कोटा. देश की सबसे बड़ी मंडी कोटा की भामाशाह कृषि उपज मंडी है. जहां पर हर साल करीब 7000 करोड़ का कारोबार होता है. साथ हीरोज सीजन के समय करीब 5 लाख बोरियों की लोडिंग और अनलोडिंग होती है. इसका पूरा काम बिहार के मजदूरों पर निर्भर है, बिहार के मजदूर कोटा में आकर मजदूरी नहीं करें, तब मंडी को चलाना मुश्किल हो जाता है. बिहार, उड़ीसा और वेस्ट बंगाल के श्रमिकों की संख्या करीब 80 फीसद है. इनकी कमी होने पर मंडी व्यापारी से लेकर मंडी संचालन तक का कार्य बाधित हो जाता है.
भामाशाह कृषि उपज मंडी के सीड्स एंड ग्रेन मर्चेंट एसोसिएशन के अध्यक्ष अविनाश राठी का कहना है कि सरकार की योजनाएं राजस्थान में काफी है, जिनका स्थानीय लोगों को फायदा मिलता है. उनके पास कुछ जमीन भी है, इसीलिए खेती-बाड़ी भी अच्छी हो जाती है. जिस कारण मजदूरी की आवश्यकता नहीं पड़ती है. इसीलिए मंडी की निर्भरता बिहार के मजदूरों पर बढ़ गई है. बिहारी लेबर के बिना कोटा मंडी को चलाना संभव नहीं हैं. लोकल पल्लेदार इतना काम नहीं कर सकते हैं. वे छोटे स्तर पर काम कर सकते हैं या फिर लीडरशिप या ठेकेदारी कर सकते हैं, लेकिन भारी-भरकम बोरी पीठ पर रख कर ट्रक में लोड करने की मजदूरी नहीं कर सकते.
रोज होता है लाखों बोरियों का लदान, नहीं होने पर काम बंद : एसोसिएशन के अध्यक्ष अविनाश राठी ने बताया कि पीक सीजन में 10 से 12 हजार पल्लेदार की आवश्यकता होती है, इनके 80 फीसदी करीब 8 से 9 हजार मजदूर बिहार, उड़ीसा और वेस्ट बंगाल से आते हैं. स्थानीय मजदूरों की संख्या महज तीन से चार हजार ही मंडी में रहती है. राठी ने यह भी बताया कि सीजन के समय लाखों बोरी माल रोज आता है. ऐसे में पूरी मंडी जिंसो से अटी रहती है, माल का उठाव नहीं होने पर मंडी बंद करने की नौबत आ जाती है. अक्टूबर से दिसंबर और मार्च से जुलाई के बीच इन लेबर की ज्यादा जरूरत होती है. अन्य समय भी मजदूर कोटा में ही रहते हैं, लेकिन इनकी संख्या कम हो जाती है. यहां तक की मंडी के आसपास स्थित फैक्ट्री और वेयरहाउस में भी बिहार के मजदूर ही रहकर काम कर रहे हैं. जिनकी संख्या 90 फीसदी है.
6 महीने मिलता है कोटा मंडी में काम : बिहार के सहरसा निवासी कुमोद कुमार का कहना है कि साल 2008 से आ रहा हूं, यहां भराई, चलाई, लोडिंग, अनलोडिंग और सिलाई सब कुछ हम करते हैं. सीजन के पहले करीब 400 से 500 बोरी ट्रक में चढ़ाई जाती है, लेकिन जब पीक सीजन आ जाता है, तब यह दुगनी बोरियां हो जाती है. मंडी में गेहूं और धान का मिलाकर करीब 6 महीने सीजन कोटा में चलता है. इसी समय हम यहां रहते है. सीजन में 900 से 1000 रुपए के बीच मजदूरी बन जाती है. सीजन के पहले और बाद में मजदूरी कम मिलती है, केवल खर्चा ही निकल पाता है. इसीलिए हम वापस बिहार लौट जाते हैं.
रसोईया का पैसा भी निकालते हैं मजदूर : बिहारी मजदूर 10 से 12 से लेकर 20 से 25 लोगों के ग्रुप में आते हैं. इन सब मजदूरों के ग्रुप में एक रसोईया भी साथ होता है. वह इन सब लोगों के लिए सुबह और शाम का खाना बनाता है. जितनी भी मजदूरी इन लोगों को मिलती है, उसका एक हिस्सा रसोइए के खाते में जाता है. अविनाश राठी के अनुसार मजदूरों को बिहार का लोकल फूड देना जरूरी होता है. इससे ही उनकी बॉडी की वर्किंग अच्छी रहती है. इन मजदूरों को भारी काम करना होता है. ऐसा में पूरे किचन का सेटअप जहां पर ये रहते हैं, वहां पर करवाया जाता है.
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2016 से बोरी का वजन किया गया है कम : अविनाश राठी के अनुसार साल 2016 के पहले मजदूरों को करीब 100 किलो तक की बोरी उठानी पड़ती थी. पहले सरसों 80, गेहूं 99 और सोयाबीन 90 किलो बोरी में भरी जाती थी, लेकिन निर्णय लेते हुए इसे आधा कर दिया गया है. इसको 50 किलो किया गया है. लेकिन फिर भी नीचे रखी हुई 50 किलो की बोरी को पीठ पर लेकर ट्रक में डालना होता है, ट्रक में भी 500 बोरी भरनी होती है. इसके लिए बिल्कुल मजबूती की जरूरत होती है. यह काम दिनभर चलता है. पीक सीजन में करीब 5 लाख बोरी की लोडिंग अनलोडिंग होती है.
मंडी में बनी दुकानों में रहते हैं मजदूर : बिहार के मधेपुरा निवासी मजदूर जामुन ऋषि देव का कहना है कि पहले वे पंजाब, यूपी-दिल्ली मजदूरी के लिए जाते थे. जहां अलग-अलग काम होता था. धान काटने से लेकर अन्य कई काम भी करते थे. इसके बाद उनके एक साथी ने कोटा के लिए बात की तब से वे कोटा आ रहे हैं. जामुन ऋषि देव का यह भी कहना है कि कोटा में कुछ मजदूर किराए का कमरा लेकर भी रहते हैं. साथ ही कुछ मजदूर मंडी में ही बनी दुकानों में निवास करते हैं. उन्होंने कहा कि कोटा में रहने की सुविधा मिल जाती है.
मजदूरी करते हुए बन गए ठेकेदार : सालों से कोटा में मजदूरी करने आने वाले कई पल्लेदार अब ठेकेदार भी बन गए हैं. वह लेबर की सभी जिम्मेदारी उठाकर, उन्हें बिहार से कोटा लाकर मजदूरी करवाते हैं. ऐसे ही ठेकेदार मधुसूदन का कहना है कि बिहार से मजदूर को लाना भी एक चैलेंज होता है. पहले घर वालों को विश्वास दिलाना होता है. मजदूर को कोटा लाने पर उसके स्वास्थ्य से लेकर सभी चिंता ठेकेदार ही करता है. यहां तक कि मजदूरों की मजदूरी का हिसाब किताब भी हमें ही रखना होता है. मधुसूदन का खुद कहना है कि वह साल 2009 में कोटा मजदूरी करने के लिए आया था, कई साल मजदूरी करने के बाद वह भी ठेकेदार बन गया. मेरे खुद के अधीन करीब 30 से 40 लोग काम कर रहे हैं. मेरे जैसे करीब 500 के आसपास ठेकेदार हैं.
कोविड-19 का समय स्पेशल पास और बसे भेजकर मंगाया : कोविड-19 के समय मार्च 2020 में लॉकडाउन लग गया था. दूसरी तरफ मंडी भी बंद हो गई, लेकिन किसानों की गेहूं की फसल आ गई थी. ऐसे में उसकी तुलाई शुरू होनी थी. जिसके लिए कोटा की भामाशाह कृषि उपज मंडी में मजदूरों की आवश्यकता थी. बिहार के लेबर आने को तैयार नहीं थे, लेकिन कोटा के व्यापारियों ने मजदूरों से समझाइश की और उनके ठेकेदारों को तैयार किया. यहां पर कोई आने जाने की स्थिति नहीं थी. ट्रेन और बस से लेकर सारे के सारे आवागमन के साधन बंद थे. इसके बाद जिला प्रशासन से बात कर स्पेशल पास जारी कर बसें भेजी गई. मजदूरों को एडवांस भुगतान भी किया गया और लेबर को बुलाकर कोटा में अलग-अलग जगह क्वारंटाइन किया गया. तब कहीं जाकर कोटा में मंडी शुरू हो पाई.