जयपुर. राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार का कार्यकाल 17 दिसंबर को एक साल पूरा होने जा रहा है. हालांकि कहा जाता है कि जब सरकार किसी पार्टी की प्रदेश में होती है तो ऐसे में वहां संगठन को सबसे उपर रखा जाता है. लेकिन राजस्थान में क्योंकि सचिन पायलट प्रदेश अध्यक्ष हैं और राजस्थान की सरकार में उपमुख्यमंत्री भी हैं ऐसे में संगठन को प्रदेश में सर्वोपरी नहीं माना जा सकता...
ऐसे में बात करें राजस्थान में कांग्रेस के संगठन और सरकार के साथ समन्वय की तो इसमें कुछ खट्टी मीठी बातें पूरे साल में देखने को मिली. जहां सरकार की शुरुआत इस बात के साथ हुई कि प्रदेश में सरकार का मुखिया कौन होगा जिसमें बीच का रास्ता निकला और दो बार राजस्थान के मुख्यमंत्री रहने का तजुर्बा रखने वाले अशोक गहलोत को तीसरी बार राजस्थान की सत्ता की चाबी मिली. तो वहीं सचिन पायलट को भी प्रदेश का उपमुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन इसके ठीक 4 महीने बाद ही प्रदेश में लोकसभा चुनाव आ गए जिसमें सत्ता और संगठन ने मिलकर चुनाव लड़ा.
लेकिन यह भी सच है कि इतिहास में यह पहली बार हुआ कि लगातार दो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को राजस्थान में 25 की 25 सीटें हारनी पड़ी. लोकसभा चुनाव के बाद हार की जिम्मेदारी किसी की हो इसे लेकर भी प्रदेश में बहस छिड़ गई. कई विधायकों ने इसके लिए संगठन तो कईयों ने इसके लिए सरकार को जिम्मेदार बताया बस हाल जैसे-तैसे इसके बाद संगठन और सरकार के बीच तालमेल बनाने का प्रयास हुआ.
प्रदेश प्रभारी अविनाश पांडे ने सरकार और संगठन के बीच तालमेल बैठाने का जिम्मा अपने हाथ में लिया इसके बाद प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट ने अचानक सबको यह कहकर चौंका दिया कि प्रदेश में लॉ-एंड-ऑर्डर की स्थिति सुधारने की आवश्यकता है. इसके बाद एक बार फिर से सत्ता और संगठन में खींचतान की खबरें सामने आने लगी, जिसके बाद लगातार कांग्रेस आलाकमान की ओर से दोनों नेताओं के बीच ताल-मेल सुधारने का प्रयास किया गया.
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हालांकि इसे किसी ने कभी स्वीकार नहीं किया. इसके ठीक बाद प्रदेश में सत्ता और संगठन के बीच उस समय तनाव हो गया जब बसपा के 6 विधायकों ने कांग्रेस पार्टी का दामन थाम लिया. उसके बाद भी पायलट ने कहा कि इसकी उन्हें कोई जानकारी नही थी और बसपा के विधायकों ने अपने सत्र में विकास के लिए कांग्रेस पार्टी का दामन थामा है. हालात ये है कि अब तक सभी 6 विधायक कभी प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय में नहीं आये हैं इस मामले में फिर एक बार प्रदेश प्रभारी अविनाश पांडे ने मध्यस्थता की और मामले को सुलझाया.
राजस्थान में उपचुनाव:
इसके बाद राजस्थान में मंडावा और खींवसर में हुए उपचुनाव में कांग्रेस को एक सीट मंडावा पर बड़ी जीत मिली. दूसरी सीट कांग्रेस लगातार तीन बार हारी. हालांकि इस बार जीत का अंतर काफी कम था. मंडावा पर जीत के बाद सरकार और संगठन दोनों को इसका क्रेडिट मिला. लेकिन जब प्रदेश के निकाय चुनाव को सीधे करवाने की बजाय पार्षदों द्वारा तय करने का निर्णय कांग्रेस सरकार ने ले लिया जिसके लिए कांग्रेस ने अपने ही चुनाव घोषणा पत्र में शामिल किए और सरकार बनने के साथ ही प्रदेश में लागू किए गए सीधे चुनाव के नियमों को बदलना पड़ा.
हाइब्रिड सिस्टम मॉड्यूल:
हालांकि यहां तक तो सब ठीक था लेकिन जब प्रदेश में निकाय चुनाव के लिए एक हाइब्रिड सिस्टम मॉड्यूल अपनाने की बात सामने आई उसके बाद मामला फिर से बिगड़ गया. प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट ने इसका सीधे तौर पर विरोध किया और इस नियम को अलोकतांत्रिक बताया जिसके चलते यूडीएच विभाग को बाद में स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा. जिलमें कहा गया कि केवल विशेष परिस्थितियों में ही यह नियम लागू किया जाएगा और पार्टी के अध्यक्ष को ही अधिकार लागू करने का होगा. बहरहाल इस सफाई के बाद यह मामला भी शांत हो गया.
49 में से 37 निकायों में कांग्रेस को जीत:
प्रदेश में कांग्रेस ने रिकॉर्ड 49 में से 37 निकायों में जीत दर्ज की इस जीत ने कहीं ना कहीं कांग्रेस को लोकसभा की हार से उभारा. ना सिर्फ संजीवनी का काम किया बल्कि प्रदेश में सरकार और संगठन के बीच सब ठीक नजर आ रहा है इसका संदेश भी देने की कोशिश की गई. अब सबसे बड़ी चुनौती कांग्रेस के सामने पंचायत चुनाव की है. जिसमें कांग्रेस हर हाल में जीतना चाहेगी क्योंकि निकाय चुनाव जीतने के बाद में और जिस तरीके से हमेशा कहा जाता है कि कांग्रेस गांव की पार्टी है और इसमें कांग्रेस को ही जीत मिलती है ऐसे में पहला चैलेंज कांग्रेस के सामने यह है कि पंचायत चुनाव में किस तरीके से जीत दर्ज की जाए.
सरकार और संगठन का तालमेल:
अगर प्रदेश में सत्ता और संगठन का तालमेल सही रहा तो पंचायत चुनाव को बेहतर तरीके से लड़ने की कांग्रेस के पास चुनौती होगी. वहीं प्रदेश में कांग्रेस के सामने एक चुनौती यह भी है कि किस तरीके से कांग्रेस कार्यकर्ता को राजनीतिक नियुक्तियों के जरिए एडजस्ट किया जाए. इसे लेकर भी लगातार सत्ता और संगठन के बीच तककार की खबरें आती रही है. हालांकि अभी तक राजनीतिक नियुक्तियों के अलावा कांग्रेस कार्यकर्ता नियुक्ति के लिए इंतजार कर रहे हैं. वहीं जिस तरीके से बसपा के विधायकों को गहलोत सरकार के मंत्रिमंडल में हिस्सेदारी देनी है उसे लेकर भी सत्ता और संगठन में तालमेल बनाने की एक चुनौती रहेगी.
पायलट के मुताबिक कांग्रेस का कार्यकाल संतोषजनक:
पिछले एक साल में सरकार और संगठन के बीच कई बार टकराव के हालात बने. लेकिन कहते हैं ना कि अंत भला तो सब भला. लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की गाड़ी जो पटरी से उतरी वह उपचुनाव और निकाय चुनाव में मिली जीत के बाद फिर से पटरी पर लौटती दिखाई दे रही है. और यही वजह है कि कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट सरकार के एक साल के कार्यकाल को संतोषजनक बता रहे हैं. लेकिन आने वाले वक्त में प्रदेश की गहलोत सरकार के लिए किसान, कर्जमाफी, रोजगार, जैसी समस्याओं से निपटने के लिए बड़ी चुनौती होगी.