पूर्वक किया जाना चाहिए. ख्याल गायन ख्याल वर्षों की प्राचीन परंपरा है. यह प्राचीन परंपरा मुगल बादशाहों के दरबार में ध्रुपद पद्धति से गाई जाती थी. बनारस घराने के ख्याल गायन में बनारस एवं गया की ठुमरी का समावेश है.

तबला वादन में भी बनारस घराने का बढ़ा रुतबा : इस घराने की तबला वादक प्रस्तुति की अपनी एक स्वतंत्र पद्धति रही है. पंडित राम सहाय ने तबले की इस विरासत को मजबूती के साथ प्रस्तुत किया. लगभग 200 साल पहले बनारस घराने में तबले को एक अलग ही स्थान मिला. उन्होंने अपनी कला का प्रदर्शन लोगों के सामने बंद कर अपना ध्यान तबला वादन की नई पद्धति की खोज करने में केंद्रित किया. इन्होंने तबले पर हाथ रखने की पद्धति और अंगुलियां का प्रयोग नए ढंग से करके तबला वादन की नई पद्धति की खोज की. इसका नाम बनारसी बाज पड़ा. इस पद्धति का उपयोग एकल वादन के साथ ध्रुपद गायन, जो पखावज के साथ गाया जाता है, ठुमरी, टप्पा और अनेक प्रकार के वाद्यों के साथ संगत में होने लगा.

जानिए घराने के कुछ संगीतज्ञों के नाम : शहनाई वादक में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, पंडित रामसहाय मिश्र (जिन्होंने ‘बनारसी बाज’ का शोध किया था). तबला वादन में पंडित कंठे महाराज, पंडित अनोखे लाल, पंडित किशन महाराज एवं पंडित गुदई महाराज शामिल रहे. पखावज और मृदंग वादन में पंडित मदन मोहन, पंडित भोलानाथ पाठक और पंडित अमरनाथ मिश्र का नाम लिया जाता है. सुप्रसिद्ध सितार वादक पंडित रविशंकर का जन्म भी बनारस में हुआ. संतूर वादक पंडित शिवकुमार शर्मा के पिता पंडित अमर दत्त शर्मा ने बनारस घराने के महान गायक पंडित बड़े रामदास जी से शिक्षा प्राप्त की थी.

बनारस घराने के नामी शख्सियत : बनारस घराना सारंगी वादकों के लिए भी प्रसिद्ध रहा है. इसमें पं. शम्भू सुमीर, गोपाल मिश्र, हनुमान प्रसाद मिश्र, नारायण विनायक और वर्तमान में पंडित कन्हैयालाल मिश्र का नाम सर्वोपरि है. बनारसी ठुमरी एवं ख्याल गायन यहां की विशिष्ट पद्धति है. ठुमरी गायिकाओं में रसूलन बाई, बड़ी मोती बाई, सिद्धेश्वरी देवी और गिरिजा देवी प्रमुख हैं. ख्याल गायन में पंडित बड़े रामदास जी, पंडित छोटे रामदास जी, पंडित महादेव प्रसाद मिश्र, पंडित राजन-साजन मिश्र प्रसिद्ध रहे. पंडित राजन मिश्रा के निधन के बाद पंडित सजन मिश्रा अभी भी इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं. हालांकि समय के साथ उन्होंने भी बनारस से दूरी बनाई और बनारस से बाहर जाकर रहने लगे हैं, लेकिन समय-समय पर उनका काशी आगमन होता है.

कम समय में बहुत कुछ सीखना मुमकिन नहीं : प्रसिद्ध सारंगी वादक और काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संगीत विभाग से रिटायर्ड पंडित कन्हैयालाल मिश्र का कहना है कि आज हर कोई अपने पेट को भरने के लिए परेशान है. यही वजह है कि अब लोग बनारस को छोड़कर बाहर जाने पर मजबूर हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे घराने से जुड़े जो बच्चे हैं, उनको तो हम जबरदस्ती या फिर प्रेशर डालकर संगीत की शिक्षा दे देते हैं, लेकिन बाहर से आने वाले जो बच्चे या विदेशी शिष्य हैं, वह कम समय में ही सब कुछ सीखने की ललक रखते हैं. आते हैं, जल्दी-जल्दी में सीख कर चले जाते हैं. फिर किसी बड़े प्लेटफार्म पर अपनी प्रस्तुतियां देकर अपनी ही वाहवाही करते हैं.

कई हस्तियों ने हासिल किया बड़ा मुकाम.
कई हस्तियों ने हासिल किया बड़ा मुकाम. (Photo Credit; ETV Bharat)

इंस्टीट्यूट नहीं तैयार कर पा रहे उम्दा कलाकार : कन्हैयालाल मिश्र बताते हैं कि अब तो शिष्यों के द्वारा किसी कार्यक्रम के पहले अपने गुरुओं का नाम भी नहीं लिया जाता, जबकि पहले की यह परंपरा नहीं थी. गुरु का नाम कान पकड़ कर लेना ही अपने आप में उसे कार्यक्रम की सफलता की शुरुआत मानी जाती थी. अब इंस्टीट्यूशंस भी उसे तरह के कलाकारों को तैयार नहीं कर पा रहे हैं. अलग-अलग विश्वविद्यालयों, विद्यालयों या प्राइवेट इंस्टीट्यूशंस सिर्फ और सिर्फ कमाई के लिए एडमिशन ले रहे हैं. संगीत की शिक्षा जब तक रियाज के साथ न दी जाए तब तक इसे पूरा नहीं माना जाता.

किताबी ज्ञान से संगीत नहीं सीखा जा सकता है : वह बताते हैं कि पढ़ाई और किताबों के ज्ञान से संगीत नहीं सीखा जा सकता है. इसे सीखने के लिए समय और अपना तन, मन देना होता है. जब तन-मन देंगे तो ही आप धन कमा पाएंगे, लेकिन आज तो स्थिति यह है कि संगीत सीखने का समय किसी के पास नहीं है. बस सभी लोग धन के पीछे भाग रहे हैं. जिसके कारण अब यह विरासत धीरे-धीरे बनारस से दूर होती दिखाई दे रही है. संगीत की शिक्षा ले रही नई पीढ़ी भी कहीं न कहीं पाश्चात्य और स्पीड म्यूजिक को बनारस घराने से युवाओं की दूरी को बड़ी वजह मान रही है.

बड़े रामदास जी परिवार से जुड़े नई पीढ़ी को संजोकर रखने वाले शास्त्रीय गायक पंडित आर्यन मिश्रा अब युवा पीढ़ी के उन गायको में शामिल हैं. जिन्हें ऑल इंडिया रेडियो की तरफ से भी मौका दिया गया है, लेकिन अनूप का मानना है कि आज तेजी से बदल रहे संगीत के तरीकों ने पाश्चात्य संगीत को बढ़ावा दिया है. युवा इन संगीत विधाओं की तरफ दौड़ रहा है.

सितारवादक बोले- वक्त के साथ बदलने की जरूरत : अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बनारस घराने को एक अलग पहचान दिलाने वाले प्रसिद्ध सितारवादक पंडित देवव्रत मिश्र का कहना है कि बनारस घराने का इतिहास बहुत ही समृद्ध है, इसे कमजोर करना बहुत मुश्किल है. बदलते वक्त के साथ हमें भी बदलने की जरूरत है. गुरुओं ने जिस तरह से पहले इसकी शुरुआत की, उसमें तमाम बदलाव आए हैं, उसी हिसाब से अब बदलने की जरूरत महसूस हो रही है. आज की युवा पीढ़ी तमाम बदलावों के साथ चीजों को स्वीकार करती है. इसलिए थोड़े बदलाव हो जैसे आधुनिकता के साथ संगीत और इंस्ट्रूमेंट के इस्तेमाल को भी स्वीकार किया जाए.

संगीत को लोगों तक पहुंचाने के लिए सोशल मीडिया जरूरी : अब संगीत को घर-घर तक पहुंचाने के लिए सोशल मीडिया बहुत बड़ा प्लेटफार्म है. उसका इस्तेमाल भी होना चाहिए हालांकि उनका कहना है कि अब कम समय में सीखने की चाहत कहीं न कहीं से इस घराने को नुकसान पहुंचा रही है. पहले एक-एक राग सीखने में 8 साल का समय लगता था अब तो बच्चे 8 दिन में ही सब कुछ सीखना चाहते हैं.कुल मिलाकर यदि बात की जाए तो बनारस की इस समृद्ध और संपन्न संगीत संगीत परंपरा को बचाना बेहद जरूरी है.

युवाओं को समझनी होगी अपनी जिम्मेदारी : बनारस घराने से निकले बड़े संगीतकारों और नई-नई विधाओं के बल पर संगीत पर एक अलग मुकाम हासिल हुआ. बनारस घराने से निकले संगीतकारों और गायकों ने विश्व स्तर पर भारत की परंपरा और संगीत विरासत को मजबूती दी, लेकिन अब यह टूट रही परंपरा मजबूत तभी होगी जब युवा पीढ़ी अपने पुरानी विरासत को समझ कर इसे बढ़ाने का प्रयास करेगी. पाश्चात्य संस्कृति और संगीत के साथ शास्त्रीय संगीत कि परंपरा को संरक्षित करने के लिए युवा पीढ़ी को अपने जरिए प्रयास करने होंगे.

यह भी पढ़ें : संगीत प्रेमियों को लुभाएगा बनारस का संगीत पार्क, मशहूर कलाकारों को होगा समर्पित

वाराणसी : कभी सुर्खियों में रहने वाला बनारसी संगीत घराना अब अपनी विरासत को बचाने की जंग लड़ रहा है. अब न तो पहले जैसे फनकार हैं, और न ही तलबगार. इस घराने के कलाकारों ने पूरे विश्व में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया. इनमें भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान से लेकर पद्म विभूषण पंडित छन्नूलाल मिश्रा तक की लंबी फेहरिस्त है. इन्होंने अपने हुनर से गीत-संगीत को बुलंदी तक पहुंचाया. अब बाजारवाद ने इस घराने की बुनियाद को कमजोर करना शुरू कर दिया है. जिन गुरुकुलों में दाखिले के लिए होड़ लगी रहती थी, वहीं अब शिष्य ही इनसे दूरी बनाने लगे हैं. 500 हजार साल से भी ज्यादा पुराने इस घराने ने शास्त्रीय संगीत को नई ऊंचाई दी. आइए विस्तार से जानते हैं घराने की प्रमुख शख्सियत, इतिहास और मौजूदा समय की दुश्वारियों के बारे में....

कमजोर पड़ने लगी बनारस संगीत घराने की बुनियाद. (Video Credit; ETV Bharat)

देशभर में मौजूद अलग-अलग संगीत घरानों में से एक बनारस घराना भी है. इस घराने में संगीत व गायन दोनों की परंपराओं को जीवित रखने का काम किया जाता रहा है. इससे जुड़े कई कलाकारों ने संगीत के बल पर पूरे विश्व में भारत का लोहा मनवाया. भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, पद्म विभूषण पंडित छन्नूलाल मिश्रा, पद्मश्री पंडित राजेश्वराचार्य, सितार सम्राट पंडित शिवनाथ मिश्रा, पंडित रविशंकर, पद्म विभूषण और ठुमरी की महारानी कहीं जाने वाली गिरिजा देवी जैसे कई नाम इनमें शामिल हैं.

बदलते समय के साथ अब आधुनिकता और बाजारवाद ने बनारस के इस संपन्न संगीत घराने को कमजोर करने का काम शुरू कर दिया है. बड़े कलाकार तेजी से बनारसी संगीत घराने से दूरी बना रहे हैं. घराने के शिष्य यहां की गलियों और अपने गुरुकुल को छोड़कर दूसरे शहरों में बस रहे हैं. एक वक्त में कबीरचौरा, रामापुर और कई अलग-अलग इलाकों में बनारस की संगीत परंपरा के ध्वजवाहक कहे जाने वाले कई बड़े नाम अब बनारस से दूर हो चुके हैं.

कई बड़े कलाकारों के घरों में ताले बंद : कई बड़े कलाकारों के घरों में ताले बंद हैं. कई के घर सिर्फ बनारस की पहचान के तौर पर ही मौजूद रह गए हैं. शास्त्रीय संगीत के प्रसिद्ध घरानों में बनारस घराने को गिना जाता है. बनारस घराना जयपुर घराने के समकालीन माना जाता है. बनारस घराने के सबसे प्रसिद्ध और सबसे पुराने संगीतकार घरों में से एक बड़े रामदास जी के बेटे पंडित हरिशंकर मिश्र के शिष्य पंडित अनूप कुमार मिश्रा बताते हैं कि बनारस की यह संपन्न संगीत काफी पुरानी है.

संतों की इस संगीत परंपरा को सूरदास, कबीर, तुलसी और श्री कृष्ण के उपासक चैतन्य महाप्रभु अपने गायन के जरिए प्रस्तुत किया करते थे. पंडित अनूप मिश्रा का कहना है कि 4 वेदों में सांगवेद की ऋचाओं का गायन भी संगीत के जरिए ही किया जाता था और कहीं न कहीं से यह संगीत भी इसी परंपरा से निकला हुआ है. उनका कहना है कि घराने 1268 के दौरान बने. उस दौरान राजपूताना रियासतों ने अलग-अलग संगीत गानों को मजबूती प्रदान करने के लिए इस पर काम शुरू किया.

बनारस घराने में गीत-संगीत की 4 विधाएं शामिल : अनूप मिश्रा बताते हैं कि गीत-संगीत में बनारस घराना सबसे मजबूत माना जाता है. यहां पर चारों विधाएं, जिसमें गायन वादन के साथ ही तबला और शास्त्रीय संगीत भी शामिल है. बनारस एकमात्र ऐसा घराना है जहां संगीत के अलग-अलग 8 उपघराने हुए. इनमें रामापुरा घराना, कबीर चौरा घराना और बनारस के कई अलग-अलग इलाकों में रहने वाले बड़े संगीतकार और उनके परिवारों के अलौकिक प्रदर्शन की वजह से उन्हें अलग घराने के तौर पर पहचान मिली.

बनारस घराने में गति व श्रंगारिकता के स्थान पर प्राचीन व प्रारंभिक शैली पर अधिक जोर दिया गया. बनारस घराने के नाम से प्रख्यात नृत्यगुरु सितारा देवी के पश्चात उनकी पुत्री कथक क्वीन जयंतीमाला ने इसके वैभव और छवि को बरकरार रखने का प्रयास किया है. वह गुरु-शिष्य परंपरा को भी आगे बढ़ा रही है. पंडित अनूप मिश्र का कहना है यह घराना गायन और वादन दोनों कलाओं के लिए प्रसिद्ध रहा है. इस घराने के गायक ख्याल गायकी के लिए जाने जाते हैं.

बनारस संगीत घराने में शिक्षा के लिए आते हैं युवा.
बनारस संगीत घराने में शिक्षा के लिए आते हैं युवा. (Photo Credit; ETV Bharat)

सारंगी वादन में भी चर्चित रहा घराना : बनारस घराने के तबला वादकों की भी अपनी एक स्वतंत्र शैली रही है. सारंगी वादकों के लिए भी यह घराना काफी चर्चित रहा है. घराने की गायन एवं वादन शैली पर उत्तर भारत के लोक गायन का गहरा प्रभाव है. आर्यों के भारत में स्थायी होने से पहले यहां की जनजातियों में संगीत विद्यमान था. उसका आभास बनारस के लोक संगीत में दिखता है. ठुमरी मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश की ही देन है. लखनऊ में इसकी पैदाइश हुई थी और बनारस में इसका विकास हुआ.

बनारस में कोई बनावट नहीं : हालांकि समय के साथ कहीं न कहीं से अब बनारस की इस बेहद ही संपन्न संगीत परंपरा और गलियों में गूंजने वाले गायन-वादन संग वाद्य यंत्रों की आवाज भी अब सुनाई देना बंद हो रही हैं. इसके पीछे का बड़ा कारण संगीत से युवा और पुराने कलाकारों की दूरी माना जा सकता है. ध्रुपद गायन के जाने-माने नाम और संगीत अकादमी उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष रह चुके पद्मश्री पंडित राजेश्वर आचार्य का कहना है कि बनारस हमेशा से ही अपने असली और धार्मिक स्वरूप के लिए जाना जाता है. बनारस में कोई बनावट कभी नहीं रही है, और न रहेगी.

इस वजह से संगीत घराने से दूर होते गए कलाकार : यहां रहने वाले लोग कम संशाधनों में ही गुजारा करना ज्यादा बेहतर समझते थे, लेकिन समय के साथ बाजारवाद संग विज्ञापनों ने इन चीजों को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया. पंडित राजेश्वर आचार्य का कहना है कि बाजारवादी मानसिकता के कारण बनारसी संगीत घराने से जुड़े लोग इससे दूर होते गए. बनारस छोड़कर दूसरे शहरों में जाकर खुद को मजबूत करने की जगह विज्ञापन में उलझ गए. अपने प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने जब बनारस को छोड़ा तो संगीत के कमजोर होने का सिलसिला शुरू हो गया.

गुरु-शिष्य परंपरा का वह रूप भी बनारस में स्थापित नहीं हो सका जो पहले दिखाई देता था. आज शिष्य भी कम समय में सीखने की चाहत की वजह से गुरुओं के संपर्क में नहीं आ रहे हैं. पंडित राजेश्वर आचार्य का कहना है कि घरानों को लेकर भी एक भ्रम की स्थिति लोगों के अंदर रही है कि आखिर यह घराने कब के हैं, कितने पुराने हैं. इसमें भी कई तरह की भ्रांतियां हैं जैसे घरों को घरानों का नाम दिया गया, जबकि घराने किसी परंपरा के ध्वजवाहक माने गए हैं.

संगीत घराने का मान बढ़ाने में कई हस्तियों का योगदान.
संगीत घराने का मान बढ़ाने में कई हस्तियों का योगदान. (Photo Credit; ETV Bharat)

गुरु-शिष्य की टूट रही परंपरा : यह संप्रदाय विशेष के लिए नहीं बल्कि कलाकारों के लिए जुड़े हुए होते थे और इसी वजह से घराने के जरिए संगीत को एक अलग मुकाम देने की कोशिश की गई, लेकिन इसका भी इस्तेमाल गलत तरीके से हुआ. इसके कारण घराना कमजोर होता गया. प्रख्यात सितार वादक पद्मश्री शिवनाथ मिश्रा गुरु-शिष्य की टूट रही परंपरा को स्वीकार भी करते हैं. उनका कहना है कि अब वैसे गुरु पैदा ही नहीं हो रहे हैं, जैसे पहले होते थे. पहले एक गुरु, एक राग, एक संगीत के पद और अंदाज को अपने शिष्य को सिखाने में 8 से 10 साल का समय लगाते थे.

पहले के गुरु 18 घंटे करते थे रियाज : सितार वादक का कहना है कि अब तो गुरु इंस्टीट्यूट से पैदा हो रहे हैं. प्रोफेसर, डॉक्टरेट की उपाधि लेकर लोग शिष्यों को संगीत सिखाना शुरू कर दे रहे हैं. उन्हें खुद प्रैक्टिकल का ज्ञान कम है. सिर्फ पढ़ाई करके सुरों की जानकारी लेकर शिष्यों को सिखाना कहीं ना कहीं से इसके क्षय की प्रमुख वजह मानी जा सकती है. पंडित शिवनाथ मिश्रा का कहना है कि पहले गुरु भी 24 घंटे में 18 -18 घंटे का रियाज किया करते थे. फिर अपने शिष्यों के साथ सुबह-शाम समय दिया करते थे.

अब पहले जैसे गुरु नहीं रह गए : शिवनाथ मिश्रा ने बताया कि पहले के गुरु संगीत को जीते थे. संगीत को पीते थे, लेकिन अब न वैसे गुरु हैं, न वैसे शिष्य. इसकी वजह से भी बनारस का यह संगीत घराना कहीं न कहीं कमजोर हो रहा है. अब तो शिष्य कम समय में सीख कर स्टेज पर परफॉर्मेंस देना चाहते हैं. उनके पास समय ही नहीं है. कोई शिष्य 6 महीने के लिए आता है तो कोई एक महीने के लिए. वहीं बनारस घराने से जुड़े तबला सम्राट पंडित किशन महाराज के शिष्य पंडित अमित कुमार मिश्रा का कहना है कि बनारस घराने में तबला अपने आप में एक अलग ही हैसियत रखता है.

छोटे कलाकारों की सरकार नहीं करती मदद : अमित कुमार ने बताया कि यहां के प्रख्यात तबला वादकों ने पूरे विश्व में बनारस घराने का लोहा मनवाया. संगीतकारों के साथ शास्त्रीय गायकों और अलग-अलग वाद्य यंत्रों को बजने वाले लोगों ने बनारस घराने को बुलंदियों पर पहुंचाया. अब यह घराना कुछ लोगों के हाथों की कठपुतली बन कर रह गया है. सरकार भी कुछ नामचीन लोगों और उनके परिवार के लोगों को ही तवज्जो देती है. यदि आप किसी बड़े परिवार से हैं तो आपको सरकारी मदद भी मिलती है और प्लेटफार्म भी, लेकिन कोई छोटे कलाकार हैं या छोटे परिवार से जुड़े हैं तो महत्व नहीं मिलता.

बनारस संगीत घराना
बनारस संगीत घराना (Photo Credit; ETV Bharat)

कार्यक्रम न मिलने से युवा पीढ़ी मायूस : अमित कुमार का कहना है कि सबसे बड़ी जरूरत है अपना पेट भरने की. जब पेट खाली रहेगा तो कलाकार क्या करेगा, चाह कर भी लोग बनारस घराने और उसकी परंपरा को संभाल कर रखने का काम नहीं कर पा रहे हैं. युवा पीढ़ी सीख तो रही है, लेकिन प्रोग्राम न मिलने की वजह से मायूस हो जा रही है. फिर किसी दूसरे काम में लग जा रही है. ऐसे में जरूरत है. इसको संरक्षित और सुरक्षित करने की ताकि बनारस घराना मजबूती के साथ खड़ा हो और फिर से पूरे विश्व में इसका नाम हो सके.

संगीत की कई अलग-अलग विधाएं : बनारस घराने में संगीत की भी कई अलग-अलग विधाएं हैं. इसमें ध्रुपद, ठुमरी ख्याल और कई अलग-अलग तरह शास्त्री गायन शामिल हैं. बनारस की ठुमरी पंडित जगदीप मिश्र से शुरू हुई. पंडित जगदीप मिश्र, भैया गणपतराव एवं मौजुद्दीन खान के समय से ठुमरी के गाने का प्रचलन बढ़ा. बनारस में इसका अत्यधिक प्रचार-प्रसार हुआ. यही ठुमरी पूरब की बोलियाां, लोकगीतों के प्रभाव से और अधिक भाव प्रधान हो गई, और अंत में बनारसी ठुमरी के नाम से विख्यात हुई. बनारस घराने का ख्याल शैली में भी महत्त्वपूर्ण योगदान है. इस गायन पद्धति में शब्द का स्पष्ट उच्चारण किया जाता है.

भावनाओं को स्वरों के माध्यम से सशक्त रूप से प्रकट किया जाता है. बनारस घराने के गायक ख्याल गायन के लिए विशेष तौर पर पहचाने जाते हैं. ख्याल का तात्पर्य कल्पना से है. इसका अभिव्यक्तिकरण विविधता से और सावधानी पूर्वक किया जाना चाहिए. ख्याल गायन ख्याल वर्षों की प्राचीन परंपरा है. यह प्राचीन परंपरा मुगल बादशाहों के दरबार में ध्रुपद पद्धति से गाई जाती थी. बनारस घराने के ख्याल गायन में बनारस एवं गया की ठुमरी का समावेश है.

तबला वादन में भी बनारस घराने का बढ़ा रुतबा : इस घराने की तबला वादक प्रस्तुति की अपनी एक स्वतंत्र पद्धति रही है. पंडित राम सहाय ने तबले की इस विरासत को मजबूती के साथ प्रस्तुत किया. लगभग 200 साल पहले बनारस घराने में तबले को एक अलग ही स्थान मिला. उन्होंने अपनी कला का प्रदर्शन लोगों के सामने बंद कर अपना ध्यान तबला वादन की नई पद्धति की खोज करने में केंद्रित किया. इन्होंने तबले पर हाथ रखने की पद्धति और अंगुलियां का प्रयोग नए ढंग से करके तबला वादन की नई पद्धति की खोज की. इसका नाम बनारसी बाज पड़ा. इस पद्धति का उपयोग एकल वादन के साथ ध्रुपद गायन, जो पखावज के साथ गाया जाता है, ठुमरी, टप्पा और अनेक प्रकार के वाद्यों के साथ संगत में होने लगा.

जानिए घराने के कुछ संगीतज्ञों के नाम : शहनाई वादक में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, पंडित रामसहाय मिश्र (जिन्होंने ‘बनारसी बाज’ का शोध किया था). तबला वादन में पंडित कंठे महाराज, पंडित अनोखे लाल, पंडित किशन महाराज एवं पंडित गुदई महाराज शामिल रहे. पखावज और मृदंग वादन में पंडित मदन मोहन, पंडित भोलानाथ पाठक और पंडित अमरनाथ मिश्र का नाम लिया जाता है. सुप्रसिद्ध सितार वादक पंडित रविशंकर का जन्म भी बनारस में हुआ. संतूर वादक पंडित शिवकुमार शर्मा के पिता पंडित अमर दत्त शर्मा ने बनारस घराने के महान गायक पंडित बड़े रामदास जी से शिक्षा प्राप्त की थी.

बनारस घराने के नामी शख्सियत : बनारस घराना सारंगी वादकों के लिए भी प्रसिद्ध रहा है. इसमें पं. शम्भू सुमीर, गोपाल मिश्र, हनुमान प्रसाद मिश्र, नारायण विनायक और वर्तमान में पंडित कन्हैयालाल मिश्र का नाम सर्वोपरि है. बनारसी ठुमरी एवं ख्याल गायन यहां की विशिष्ट पद्धति है. ठुमरी गायिकाओं में रसूलन बाई, बड़ी मोती बाई, सिद्धेश्वरी देवी और गिरिजा देवी प्रमुख हैं. ख्याल गायन में पंडित बड़े रामदास जी, पंडित छोटे रामदास जी, पंडित महादेव प्रसाद मिश्र, पंडित राजन-साजन मिश्र प्रसिद्ध रहे. पंडित राजन मिश्रा के निधन के बाद पंडित सजन मिश्रा अभी भी इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं. हालांकि समय के साथ उन्होंने भी बनारस से दूरी बनाई और बनारस से बाहर जाकर रहने लगे हैं, लेकिन समय-समय पर उनका काशी आगमन होता है.

कम समय में बहुत कुछ सीखना मुमकिन नहीं : प्रसिद्ध सारंगी वादक और काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संगीत विभाग से रिटायर्ड पंडित कन्हैयालाल मिश्र का कहना है कि आज हर कोई अपने पेट को भरने के लिए परेशान है. यही वजह है कि अब लोग बनारस को छोड़कर बाहर जाने पर मजबूर हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे घराने से जुड़े जो बच्चे हैं, उनको तो हम जबरदस्ती या फिर प्रेशर डालकर संगीत की शिक्षा दे देते हैं, लेकिन बाहर से आने वाले जो बच्चे या विदेशी शिष्य हैं, वह कम समय में ही सब कुछ सीखने की ललक रखते हैं. आते हैं, जल्दी-जल्दी में सीख कर चले जाते हैं. फिर किसी बड़े प्लेटफार्म पर अपनी प्रस्तुतियां देकर अपनी ही वाहवाही करते हैं.

कई हस्तियों ने हासिल किया बड़ा मुकाम.
कई हस्तियों ने हासिल किया बड़ा मुकाम. (Photo Credit; ETV Bharat)

इंस्टीट्यूट नहीं तैयार कर पा रहे उम्दा कलाकार : कन्हैयालाल मिश्र बताते हैं कि अब तो शिष्यों के द्वारा किसी कार्यक्रम के पहले अपने गुरुओं का नाम भी नहीं लिया जाता, जबकि पहले की यह परंपरा नहीं थी. गुरु का नाम कान पकड़ कर लेना ही अपने आप में उसे कार्यक्रम की सफलता की शुरुआत मानी जाती थी. अब इंस्टीट्यूशंस भी उसे तरह के कलाकारों को तैयार नहीं कर पा रहे हैं. अलग-अलग विश्वविद्यालयों, विद्यालयों या प्राइवेट इंस्टीट्यूशंस सिर्फ और सिर्फ कमाई के लिए एडमिशन ले रहे हैं. संगीत की शिक्षा जब तक रियाज के साथ न दी जाए तब तक इसे पूरा नहीं माना जाता.

किताबी ज्ञान से संगीत नहीं सीखा जा सकता है : वह बताते हैं कि पढ़ाई और किताबों के ज्ञान से संगीत नहीं सीखा जा सकता है. इसे सीखने के लिए समय और अपना तन, मन देना होता है. जब तन-मन देंगे तो ही आप धन कमा पाएंगे, लेकिन आज तो स्थिति यह है कि संगीत सीखने का समय किसी के पास नहीं है. बस सभी लोग धन के पीछे भाग रहे हैं. जिसके कारण अब यह विरासत धीरे-धीरे बनारस से दूर होती दिखाई दे रही है. संगीत की शिक्षा ले रही नई पीढ़ी भी कहीं न कहीं पाश्चात्य और स्पीड म्यूजिक को बनारस घराने से युवाओं की दूरी को बड़ी वजह मान रही है.

बड़े रामदास जी परिवार से जुड़े नई पीढ़ी को संजोकर रखने वाले शास्त्रीय गायक पंडित आर्यन मिश्रा अब युवा पीढ़ी के उन गायको में शामिल हैं. जिन्हें ऑल इंडिया रेडियो की तरफ से भी मौका दिया गया है, लेकिन अनूप का मानना है कि आज तेजी से बदल रहे संगीत के तरीकों ने पाश्चात्य संगीत को बढ़ावा दिया है. युवा इन संगीत विधाओं की तरफ दौड़ रहा है.

सितारवादक बोले- वक्त के साथ बदलने की जरूरत : अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बनारस घराने को एक अलग पहचान दिलाने वाले प्रसिद्ध सितारवादक पंडित देवव्रत मिश्र का कहना है कि बनारस घराने का इतिहास बहुत ही समृद्ध है, इसे कमजोर करना बहुत मुश्किल है. बदलते वक्त के साथ हमें भी बदलने की जरूरत है. गुरुओं ने जिस तरह से पहले इसकी शुरुआत की, उसमें तमाम बदलाव आए हैं, उसी हिसाब से अब बदलने की जरूरत महसूस हो रही है. आज की युवा पीढ़ी तमाम बदलावों के साथ चीजों को स्वीकार करती है. इसलिए थोड़े बदलाव हो जैसे आधुनिकता के साथ संगीत और इंस्ट्रूमेंट के इस्तेमाल को भी स्वीकार किया जाए.

संगीत को लोगों तक पहुंचाने के लिए सोशल मीडिया जरूरी : अब संगीत को घर-घर तक पहुंचाने के लिए सोशल मीडिया बहुत बड़ा प्लेटफार्म है. उसका इस्तेमाल भी होना चाहिए हालांकि उनका कहना है कि अब कम समय में सीखने की चाहत कहीं न कहीं से इस घराने को नुकसान पहुंचा रही है. पहले एक-एक राग सीखने में 8 साल का समय लगता था अब तो बच्चे 8 दिन में ही सब कुछ सीखना चाहते हैं.कुल मिलाकर यदि बात की जाए तो बनारस की इस समृद्ध और संपन्न संगीत संगीत परंपरा को बचाना बेहद जरूरी है.

युवाओं को समझनी होगी अपनी जिम्मेदारी : बनारस घराने से निकले बड़े संगीतकारों और नई-नई विधाओं के बल पर संगीत पर एक अलग मुकाम हासिल हुआ. बनारस घराने से निकले संगीतकारों और गायकों ने विश्व स्तर पर भारत की परंपरा और संगीत विरासत को मजबूती दी, लेकिन अब यह टूट रही परंपरा मजबूत तभी होगी जब युवा पीढ़ी अपने पुरानी विरासत को समझ कर इसे बढ़ाने का प्रयास करेगी. पाश्चात्य संस्कृति और संगीत के साथ शास्त्रीय संगीत कि परंपरा को संरक्षित करने के लिए युवा पीढ़ी को अपने जरिए प्रयास करने होंगे.

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