जोधपुर. लोक देवता के रूप में पूजे जाने वाले पाबूजी राठौड़ राजस्थान के एक ऐसे लोक देवता (worship of lokdevta pabuji) हैं, जिन्होंने गौ रक्षार्थ अपने प्राणों की आहुति दे दी (Sacrifice of life for cow protection) थी. वो भी उस दिन जिस दिन उनकी शादी होनी थी. कहा जाता है कि पाबूजी राठौड़ लक्ष्मण के अवतार थे. मारवाड़ में सर्वप्रथम ऊंट लाने का श्रेय भी पाबूजी राठौड़ को ही जाता है. लिहाजा जब ऊंट बीमार पड़ते हैं तो पाबूजी की पूजा की (Pabuji is worshiped on camel ill) जाती है. वहीं, उन्हें ''ऊंटों का देवता'' भी कहा जाता हैं.
पाबूजी का जन्म 13वीं शताब्दी में चेत्र की अमावस्या को हुआ था. इसी दिन इनका फलोदी के कालूमंड में मेला भरता है. मां का नाम कमलादे था. ''पाबू प्रकास'' के रचयिता महाकवि मोडजी आशिया के अनुसार पाबूजी का जन्म संवत 1299 (सन 1242 ई.) में हुआ था. वहीं, कुछ साहित्यों में 1313 ई. में जन्म बताया जाता है. पाबूजी की माता का नाम कमलादे था तो वहीं पाबूजी के भाई का नाम बूढ़ोजी राठौड़ था. उनकी एक बहन भी थी, जिसका विवाह जिंदराव खींची से था. जिंदराव खींची से युद्ध में पाबूजी वीरगति को प्राप्त हुए थे. कहा जाता है कि पाबूजी मारवाड़ में ऊंट लाने के लिए सिंध (Pabuji brought camels to Mewar for first time) गए थे. वहां के लंकेउ गांव के जागीरदार के पास से वो ऊंट लेकर आए थे. उन्हें ऊंट के देवता के साथ ही प्लेग का देवता भी कहा जाता है.
जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय (Jaynarayan Vyas University) के राजस्थानी विभाग के सह आचार्य डॉ. गजेसिंह राजपुरोहित बताते हैं कि पाबूजी ने लोक कल्याण के काम किए थे. इसलिए उनकी आज भी पूजा होती है. जाति प्रथा, छुआछूत (Pabuji was against untouchability) भेदभाव से वो बहुत दूर थे. लोक देवता पाबूजी गौ रक्षक, नारी सम्मान और अछतोद्वारक के रूप में जाने जाते हैं. उन्होंने अस्पृश्य समझी जाने वाली थोरी जाति के 7 भाइयों को न केवल शरण ही दी थी, बल्कि प्रधान सरदारों में भी उन्हें स्थान दिया था.
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ऊंटों के देवता के रूप में भी होती है पूजाः राजस्थान के लोक जीवन में ऊंटों के देवता के रूप में भी इनकी पूजा होती है. माना जाता है कि इनकों मानने पर ऊंटों की रुग्णता दूर हो जाती है. उनके स्वस्थ होने पर भोपे-भोपियां ’पाबूजी की फड़’ गाते हैं. लोक देवता के रूप में पाबूजी का मुख्य स्थान कोलू (फलौदी) में है. जहां हर साल उनकी स्मृति में मेला का आयोजन होता है. उनका प्रतीक चिह्न हाथ में भाला लिए अश्वारोही पाबूजी के रूप में प्रचलित है. भील जाति के लोग उन्हें अपना इष्ट देवता मानते हैं. भील जाति जिसे 'फड़वाले भील' भी कहते हैं, वे एक कपड़े पर पाबूजी के सामाजिक योगदान को चित्र के जरिए दर्शाते हैं. जिसके बाद उस कपड़े को प्रदर्शित कर रातभर उनका गुणगान करते हैं. वहीं, चित्रमय कपड़े को 'पाबूजी की फड़' कहा जाता है.
विवाह के दिन दी प्राणों की आहुति: सह आचार्य डॉ. गजेसिंह राजपुरोहित ने बताया कि पाबूजी राठौड़ का विवाह अमरकोट की सोढ़ा राजकुमारी सुपियारदे से होना था. जिसके लिए वो देवल चारणी से उसकी काले रंग की घोड़ी केसर कालमी को लेकर आए थे. इसके बाद देवल ने उनसे गायों की रक्षा का वचन लिया था. इधर, पाबूजी वचन देकर विवाह करने चले गए. पीछे से उनका बहनोई जिंदराव खींची देवल के पास घोड़ी लेने गया तो उसे पता चला कि पाबूजी उसे लेकर गए हैं. ऐसे में वो देवल की गाय लेकर चला गया. जब अमरकोट में सुपियारदे के साथ पाबूजी फेरे ले ही रहे थे, तभी उन्हें पूरे घटना की जानकारी मिली. ऐसे में वो फेरे को अधूरा छोड़ अपने दो अनुयायियों चांदा और डेरा के साथ निकल गए. इसके बाद उनका जिंदराव खींची से युद्ध हुआ. इस युद्ध में वो गायों को बचाकर ले आए, लेकिन खुद वीरगति को प्राप्त हो गए.
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गोगाजी के समकक्ष हैं पाबूजी: डॉ. गजेसिंह राजपुरोहित ने बताया कि पाबूजी को लोक देवता गोागजी के समकक्ष माना जाता है. कई साहित्यों में दोनों के प्रसंगों का जिक्र भी मिलता है. जिनमें दोनों के आपस में होने वाले विमर्श की भी जानकारी दी गई है. एक बार पाबूजी और गोगाजी आपस में मिले, जहां दोनों ने अपना-अपना शक्ति परीक्षण करना चाहा. गोगाजी ने कहा आप मुझे ढूंढ लें तो मैं आपको गोगामेड़ी का राज्य दे दूंगा और अगर आप हार जाएं तो आपकी भतीजी केलमदे का विवाह मेरे साथ करना होगा. दोनों ने अपना-अपना रूप बदल लिया. पाबूजी मेंढक बनकर पोखर में प्रवेश कर गए तो गोगाजी सर्प बनकर उन्हें पकड़ने के लिए गए. इस प्रकार वे शर्त हार गए और उन्होंने अपनी भतीजी केलमदे का विवाह गोगाजी से तय किया.