ETV Bharat / state

राजस्थान में होली के मौके पर यहां आयोजित होता है 'फूलडोल महोत्सव', 133 साल पहले शुरू हुई थी परंपरा

बारां में पिछले 133 साल से फूलडोल महोत्सव आयोजन किया जा रहा है. होली के मौके पर होने वाले इस महाोत्सव के दौरान कलश यात्रा और मायरे का भी आयोजन होता है.

author img

By

Published : Mar 21, 2019, 8:10 AM IST

बारां में आयोजित 'फूलडोल महोत्सव'


बारां. जिले के किशनगंज कस्बे में पांच दिवसीय फूलडोल महोत्सव आयोजित किया जाता है. होली के मौके पर होने वाले इस महाोत्सव की शुरूआत 133 साल पहले हुई थी और तभी से ये परंपरा बन गई. इस दौरान कलश यात्रा और मायरे का भी आयोजन होता है. इस महोत्सव के पीछे एक सक्सेना परिवार की कहानी है, जिसमें भगवान चतुर्भुज भी शामिल हैं.


लोगों के मुताबिक कस्बे के अयोध्या प्रसाद सक्सेना की कोई संतान नहीं थी. उन्होंने अपने आंगन में लगे तुलसी के बिरवा को पुत्री माना और उसका विवाह कस्बे के भगवान चतुर्भुज की प्रतिमा से करवा दिया. तभी से यहां हर साल होली पर कलश यात्रा और भगवान का मायरा सहित होली का पर्व एक महापर्व के रूप में मनाया जाता है. बताया जाता है कि इस दिन भगवान चतुर्भुज अपने परिवार के साथ ससुराल में होली खेलने के लिए जाते हैं.


इस महापर्व के दौरान कस्बे की छोटी-छोटी बच्चियां कलश यात्रा निकालकर भगवान के लिए मायरा लाने वाले उनके ननिहाल पक्ष का स्वागत करती है. इसके बाद ननिहाल पक्ष की ओर से भगवान का मायरा लाया जाता है. यहां भगवान के ननिहाल को पुजारी की पत्नी का पियर माना जाता है.


धुलंडी पर कस्बे सहित आसपास के क्षेत्र के भारी संख्या में लोग एकत्रित होते हैं. यहां दोपहर से कार्यक्रम शुरू होते हैं, जो कि अगले दिन अलसुबह तक विभिन्न कार्यक्रम यहां की संस्कृति को बनाए रखते हैं.

धुलंडी के दिन घास फूस का हाथी तैयार कर उस पर भगवान चतुर्भुज को विराजमान किया जाता है और उन्हें ससुराल तक ले जाया जाता है. इस शोभायात्रा में हजारों की संख्या में लोग एकत्रित होते हैं और गुलाल उड़ाते हुए अपना होली का पर्व धूमधाम से मनाया मनाते हैं.


इस पर्व में कई तरह की झांकियां आदिवासी संस्कृति को समेटते हुए अनूठी परंपरा की मिसाल पेश करती हैं. कई तरह के कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं. बताया ये भी जाता है कि पहले यहां गजराज भगवान को निकाला जाता था. लेकिन अब गजराज मिलना इतना आसान नहीं होता. इसलिए कृत्रिम हाथी को गांव वालों द्वारा तैयार किया जाता है. इसके अलावा यहां 3 दिनों तक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन, भजन संध्या, पुरस्कार वितरण सहित अनेक कार्यक्रम होते हैं. इसमें पूरे गांव की भागीदारी भी होती है.

बारां में आयोजित 'फूलडोल महोत्सव'


यहां मनाए जाने वाले महापर्व का नजारा देखते ही बनता है, लेकिन विडंबना ये है कि सरकार की अनदेखी के चलते आज भी आदिवासी क्षेत्र का यह महापर्व देश और विदेश में अपनी पहचान नहीं बना सका है. ये पर्व कस्बे में रहवने वाले लोग अपने स्तर पर आयोजित करते हैं.


बारां. जिले के किशनगंज कस्बे में पांच दिवसीय फूलडोल महोत्सव आयोजित किया जाता है. होली के मौके पर होने वाले इस महाोत्सव की शुरूआत 133 साल पहले हुई थी और तभी से ये परंपरा बन गई. इस दौरान कलश यात्रा और मायरे का भी आयोजन होता है. इस महोत्सव के पीछे एक सक्सेना परिवार की कहानी है, जिसमें भगवान चतुर्भुज भी शामिल हैं.


लोगों के मुताबिक कस्बे के अयोध्या प्रसाद सक्सेना की कोई संतान नहीं थी. उन्होंने अपने आंगन में लगे तुलसी के बिरवा को पुत्री माना और उसका विवाह कस्बे के भगवान चतुर्भुज की प्रतिमा से करवा दिया. तभी से यहां हर साल होली पर कलश यात्रा और भगवान का मायरा सहित होली का पर्व एक महापर्व के रूप में मनाया जाता है. बताया जाता है कि इस दिन भगवान चतुर्भुज अपने परिवार के साथ ससुराल में होली खेलने के लिए जाते हैं.


इस महापर्व के दौरान कस्बे की छोटी-छोटी बच्चियां कलश यात्रा निकालकर भगवान के लिए मायरा लाने वाले उनके ननिहाल पक्ष का स्वागत करती है. इसके बाद ननिहाल पक्ष की ओर से भगवान का मायरा लाया जाता है. यहां भगवान के ननिहाल को पुजारी की पत्नी का पियर माना जाता है.


धुलंडी पर कस्बे सहित आसपास के क्षेत्र के भारी संख्या में लोग एकत्रित होते हैं. यहां दोपहर से कार्यक्रम शुरू होते हैं, जो कि अगले दिन अलसुबह तक विभिन्न कार्यक्रम यहां की संस्कृति को बनाए रखते हैं.

धुलंडी के दिन घास फूस का हाथी तैयार कर उस पर भगवान चतुर्भुज को विराजमान किया जाता है और उन्हें ससुराल तक ले जाया जाता है. इस शोभायात्रा में हजारों की संख्या में लोग एकत्रित होते हैं और गुलाल उड़ाते हुए अपना होली का पर्व धूमधाम से मनाया मनाते हैं.


इस पर्व में कई तरह की झांकियां आदिवासी संस्कृति को समेटते हुए अनूठी परंपरा की मिसाल पेश करती हैं. कई तरह के कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं. बताया ये भी जाता है कि पहले यहां गजराज भगवान को निकाला जाता था. लेकिन अब गजराज मिलना इतना आसान नहीं होता. इसलिए कृत्रिम हाथी को गांव वालों द्वारा तैयार किया जाता है. इसके अलावा यहां 3 दिनों तक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन, भजन संध्या, पुरस्कार वितरण सहित अनेक कार्यक्रम होते हैं. इसमें पूरे गांव की भागीदारी भी होती है.

बारां में आयोजित 'फूलडोल महोत्सव'


यहां मनाए जाने वाले महापर्व का नजारा देखते ही बनता है, लेकिन विडंबना ये है कि सरकार की अनदेखी के चलते आज भी आदिवासी क्षेत्र का यह महापर्व देश और विदेश में अपनी पहचान नहीं बना सका है. ये पर्व कस्बे में रहवने वाले लोग अपने स्तर पर आयोजित करते हैं.

Intro:बारां- 133 साल पूर्व एक वाक्या ने एक ऐसी परमपारा को संजोया जो की 133 साल बाद भी एक परम्परा के रूप में कायम है जिले के किशनगंज कस्बे में पांच दिवसीय फूलडोल महोत्सव आयोजित किया जाता है इस महोत्सव के पीछे एक सक्सैना परिवार की कहानी है इस कहानी में भगवान चतुर्भुज भी शामिल है कस्बे के अयोध्या प्रसाद सक्सेना के कोई संतान नहीं थी उन्होंने अपने आंगन में लगे तुलसी के बिरवा को पुत्री माना और उनका विवाह कस्बे के भगवान चतुर्भुज की प्रतिमा से करवा दिया तभी से यहां हर वर्ष होली पर कलश यात्रा भगवान का मायरा सहित होली का पर्व एक महा पर्व के रूप में मनाया जाता है बताया जाता है कि भगवान चतुर्भुज अपने परिवार के साथ ससुराल में होली खेलने के लिए जाते हैं


Body:बाल दिवस इस महापर्व में होली के दिन कलश यात्रा और मायरे का आयोजन होता है बताया जाता है कि कस्बे की छोटी-छोटी बच्चियां कलश यात्रा निकालकर भगवान के लिए मायरा लाने वाले उनके ननिहाल पक्ष का स्वागत करती है इसके बाद ननिहाल पक्ष की ओर से भगवान का मायरा लाया जाता है यहां भगवान के ननिहाल को पुजारी की पत्नी का पियर माना जाता है और वहीं से मार डाला जाता है धुलण्डी पर वह के दिन यहां कस्बे सहित आसपास के क्षेत्र के भारी संख्या में लोग एकत्रित होते हैं यहां दोपहर से कार्यक्रम शुरू होते हैं जो कि अगले रोज भोर तक विभिन्न कार्यक्रम यहां की संस्कृति को बनाए रखते हैं धुलण्डी के दिन घास फूस का हाथी तैयार कर उस पर भगवान चतुर्भुज को विराजमान किया जाता है और उन्हें ससुराल तक ले जाया जाता है इस शोभायात्रा में हजारों की संख्या में लोग एकत्रित होते हैं और गुलाल उड़ाते हुए अपना होली का पर्व धूमधाम से मनाया मनाते हैं इस पर्व में कई तरह की झांकियां आदिवासी संस्कृति को समेटी हुई अनूठी परंपरा को मिसाल पेश करती हुई कहीं तरह के कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं बताया जाता है कि पूर्व में यहां गजराज भगवान को निकाला जाता था लेकिन अब गजराज मिलना इतना आसान नहीं होता इसलिए कृत्रिम हाथी को गांव वालों द्वारा तैयार किया जाता है इसके अलावा यहां 3 दिनों तक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन भजन संध्या पुरस्कार वितरण सहित अनेक कार्यक्रम होते हैं जिसमें पूरे गांव की भागीदारी भी होती है


Conclusion:यहां मनाए जाने वाले महापर्व का नजारा देखते ही बनता है लेकिन विडंबना यह है कि सरकार की अनदेखी के चलते आज भी आदिवासी क्षेत्र का यह महापर्व देश और विदेश में अपनी पहचान नहीं बना सका है यह पर्व कस्बे वासी अपने स्तर पर आयोजित करते हैं
ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.