जयपुर. जयगढ़ दुर्ग भारत के राज्य राजस्थान की राजधानी जयपुर में अरावली पर्वतमाला में चील का टोला नाम की पहाड़ी पर आमेर दुर्ग और मावठा झील के ऊपर और बना है. वैसे तो जयगढ़ की पहचान एशिया की सबसे बड़ी तोप को लेकर भी होती है. यहां पर एशिया की सबसे बड़ी पहियों पर चलाने वाली तोप जयबाण रखी गई है. लेकिन आज हम आपको यहां के टांके यानी वाटर स्टोरेज प्लांट के बारे में बताएंगे. जो बताता है कि किस तरीके से सैकड़ों साल पहले राजाओं ने पानी की इस भारी किल्लत को महसूस करते हुए एक अनोखी तकनीक के जरिए न केवल पानी का संग्रहण किया बल्कि एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ तक पानी को पहुंचाने के लिए 6 किलोमीटर तक की नहर भी बनाई. बारिश का पानी व्यर्थ नहीं बहे इसके लिए जल संग्रहण किया गया.
राजस्थान हमेशा से ही भीषण गर्मी के साथ पानी की भारी किल्लत से जूझता रहा है. यह दिक्कत उस वक्त ज्यादा बढ़ जाती जब राजा महाराजाओं के रहने का स्थान पहाड़ियों के पर बने किले हुआ करते थे. किलो पर किस तरीके से सुरक्षित रूप में पानी का संग्रहण किया जाए और युद्ध जैसे हालात में लंबे समय तक पानी का स्टोरेज रहे. यह एक बड़ी चुनौती थी. इसी बड़ी चुनौती को देखते हुए आज से सैकड़ों साल पहले आमेर के कच्छावा शासक मानसिंह प्रथम ने भीषण गर्मी और पानी की समस्या को देखते हुए ऐसी टेक्नोलॉजी बनाई जिसे ग्राउंड वाटर को हाथ लगाए बिना ही पानी लोगों को मिल जाता.
महाराज मानसिंह प्रथम ने 16वीं शताब्दी में जयगढ़ दुर्ग में जल संरक्षण की नई तकनीक इजाद की. दुर्ग में सात छोटे-बड़े टांके हैं जो लाइफ लाइन के रूप में पहचाने जाते हैं. अरावली पर्वतमाला की चील का टोला पर बने इस दुर्ग पर न तो बोरिंग करके ग्राउंड वाटर का इस्तेमाल किया जाता था और ना ही धरातल से यहां पानी भेजने का कोई काम होता था. इस ऊंचाई पर भी अनेक सैनिक उनके घोड़े और दुर्ग में रहने वाले लोगों के लिए पीने के पानी का जो सिस्टम बनाया गया था. उसका आज भी इस्तेमाल हो रहा है. आज भी दुर्ग की सुरक्षा में लगे गार्ड्स उनके रखरखाव में लगे अधिकारी कर्मचारियों के अलावा यहां आने वाले देशी-विदेशी पर्यटक पानी के इसी सिस्टम पर निर्भर है.
इतिहासकार राघवेंद्र सिंह मनोहर बताते हैं कि पूर्व में राजा महाराजाओं के युद्ध जैसे हालात में रहने का स्थान पहाड़ी के ऊपर बने किले हुआ करते थे. लेकिन उस वक्त भी राजस्थान में भीषण गर्मी और पानी की किल्लत बनी रहती थी. खासकर यह दिक्कत उस वक्त ज्यादा बढ़ जाती थी जब बाहरी आक्रांतओं द्वारा आक्रमण किए जाते थे. युद्ध जैसे हालात में लंबे समय तक सैनिकों और लोगों को पहाड़ी के ऊपर बने किले के अंदर रहना पड़ता था. ऐसे में उस वक्त यह बड़ी चुनौती हुआ करती थी कि अगर कोई बाहरी आक्रमण होता है तो उस वक्त लंबे समय तक किस तरह से लोगों को और सैनिकों के साथ उनके घोड़ों के लिए भी किस तरीके से पानी का संग्रहण हो.
जयगढ़ का किला अपने आप में जल संग्रहण का एक नायाब उदाहरण है. यहां पर पहाड़ियों से बहकर आने वाला पानी को व्यर्थ नहीं जाए और उसका अधिक से अधिक संग्रहण किया जाए. इसके लिए सैकड़ों साल पहले राजा मानसिंह प्रथम ने जलसंधारण की तकनीकी इजाद की. जिसके जरिए एक पहाड़ी से दूसरे पहाड़ी पर बने किले पर 6 किलोमीटर नहर के जरिए पानी एकत्रित किया जाता.
जल संरक्षण की योजना
पूर्व राजा महाराजाओं द्वारा पानी व्यर्थ नहीं बहे और पानी की एक-एक बूंद को संग्रहित किया जाए. इसको लेकर किले के निर्माण के साथ ही योजना बनाई जाती थी जिसे हम आज के दौर में या आधुनिकता के दौर में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम बोलते हैं. किलो में बने यह वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम बताते हैं कि किस तरीके से पानी की एक-एक बूंद को बचाने के लिए भी सैकड़ों वर्ष पूर्व चिंता जताई जाती थी लेकिन वर्तमान में हम धीरे-धीरे अब इस तकनीक को भूलते गए और प्रदेश में जल संकट गहराता गया.
हालात यह है कि जयपुर के बड़े क्षेत्र को डार्क जोन घोषित कर दिया गया. जयपुर का जल स्तर लगातार गिरता जा रहा है. जयपुर के आसपास या जयपुर में कोई भी ऐसा बड़ा जल स्रोत नहीं है जिसके जरिए राजधानी जयपुर के लोगों की प्यास बुझाई जा सके. जयपुर के लोगों की प्यास बुझाने के लिए 160 किलोमीटर दूर बीसलपुर परियोजना के तहत पानी लाया जा रहा है जबकि जयपुर की बसावट के साथ ही जयपुर के आसपास कई छोटे-बड़े बांध के निर्माण किए गए थे , लेकिन बढ़ते अतिक्रमण और सरकार की दूरदर्शिता अधिकारी कर्मचारियों की लापरवाही मिलीभगत से जलाशय से सूख गए हैं.