खंडेला (सीकर). जिले के खंडेला कस्बे सहित आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में बुधवार को जन्माष्टमी पर्व बड़े ही सादगी से मनाया गया. कस्बे में स्थित बिहारी जी के मंदिर में जन्माष्टमी पर्व पर हर बार विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन होता है, जिसमें काफी संख्या में श्रद्धालु भाग लेते हैं. लेकिन इस बार कोरोना महामारी के कारण मंदिर परिसर में सिर्फ साज सजावट कर सूक्ष्म रूप से ही जन्माष्टमी मनाई गई. मंदिर समिति के लोगों ने पूजन कर प्रसाद बांटा.
बता दें कि मंदिर परिसर में जन्मोत्सव दोपहर और रात्रि में मनाया जाता है. दोनों समय मंदिर परिसर में भजन होता है, जिसमें काफी संख्या में भक्तगण उपस्थित रहते हैं. भगवान बिहारी जी की मूर्ति को सुबह 108 प्रकार की जड़ी बूटियों से स्नान करवाया जाता है. उसके बाद सजावट का कार्य किया जाता है.
बिहारी जी के मंदिर का इतिहास
बिहारी मंदिर के पुजारी बिहारीलाल पारीक ने बताया कि करमैति बाई उनके परिवार की सदस्य थीं, वे परशुराम जी के वंशज है. परशुराम जी करमैति बाई के पिता थे और राज दरबार में राजपुरोहित भी थे. करमैति बाई की माता गृहणी थी और उनके पांच भाई-बहन थे, जिनमें वह सबसे बडी थी.
परिवार के बुजुर्गों का कहना है कि करमैति बाई भगवान कृष्ण की परमभक्त थीं. बाल्यावस्था से ही उनमें कृष्ण की भक्ति करने की भावना जागृत थी. उस समय बाल्यावस्था में ही विवाह कर दिया जाता था. ऐसा ही करमैति बाई के साथ हुआ. उनका विवाह सांगानेर (जयपुर) के जोशी परिवार में 12 वर्ष की उम्र में उनकी इच्छा के विरुद्ध कर दिया गया.
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इसके बाद जब करमैति बाई के ससुराल वाले उन्हें लेने के लिए आए तो उन्होंने उनके साथ जाने से इंकार कर दिया और कहा कि उनके पति भगवान श्रीकृष्ण ही हैं. उनका कोई ससुराल नहीं है. परिवार वालों ने बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन वे अपनी बात पर अडिग रहीं. इसके बाद परिवार वालों ने उन्हें घर के एक कमरे में बंद कर दिया. उस रात कमरे का दरवाजा अपने से ही खुल गया और करमैति बाई वृंदावन जाने के लिए घर से निकल गईं. इसके बाद जब ससुराल वालों को इसकी सूचना मिली तो उन्होंने इसकी सूचना राजा प्रताप सिंह को दी. इसके बाद राजा के घुड़सवारों को उनका पीछा करने के लिए भेजा गया.
इस दौरान घुड़सवारों की पद चाल सुनकर करमैति बाई को लगा कि उनका पीछा किया जा रहा है. वहां पर छुपने के लिए भी कोई जगह नहीं थी. तभी उन्होंने एक ऊंट मरा हुआ देखा, जिससे काफी दुर्गंध आ रही थी.करमैति बाई दुर्गंध की परवाह किए बिना मरे हुए ऊंट के कंकाल में तीन दिन तक छिपी रहीं. उसके बाद एक दिन साधु-संतों का एक समूह हरिद्वार जा रहा था तो वह उनके साथ रवाना हो गई. वहां से गंगा स्नान कर वृंदावन आईं और ब्रंहाकुण्ड के पास अपनी कुटिया बनाकर भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन हो गईं.
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इस बीच वृंदावन से खण्डेला आने वालों से सूचना मिली कि करमैति बाई वृन्दावन में हैं. इस पर उनके पिता और राजा उन्हें लाने के लिए वृंदावन गए, लेकिन उन्होंने वापस आने से साफ मना कर दिया. तब उनके पिता ने कहा कि वो खंडेला जाकर क्या कहेंगे, इस पर उन्होंने ब्रह्मकुंड से एक मूर्ति निकालकर अपने पिता को दी और कहा कि इन्हें साथ ले जाइए. मूर्ति का नाम उन्होंने बिहारी जी दिया.
इसके साथ ही एक मूर्ति राधा जी की भी प्रतीक के रूप में दी. यह अभी भी मंदिर में बिहारी जी की मूर्ति के साथ विराजमान हैं, जिसके दर्शन भक्तों को सिर्फ राधाष्टमी के दिन ही होते हैं. इस पर उनके पिता और राजा खंडेला लौटे और मंदिर का निर्माण करवाया. इसे आज बिहारी जी के मंदिर के नाम से जाना जाता है.