डूंगरपुर. राजस्थान का दक्षिणांचल डूंगरपुर जिला, 15 लाख की आबादी में 73 फीसदी आदिवासी बाहुल्य. देश और दुनिया मे कोरोना वायरस की महामारी फैली तो बचाव को लेकर सबसे महत्वपूर्ण उपाय है सोशल डिस्टेंसिंग, लेकिन आदिवासी जिले डूंगरपूर में सोशल डिस्टेंसिंग का अनूठा उदाहरण देखने को मिला. जो और कहीं दिखाई नहीं देता हैं. यहां की संस्कृति और सभ्यता में भी सोशल डिस्टेंसिंग की झलक देखने को मिलती है.
कोरोना जैसी भयंकर महामारी में सोशल डिस्टेंसिंग को ही रामबाण इलाज बताया जा रहा है. यही वजह है कि देश और दुनिया में लॉकडाउन लगा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हो या अन्य मंत्री और डॉक्टर हर कोई सोशल डिस्टेंसिंग की अपील कर रहा हैं. वहीं लोग भी अब सोशल डिस्टेंसिंग का महत्व समझने लगे हैं. लेकिन आदिवासी बहुल डूंगरपुर जिले में मानों लोग पहले से ही सोशल डिस्टेंसिंग की खासियत समझ चुके थे. आदिवासी बाहुल्य डूंगरपुर जिला सीमावर्ती गुजरात राज्य से सटा है.
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अरावली पर्वत श्रृंखला से घिरे डूंगरपुर जिले में कई छोटी-बड़ी पहाड़ियां हैं. जिनमें कहीं वन क्षेत्र तो कहीं आबादी है. आदिवासी बहुल इस क्षेत्र में डूंगरपुर सहित बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ के अलावा उदयपुर और सिरोही का कुछ हिस्सा भी आता है. यहां के आदिवासी परिवारों की संस्कृति, सभ्यता, रीति-रिवाज और रहन-सहन अतिप्राचीन हैं. यहीं कारण है की यहां के लोग कभी भी एक जगह पर समुदाय में नहीं रहते बल्कि एक भाई इस पहाड़ी पर तो दूसरा भाई का घर दूसरी पहाड़ी पर ही दिखाई देगा.
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कोरोना वायरस की महामारी के बाद ईटीवी भारत की टीम डूंगरपुर शहर से सटे मांडवा गांव के हालात जानने पंहुची. तो यहां कुटुंब के भाइयों के घर भी दूर-दूर ही दिखाई दिए. यानी सोशल डिस्टेंसिंग का इससे बेहतर उदाहरण कहीं और नजर नहीं आता. घरों के बीच दूरी 200 से 300 फीट या इससे भी ज्यादा होती है. इसके अलावा घरों की सुरक्षा की लिए यहां पत्थर या ईंटों का परकोटा नहीं होता बल्कि कांटेदार बाड़ होती हैं. विशेष तरह के कांटे (स्थानीय भाषा मे थूअर) की बाड़ कही जाती है. ताकि उनके घर सुरक्षित रहे.
लॉकडाउन में काम धंधे बंद तो आर्थिक तंगी शुरूः
ईटीवी भारत की टीम ने मांडवा गांव पंहुचकर लॉकडाउन के बाद से गरीब परिवारों के जीवनयापन पर किस तरह का प्रभाव पड़ा है इस बारे में पड़ताल की तो, लोगों ने बताया कि वे मेहनत मजदूरी कर रोजाना खाने वाले लोग है. लेकिन पिछले एक महीने से लॉकडाउन के कारण काम धंधे बंद हो गए हैं. गांव के जीवा भाई, शंकर भाई, गटु भाई बताते है कि उनके परिवार में 7 से 8 सदस्य हैं. जिनमे से 2 से 3 लोग रोजाना मजदूरी करने जाते थे. दिनभर में जो कुछ कमाया उससे उस दिन का खाना और गुजारा चलता था. लेकिन लॉकडाउन के बाद से घरों में बंद हैं. ना तो काम धंधा मिल रहा है और ना ही खेती बाड़ी बची है.
सरकार ने कुछ अनाज और पैसे दिए हैं. इससे खुद का गुजारा तो जैसे तैसे हो जाता है, लेकिन आर्थिक तंगी झेलनी पड़ रही है. वहीं मवेशियों के लिए चारे-पानी का इंतजाम भी नहीं हो पा रहा. लोगों ने बताया कि जो लोग गुजरात या अन्य जगहों पर मजदूरी या अन्य काम करते थे उनके सामने भी इसी तरह का संकट हैं. इस तरह की समस्या केवल मांडवा गांव की ही नहीं बल्कि ऐसे कई परिवार है जो काम न मिलने से कई परेशानियों से जूझ रहे हैं.