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कोरोना के बाद कम हुआ देहदान, लावारिस शवों पर निर्भरता...नए मेडिकल कॉलेज में ज्यादा संकट

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Published : Jan 6, 2023, 7:44 PM IST

Updated : Jan 7, 2023, 9:36 AM IST

मेडिकल कॉलेजों में स्टूडेंट्स को पढ़ाने के लिए शव की कमी (Medical students upset in Rajasthan) बनी हुई है. जिसमें प्रदेश के नए मेडिकल कॉलेजों के हालात और ज्यादा खराब हैं. छोटे जिले होने के चलते वहां देहदान भी न के बराबर होती हैं. साथ ही लावारिस लाश भी नहीं मिल पा रही हैं. जिसका सीधा असर मेडिकल छात्रों की पढ़ाई पर पड़ रहा है.

Dead Body Donation
कोरोना के बाद कम हुआ देहदान
कोरोना के बाद कम हुआ देहदान

कोटा/झालावाड़. कोविड-19 के बाद प्रदेश के मेडिकल (Dead body donation decreased after Corona) कॉलेजों को मृत देह के रूप में मिलने वाले कैडेवर में काफी कमी आ गई है. जिसके चलते हालात ऐसे हो गए हैं कि कई मेडिकल कॉलेजों में स्टूडेंट्स को पढ़ाने के लिए शव तक नहीं है. जिसमें प्रदेश के नए मेडिकल कॉलेजों की तो हालत और ज्यादा खराब है. छोटे जिले होने के चलते वहां न तो देहदान के प्रति जागरूकता है और दूसरी तरफ लावारिस शव भी इतनी मात्रा में नहीं मिलते हैं. जिनका उपयोग मेडिकल कॉलेज के एनाटॉमी डिपार्टमेंट (crisis in new medical college) फर्स्ट ईयर के एमबीबीएस स्टूडेंट्स को पढ़ाने में कर सकें. नेशनल मेडिकल कमिशन (पहले मेडिकल काउंसलिंग ऑफ इंडिया ) की गाइड लाइन के अनुसार एनाटॉमी डिपार्टमेंट में शरीर की रचना पढ़ाने के लिए एमबीबीएस के प्रथम वर्ष के प्रत्येक 10 विद्यार्थियों पर एक शव की आवश्यकता है. हालांकि ऐसा सभी मेडिकल कॉलेजों में होता संभव नजर नहीं आ रहा है.

राजस्थान के नए मेडिकल कॉलेजों में तो हालात ज्यादा खराब हैं. झालावाड़ मेडिकल कॉलेज में केवल चार से पांच शव हैं जबकि वहां पर 200 विद्यार्थियों का बैच है. कोटा मेडिकल कॉलेज की स्थिति थोड़ी बेहतर है, यहां 10 से 12 शव हैं जबकि यहां पर 250 विद्यार्थियों का बैच है. झालावाड़ मेडिकल (Decline in body donation in Rajasthan) कॉलेज के डीन डॉ. शिव भगवान शर्मा का मानना है कि शवों की कमी झालावाड़ मेडिकल कॉलेज ही नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों में बनी हुई है.

इसे भी पढ़ें - Special: ज्यादा फीस देने वाले स्टूडेंट्स को NEET UG में 93 नंबर लाने पर भी मिल गई MBBS सीट

छोटे जिलों में नहीं होते देहदान: प्रदेश में पहले संभाग मुख्यालय पर ही मेडिकल कॉलेज थे, लेकिन अब जिला मुख्यालय पर भी मेडिकल कॉलेज खोलने की प्रक्रिया जारी है. लेकिन कई जिले इतने छोटे हैं कि वहां देहदान के प्रति जागरूकता कम है. इनमें भीलवाड़ा, डूंगरपुर, चूरू, भरतपुर, बाड़मेर, सीकर, झुंझुनू, झालावाड़, सिरोही, पाली और चित्तौड़गढ़ शामिल हैं. इसके अलावा बूंदी और बारां में भी मेडिकल कॉलेजों के लिए प्रक्रिया (Lack of dead bodies in medical colleges) चालू है. भूमि का आवंटन हो चुका है. ऐसे में वहां भी आगामी एक-दो साल में मेडिकल कॉलेज शुरू होंगे. लेकिन देहदान के प्रति जागरूकता वहां भी नहीं है. ऐसे में इन मेडिकल कॉलेजों को कैडेवर के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ रही है. यहां पर काफी कमी मेडिकल कॉलेजों में कैडेवर की बनी हुई है.

पहले 7 देहदान, अब 2 के आसपास सालाना: कोटा मेडिकल कॉलेज को जहां साल 2018 और 2019 में क्रमशः 7 और 5 शव देहदान के रूप में मिले थे. इसी तरह से कोविड-19 शुरू होने के पहले मार्च 2020 में 3 बॉडी डोनेशन मेडिकल कॉलेज कोटा में हो गए थे. लेकिन उसके बाद बॉडी डोनेशन होना बंद हो गया. कोरोना काल में ही 2020 में जून महीने में मेडिकल कॉलेज कोटा को एक शव मिला था. वहीं साल 2021 में दो डोनेशन हुए हैं. इसी तरह से 2022 में भी केवल दो डोनेशन हुए हैं. कोविड-19 के बाद महज पांच बॉडी ही कोटा मेडिकल कॉलेज को बीते 3 सालों में मिली है. यहां पर जरूरत हर साल 10 से 12 मृत देह की है, जिसके लिए लावारिस शवों पर ही निर्भरता है.

वृद्धा आश्रम से सरकार दिलाए शव: झालावाड़ मेडिकल कॉलेज के डीन डॉ. शिव भगवान शर्मा ने तो इसके लिए राज्य सरकार को पत्र लिखा है. साथ ही उन्होंने यह भी मांग की है कि भरतपुर स्थित अपना घर आश्रम में बड़ी संख्या में लोग रहते हैं. जिनमें हर महीने करीब 30 से 40 लोगों की मौत होती है. ऐसे में वहां से बॉडी डोनेशन के रूप में मेडिकल कॉलेज को मिल सकती (Problems of medical colleges in Rajasthan) है. डीन डॉ. शर्मा का कहना है कि हमने भरतपुर अपना घर आश्रम में संपर्क किया था, उन्होंने काफी रुचि दिखाई है और वह संतुष्ट भी हैं. मेडिकल कॉलेज को यह शव काम आ सकते हैं. हमने ऐसा प्रस्ताव बनाकर सरकार को भेजा है. वहां से डेड बॉडी हमें मिल सकती हैं. इस विषय में अभी सरकार से हमारी बात चल रही है.

दूसरी जगह से शव लाने में खर्च होते हैं हजारों रुपए: झालावाड़ मेडिकल कॉलेज के डीन डॉ. शिव भगवान शर्मा ने राज्य सरकार को पत्र लिखा है. जिसमें भरतपुर और प्रदेश के अन्य जिलों में संचालित हो रहे अपना घर आश्रम में रहने वाले लोगों की मृत्यु के बाद उनके शव मेडिकल कॉलेज को मिल सकते हैं, लेकिन इसके लिए एक लंबी प्रक्रिया से गुजरना होगा. साथ ही जिन जगह यह आश्रम स्थित हैं, वहां से मेडिकल कॉलेज तक शव पहुंचाने के लिए हजारों रुपए का खर्चा भी होगा. ऐसे में इस खर्चे को कौन वहन करेगा, यह भी एक जद्दोजहद है.

लावारिस शव का संकट : एक्सपर्ट्स का मानना है कि कोटा और बड़े शहरों में लावारिस शव बड़ी संख्या में मिलते हैं. जबकि छोटे शहरों और जिलों में यह संख्या कम होती है, क्योंकि वहां जनसंख्या कम है. लोग लावारिस मिलने वाली बॉडी को पहचान लेते हैं. इस वजह से मेडिकल कॉलेजों के एनाटॉमी डिपार्टमेंट को दिक्कतें पेश आ रही हैं. कई जिलों में लावारिस शवों के अंतिम संस्कार के लिए कई संस्थाएं काम करती हैं. यह संस्थाएं लावारिस शव मिलने पर उनके अंतिम संस्कार कर देती हैं. इन शव का उपयोग पूरी कानूनी प्रक्रिया और सरकारी गाइडलाइन के अनुसार मेडिकल कॉलेजों में किया जा सकता है. पुलिस अधिकारियों को भी शवों को मेडिकल कॉलेज पहुंचाने में मदद करनी चाहिए.

देहदान में मिले शव सबसे ज्यादा उपयुक्त : मेडिकल कॉलेज कोटा की एनाटॉमी विभाग की सीनियर प्रोफेसर और एडिशनल प्रिंसिपल डॉ. प्रतिमा जायसवाल का मानना है कि देहदान में मिले शव मृत्यु के कुछ घंटों बाद ही उन्हें प्राप्त हो जाते हैं. जिनका केमिकल से संलेपन कार्य समय से हो जाता है. इससे यह शव खराब नहीं होते हैं और इनका पूरा उपयोग भी स्टूडेंट्स की पढ़ाई में किया जा सकता है. जबकि लावारिस शवों में पहले पुलिस 48 घंटे तक उनका परिजनों का पता लगाती है. परिजन का पता नहीं चलता, उसके बाद पूरी प्रक्रिया के अनुसार मेडिकल कॉलेज को सुपुर्द किया जाता है. हालांकि, इस दौरान शव को ठीक से नहीं रखा जाता है, तब वह सड़ना शुरू हो जाते हैं. इससे इंफेक्शन का खतरा भी होता है. इसीलिए देहदान के प्रति जागरूकता भी हमें बढ़ानी होगी.

कोरोना के बाद कम हुआ देहदान

कोटा/झालावाड़. कोविड-19 के बाद प्रदेश के मेडिकल (Dead body donation decreased after Corona) कॉलेजों को मृत देह के रूप में मिलने वाले कैडेवर में काफी कमी आ गई है. जिसके चलते हालात ऐसे हो गए हैं कि कई मेडिकल कॉलेजों में स्टूडेंट्स को पढ़ाने के लिए शव तक नहीं है. जिसमें प्रदेश के नए मेडिकल कॉलेजों की तो हालत और ज्यादा खराब है. छोटे जिले होने के चलते वहां न तो देहदान के प्रति जागरूकता है और दूसरी तरफ लावारिस शव भी इतनी मात्रा में नहीं मिलते हैं. जिनका उपयोग मेडिकल कॉलेज के एनाटॉमी डिपार्टमेंट (crisis in new medical college) फर्स्ट ईयर के एमबीबीएस स्टूडेंट्स को पढ़ाने में कर सकें. नेशनल मेडिकल कमिशन (पहले मेडिकल काउंसलिंग ऑफ इंडिया ) की गाइड लाइन के अनुसार एनाटॉमी डिपार्टमेंट में शरीर की रचना पढ़ाने के लिए एमबीबीएस के प्रथम वर्ष के प्रत्येक 10 विद्यार्थियों पर एक शव की आवश्यकता है. हालांकि ऐसा सभी मेडिकल कॉलेजों में होता संभव नजर नहीं आ रहा है.

राजस्थान के नए मेडिकल कॉलेजों में तो हालात ज्यादा खराब हैं. झालावाड़ मेडिकल कॉलेज में केवल चार से पांच शव हैं जबकि वहां पर 200 विद्यार्थियों का बैच है. कोटा मेडिकल कॉलेज की स्थिति थोड़ी बेहतर है, यहां 10 से 12 शव हैं जबकि यहां पर 250 विद्यार्थियों का बैच है. झालावाड़ मेडिकल (Decline in body donation in Rajasthan) कॉलेज के डीन डॉ. शिव भगवान शर्मा का मानना है कि शवों की कमी झालावाड़ मेडिकल कॉलेज ही नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों में बनी हुई है.

इसे भी पढ़ें - Special: ज्यादा फीस देने वाले स्टूडेंट्स को NEET UG में 93 नंबर लाने पर भी मिल गई MBBS सीट

छोटे जिलों में नहीं होते देहदान: प्रदेश में पहले संभाग मुख्यालय पर ही मेडिकल कॉलेज थे, लेकिन अब जिला मुख्यालय पर भी मेडिकल कॉलेज खोलने की प्रक्रिया जारी है. लेकिन कई जिले इतने छोटे हैं कि वहां देहदान के प्रति जागरूकता कम है. इनमें भीलवाड़ा, डूंगरपुर, चूरू, भरतपुर, बाड़मेर, सीकर, झुंझुनू, झालावाड़, सिरोही, पाली और चित्तौड़गढ़ शामिल हैं. इसके अलावा बूंदी और बारां में भी मेडिकल कॉलेजों के लिए प्रक्रिया (Lack of dead bodies in medical colleges) चालू है. भूमि का आवंटन हो चुका है. ऐसे में वहां भी आगामी एक-दो साल में मेडिकल कॉलेज शुरू होंगे. लेकिन देहदान के प्रति जागरूकता वहां भी नहीं है. ऐसे में इन मेडिकल कॉलेजों को कैडेवर के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ रही है. यहां पर काफी कमी मेडिकल कॉलेजों में कैडेवर की बनी हुई है.

पहले 7 देहदान, अब 2 के आसपास सालाना: कोटा मेडिकल कॉलेज को जहां साल 2018 और 2019 में क्रमशः 7 और 5 शव देहदान के रूप में मिले थे. इसी तरह से कोविड-19 शुरू होने के पहले मार्च 2020 में 3 बॉडी डोनेशन मेडिकल कॉलेज कोटा में हो गए थे. लेकिन उसके बाद बॉडी डोनेशन होना बंद हो गया. कोरोना काल में ही 2020 में जून महीने में मेडिकल कॉलेज कोटा को एक शव मिला था. वहीं साल 2021 में दो डोनेशन हुए हैं. इसी तरह से 2022 में भी केवल दो डोनेशन हुए हैं. कोविड-19 के बाद महज पांच बॉडी ही कोटा मेडिकल कॉलेज को बीते 3 सालों में मिली है. यहां पर जरूरत हर साल 10 से 12 मृत देह की है, जिसके लिए लावारिस शवों पर ही निर्भरता है.

वृद्धा आश्रम से सरकार दिलाए शव: झालावाड़ मेडिकल कॉलेज के डीन डॉ. शिव भगवान शर्मा ने तो इसके लिए राज्य सरकार को पत्र लिखा है. साथ ही उन्होंने यह भी मांग की है कि भरतपुर स्थित अपना घर आश्रम में बड़ी संख्या में लोग रहते हैं. जिनमें हर महीने करीब 30 से 40 लोगों की मौत होती है. ऐसे में वहां से बॉडी डोनेशन के रूप में मेडिकल कॉलेज को मिल सकती (Problems of medical colleges in Rajasthan) है. डीन डॉ. शर्मा का कहना है कि हमने भरतपुर अपना घर आश्रम में संपर्क किया था, उन्होंने काफी रुचि दिखाई है और वह संतुष्ट भी हैं. मेडिकल कॉलेज को यह शव काम आ सकते हैं. हमने ऐसा प्रस्ताव बनाकर सरकार को भेजा है. वहां से डेड बॉडी हमें मिल सकती हैं. इस विषय में अभी सरकार से हमारी बात चल रही है.

दूसरी जगह से शव लाने में खर्च होते हैं हजारों रुपए: झालावाड़ मेडिकल कॉलेज के डीन डॉ. शिव भगवान शर्मा ने राज्य सरकार को पत्र लिखा है. जिसमें भरतपुर और प्रदेश के अन्य जिलों में संचालित हो रहे अपना घर आश्रम में रहने वाले लोगों की मृत्यु के बाद उनके शव मेडिकल कॉलेज को मिल सकते हैं, लेकिन इसके लिए एक लंबी प्रक्रिया से गुजरना होगा. साथ ही जिन जगह यह आश्रम स्थित हैं, वहां से मेडिकल कॉलेज तक शव पहुंचाने के लिए हजारों रुपए का खर्चा भी होगा. ऐसे में इस खर्चे को कौन वहन करेगा, यह भी एक जद्दोजहद है.

लावारिस शव का संकट : एक्सपर्ट्स का मानना है कि कोटा और बड़े शहरों में लावारिस शव बड़ी संख्या में मिलते हैं. जबकि छोटे शहरों और जिलों में यह संख्या कम होती है, क्योंकि वहां जनसंख्या कम है. लोग लावारिस मिलने वाली बॉडी को पहचान लेते हैं. इस वजह से मेडिकल कॉलेजों के एनाटॉमी डिपार्टमेंट को दिक्कतें पेश आ रही हैं. कई जिलों में लावारिस शवों के अंतिम संस्कार के लिए कई संस्थाएं काम करती हैं. यह संस्थाएं लावारिस शव मिलने पर उनके अंतिम संस्कार कर देती हैं. इन शव का उपयोग पूरी कानूनी प्रक्रिया और सरकारी गाइडलाइन के अनुसार मेडिकल कॉलेजों में किया जा सकता है. पुलिस अधिकारियों को भी शवों को मेडिकल कॉलेज पहुंचाने में मदद करनी चाहिए.

देहदान में मिले शव सबसे ज्यादा उपयुक्त : मेडिकल कॉलेज कोटा की एनाटॉमी विभाग की सीनियर प्रोफेसर और एडिशनल प्रिंसिपल डॉ. प्रतिमा जायसवाल का मानना है कि देहदान में मिले शव मृत्यु के कुछ घंटों बाद ही उन्हें प्राप्त हो जाते हैं. जिनका केमिकल से संलेपन कार्य समय से हो जाता है. इससे यह शव खराब नहीं होते हैं और इनका पूरा उपयोग भी स्टूडेंट्स की पढ़ाई में किया जा सकता है. जबकि लावारिस शवों में पहले पुलिस 48 घंटे तक उनका परिजनों का पता लगाती है. परिजन का पता नहीं चलता, उसके बाद पूरी प्रक्रिया के अनुसार मेडिकल कॉलेज को सुपुर्द किया जाता है. हालांकि, इस दौरान शव को ठीक से नहीं रखा जाता है, तब वह सड़ना शुरू हो जाते हैं. इससे इंफेक्शन का खतरा भी होता है. इसीलिए देहदान के प्रति जागरूकता भी हमें बढ़ानी होगी.

Last Updated : Jan 7, 2023, 9:36 AM IST
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