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Special : अशोक गहलोत को सचिन पालयट से नहीं वसुंधरा राजे से खतरा, बयानों में छुपा है जादूगर का खौफ

भले ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बिना नाम लिए सचिन पायलट और उनके समर्थक विधायकों पर हमला कर रहे हैं, लेकिन राजस्थान के सियासी जादूगर के निशाने पर वसुंधरा राजे हैं. गहलोत जानते हैं कि अगर भाजपा ने राजे को बतौर फेस मैदान में उतार दिया तो उनकी वापसी दूर की कौड़ी हो जाएगी.

Rajasthan Politics
सीएम अशोक गहलोत को सचिन पालयट से नहीं वसुंधरा राजे से खतरा
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Published : May 8, 2023, 6:16 PM IST

किसने क्या कहा, सुनिए...

जयपुर. राजस्थान में इस बार चाहे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हों या फिर सचिन पायलट, लेकिन सरकार कैसे रिपीट हो इसको लेकर सभी आलाकमान को अपने-अपने सुझाव दे रहे हैं. वहीं, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुट गए हैं. साथ ही गहलोत ये अच्छी तरह से जानते हैं कि सचिन पायलट से तो वो पार्टी के अंदर लड़ लेंगे, लेकिन दो बार पहले भी सरकार रिपीट करने में रोड़ा बनी वसुंधरा राजे उनके लिए चुनौती बन सकती हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि अगर भाजपा ने फिर से राजे को अपना चेहरा बनाया तो गहलोत के लिए पायलट से बड़ा कांटा वसुंधरा राजे ही होंगी.

यही वजह है कि अब सीएम गहलोत ने अपनी चुनावी रणनीति में आमूल चूल परिवर्तन किया है. जिसके तहत अब वो पायलट के साथ ही भाजपा के नेताओं को घेरने में जुट गए हैं. साथ ही सियासी मंचों से सरेआम भाजपा में व्याप्त आपसी गुटबाजी और नेताओं की दूरियों को लेकर बयानबाजी कर रहे हैं. लेकिन उनके बयानों में अब राजे का जिक्र आम हो गया है, क्योंकि राजे ही उनकी राह में असल रोड़ा हैं. जिसे गहलोत भी बखूबी समझ रहे हैं. ऐसे में वसंधुरा को कमजोर करने के लिए वो साम, दाम, दंड और भेद की नीति पर आगे बढ़ रहे हैं.

गहलोत के बयान के सियासी मायने : सीएम गहलोत एक ओर बिना नाम लिए सचिन पायलट के साथ मानेसर जाने वाले विधायकों के गृहमंत्री अमित शाह और केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत से पैसे लेने की बात कहते हैं तो दूसरी ओर पूर्व सीएम वसुंधरा राजे के समर्थन से सरकर बचने तक की बात कहते नजर आए. असल में गहलोत चाहते हैं कि भाजपा किसी भी सूरत में वसुंधरा राजे को अपना चेहरा न बनाए. जिससे नाराज होकर राजे बगावत करें और उसका लाभ उन्हें मिल जाए और उनकी सरकार रिपीट हो जाए. इसी लिए सबूत के तौर पर सामने कर रहे शोभारानी को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जिस तरह से खुलेआम अब यह कहते नजर आ रहे हैं कि वसुंधरा राजे ने उनकी सरकार को समर्थन नहीं दिया होता तो शायद राजस्थान में अमित शाह और गजेंद्र सिंह शेखावत उनकी सरकार गिराने में कामयाब हो जाते.

इसे भी पढ़ें - Rajasthan Politics: सीएम अशोक गहलोत और वसंधुरा राजे के कनेक्शन पर सियासी गलियारों में चर्चा तेज, पहले भी उठ चुके हैं सवाल

राजे की करीबी को बनाया सबूत : इन बयानों के जरिए गहलोत एक ओर तो यह साबित करना चाहते हैं कि अमित शाह की रणनीति को राजस्थान में उन्होंने भाजपा की ही पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के सहयोग से असफल कर दिया. साथ ही सबूत के तौर पर भाजपा की विधायक शोभारानी कुशवाह को पेश कर रहे हैं. जिन्हें गहलोत को समर्थन देने पर भाजपा पार्टी से निष्कासित कर चुकी है. गहलोत शोभा रानी कुशवाहा को एक तरह से उनकी बात की सच्चाई साबित करने के लिए सबूत के तौर पर पेश कर रहे हैं कि वह जो कुछ कह रहे हैं उसमें सच्चाई है. शोभारानी कभी पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की करीबी मानी जाती थी और उन्होंने न केवल मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को समर्थन दिया, बल्कि 25 सितंबर की घटना के बाद वो भी कांग्रेस के उन विधायकों में शामिल थी, जिन्होंने स्पीकर सीपी जोशी को इस्तीफा सौंपा था.

डर से पार पाने की रणनीति : मुख्यमंत्री अशोक गहलोत राजस्थान के तीन बार मुख्यमंत्री बन चुके हैं. लेकिन दो बार वो सरकार रिपीट करवाने में नाकामयाब साबित हुए हैं. हालात यह है कि गहलोत और वसुंधरा राजे जब भी आमने-सामने होते हैं तो गहलोत किसी तरह जोड़ तोड़कर सरकार बना पाते हैं. जबकि वसुंधरा राजे बहुमत से कहीं ज्यादा सीटें जीतकर मुख्यमंत्री बनती हैं. साल 1998 में जब मुख्यमंत्री बने थे तो कांग्रेस की 153 सीटें आई थी, लेकिन जब 2003 में पहली बार वसुंधरा राजे से गहलोत सामना हुआ तो गहलोत की सरकार जनता के दरबार में पूरी तरह से फेल हो गई थी और उन्हें केवल 56 सीटों पर सिमट गई थी.

राजे से गहलोत को बड़ा खतरा : राजे के नेतृत्व में भाजपा 33 सीट से 120 सीट जीतकर सत्ता आई और वसुंधरा मुख्यमंत्री बनीं. साल 2008 में जब विधानसभा चुनाव हुए तो गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस बहुमत के आंकड़े से 5 सीटें कम जीत सकी. जिसके चलते गहलोत ने बहुजन समाज पार्टी के विधायकों को कांग्रेस में शामिल कर व निर्दलीयों का साथ लेकर जोड़तोड़ से किसी तरह सरकार बनाई. जबकि भाजपा कांग्रेस से केवल 18 सीट कम जीत सकी थी, लेकिन जब 2013 में विधानसभा चुनाव हुआ तो राजे की आंधी ऐसी चली कि कांग्रेस पार्टी केवल 21 सीटों पर सिमट कर रह गई. तब राजे के चेहरे पर 163 भाजपा के विधायक चुनाव जीते थे.

आसान नहीं गहलोत की डगर : साल 2018 के विधानसभा चुनाव में फिर गहलोत का सामना वसुंधरा राजे से हुआ तो उस समय तमाम एंटी इनकंबेंसी और जातियों की नाराजगी के बाद भी भाजपा को 73 सीटें मिली. वहीं, गहलोत इस बार भी बहुमत के आंकड़े से एक सीट पीछे रह गए थे और निर्दलीयों के समर्थन से सरकार बना सके. बाद में गहलोत ने बसपा के छह विधायकों का कांग्रेस में विलय करवा लिया, जिससे उनकी संख्या बढ़ गई.

अब एक बार फिर अशोक गहलोत के चेहरे और उनकी योजनाओं के नाम पर चुनाव लड़ने की तैयारी हो रही है. अगर फिर गहलोत का सामना वसुंधरा राजे से होता है तो गहलोत के दिमाग में पिछले चुनाव के नतीजे जरूर रहेंगे. ऐसे में गहलोत नहीं चाहते हैं कि वसुंधरा राजे को भाजपा अपना चेहरा बनाए. उन्हें पता है कि अगर राजे भाजपा की चेहरा बनी तो उनकी दिक्कतें बढ़ सकती है.

किसने क्या कहा, सुनिए...

जयपुर. राजस्थान में इस बार चाहे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हों या फिर सचिन पायलट, लेकिन सरकार कैसे रिपीट हो इसको लेकर सभी आलाकमान को अपने-अपने सुझाव दे रहे हैं. वहीं, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुट गए हैं. साथ ही गहलोत ये अच्छी तरह से जानते हैं कि सचिन पायलट से तो वो पार्टी के अंदर लड़ लेंगे, लेकिन दो बार पहले भी सरकार रिपीट करने में रोड़ा बनी वसुंधरा राजे उनके लिए चुनौती बन सकती हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि अगर भाजपा ने फिर से राजे को अपना चेहरा बनाया तो गहलोत के लिए पायलट से बड़ा कांटा वसुंधरा राजे ही होंगी.

यही वजह है कि अब सीएम गहलोत ने अपनी चुनावी रणनीति में आमूल चूल परिवर्तन किया है. जिसके तहत अब वो पायलट के साथ ही भाजपा के नेताओं को घेरने में जुट गए हैं. साथ ही सियासी मंचों से सरेआम भाजपा में व्याप्त आपसी गुटबाजी और नेताओं की दूरियों को लेकर बयानबाजी कर रहे हैं. लेकिन उनके बयानों में अब राजे का जिक्र आम हो गया है, क्योंकि राजे ही उनकी राह में असल रोड़ा हैं. जिसे गहलोत भी बखूबी समझ रहे हैं. ऐसे में वसंधुरा को कमजोर करने के लिए वो साम, दाम, दंड और भेद की नीति पर आगे बढ़ रहे हैं.

गहलोत के बयान के सियासी मायने : सीएम गहलोत एक ओर बिना नाम लिए सचिन पायलट के साथ मानेसर जाने वाले विधायकों के गृहमंत्री अमित शाह और केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत से पैसे लेने की बात कहते हैं तो दूसरी ओर पूर्व सीएम वसुंधरा राजे के समर्थन से सरकर बचने तक की बात कहते नजर आए. असल में गहलोत चाहते हैं कि भाजपा किसी भी सूरत में वसुंधरा राजे को अपना चेहरा न बनाए. जिससे नाराज होकर राजे बगावत करें और उसका लाभ उन्हें मिल जाए और उनकी सरकार रिपीट हो जाए. इसी लिए सबूत के तौर पर सामने कर रहे शोभारानी को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जिस तरह से खुलेआम अब यह कहते नजर आ रहे हैं कि वसुंधरा राजे ने उनकी सरकार को समर्थन नहीं दिया होता तो शायद राजस्थान में अमित शाह और गजेंद्र सिंह शेखावत उनकी सरकार गिराने में कामयाब हो जाते.

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राजे की करीबी को बनाया सबूत : इन बयानों के जरिए गहलोत एक ओर तो यह साबित करना चाहते हैं कि अमित शाह की रणनीति को राजस्थान में उन्होंने भाजपा की ही पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के सहयोग से असफल कर दिया. साथ ही सबूत के तौर पर भाजपा की विधायक शोभारानी कुशवाह को पेश कर रहे हैं. जिन्हें गहलोत को समर्थन देने पर भाजपा पार्टी से निष्कासित कर चुकी है. गहलोत शोभा रानी कुशवाहा को एक तरह से उनकी बात की सच्चाई साबित करने के लिए सबूत के तौर पर पेश कर रहे हैं कि वह जो कुछ कह रहे हैं उसमें सच्चाई है. शोभारानी कभी पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की करीबी मानी जाती थी और उन्होंने न केवल मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को समर्थन दिया, बल्कि 25 सितंबर की घटना के बाद वो भी कांग्रेस के उन विधायकों में शामिल थी, जिन्होंने स्पीकर सीपी जोशी को इस्तीफा सौंपा था.

डर से पार पाने की रणनीति : मुख्यमंत्री अशोक गहलोत राजस्थान के तीन बार मुख्यमंत्री बन चुके हैं. लेकिन दो बार वो सरकार रिपीट करवाने में नाकामयाब साबित हुए हैं. हालात यह है कि गहलोत और वसुंधरा राजे जब भी आमने-सामने होते हैं तो गहलोत किसी तरह जोड़ तोड़कर सरकार बना पाते हैं. जबकि वसुंधरा राजे बहुमत से कहीं ज्यादा सीटें जीतकर मुख्यमंत्री बनती हैं. साल 1998 में जब मुख्यमंत्री बने थे तो कांग्रेस की 153 सीटें आई थी, लेकिन जब 2003 में पहली बार वसुंधरा राजे से गहलोत सामना हुआ तो गहलोत की सरकार जनता के दरबार में पूरी तरह से फेल हो गई थी और उन्हें केवल 56 सीटों पर सिमट गई थी.

राजे से गहलोत को बड़ा खतरा : राजे के नेतृत्व में भाजपा 33 सीट से 120 सीट जीतकर सत्ता आई और वसुंधरा मुख्यमंत्री बनीं. साल 2008 में जब विधानसभा चुनाव हुए तो गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस बहुमत के आंकड़े से 5 सीटें कम जीत सकी. जिसके चलते गहलोत ने बहुजन समाज पार्टी के विधायकों को कांग्रेस में शामिल कर व निर्दलीयों का साथ लेकर जोड़तोड़ से किसी तरह सरकार बनाई. जबकि भाजपा कांग्रेस से केवल 18 सीट कम जीत सकी थी, लेकिन जब 2013 में विधानसभा चुनाव हुआ तो राजे की आंधी ऐसी चली कि कांग्रेस पार्टी केवल 21 सीटों पर सिमट कर रह गई. तब राजे के चेहरे पर 163 भाजपा के विधायक चुनाव जीते थे.

आसान नहीं गहलोत की डगर : साल 2018 के विधानसभा चुनाव में फिर गहलोत का सामना वसुंधरा राजे से हुआ तो उस समय तमाम एंटी इनकंबेंसी और जातियों की नाराजगी के बाद भी भाजपा को 73 सीटें मिली. वहीं, गहलोत इस बार भी बहुमत के आंकड़े से एक सीट पीछे रह गए थे और निर्दलीयों के समर्थन से सरकार बना सके. बाद में गहलोत ने बसपा के छह विधायकों का कांग्रेस में विलय करवा लिया, जिससे उनकी संख्या बढ़ गई.

अब एक बार फिर अशोक गहलोत के चेहरे और उनकी योजनाओं के नाम पर चुनाव लड़ने की तैयारी हो रही है. अगर फिर गहलोत का सामना वसुंधरा राजे से होता है तो गहलोत के दिमाग में पिछले चुनाव के नतीजे जरूर रहेंगे. ऐसे में गहलोत नहीं चाहते हैं कि वसुंधरा राजे को भाजपा अपना चेहरा बनाए. उन्हें पता है कि अगर राजे भाजपा की चेहरा बनी तो उनकी दिक्कतें बढ़ सकती है.

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