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आजादी के बाद बांसवाड़ा में सबसे पहले यहां हुआ था झंडारोहण, तब से 'आजाद चौक' के नाम से मिल गई नई पहचान

बांसवाड़ा का गांधी तिराहा हो या फिर कस्टम चौराहा अथवा कुशलबाग मैदान, ये प्रमुख स्थान बांसवाड़ा शहर की एक पहचान बन चुके हैं. खासकर कुशलबाग मैदान आजादी के बाद से राजनीतिक सभाएं हों या फिर स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के जिला स्तरीय कार्यक्रमों के लिए पिछले कुछ दशकों से कुशलबाग एक प्रमुख केंद्र बन चुका है. लेकिन हम आपको शहर के आजाद चौक के इतिहास से रूबरू करवाने जा रहे हैं. जो आजादी से पहले स्वतंत्रता की अलख जगाने वाला जिले का प्रमुख केंद्र रहा है.

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स्वाधीनता की अलख जगाने वाला था धनावा बाजार
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Published : Aug 15, 2020, 8:24 PM IST

बांसवाड़ा. आजादी के बाद भी जिले के विकास का खाका खींचने में आजाद चौक का विशेष महत्व रहा है. जहां मुख्यमंत्री से लेकर समाजसेवी, स्वतंत्रता सेनानी, जनप्रतिनिधि और शिक्षाविद विकास की योजनाओं की प्लानिंग तैयार करते थे. कुल मिलाकर स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आजादी के 70 साल बाद भी आजाद चौक का महत्व कायम है.

आखिरकार शहर के अंदरूनी हिस्से में बसे आजाद चौक का नाम कब बदला और क्यों बदला? ईटीवी भारत इसकी तह में गया तो एक रोचक तथ्य उभर कर सामने आया. इसके साक्षी रहे कुछ लोगों से हमने जानकारी जुटाई तो आजाद चौक को लेकर नई जानकारी सामने आई. आजादी से पहले तक आजाद चौक धनावा के नाम से जाना जाता था. उस समय भी यह शहर का सबसे बड़ा बाजार था और पूरा शहर परकोटे में सिमटा हुआ था.

स्वाधीनता की अलख जगाने वाला था धनावा बाजार

आजादी के आंदोलन में समाज के हर वर्ग ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. मणि शंकर नागर, धूलजी भाई भावसार, सिद्धि शंकर झा, मणिलाल सुनार, मोहन सिंह, पूनमचंद सुनार, मदन लाल पाटीदार, पन्नालाल तलवाडिया, सूर्यकांत दोषी, मोतीलाल जड़िया, पन्नालाल जड़िया, चिमनलाल मालोद, यूसुफ अली और हीरालाल के अलावा तीन बार राजस्थान की कमान संभालने वाले हरिदेव जोशी आदि की तत्कालीन धनावा एक प्रकार से कर्मस्थली रही.

पढ़ें- राजस्थान के इस छोटे से कस्बे के जर्रे-जर्रे में वीरता, आऊवा ने हिला दी थी अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें

अंग्रेजों और सामंतों के खिलाफ आवाज उठाने वाले ये लोग यहीं पर एक दूसरे से चर्चा कर आगे की रणनीति तैयार करते थे. 90 वर्षीय इमरान अली बोहरा आजादी के आंदोलन के साक्षी रहे हैं. बोहरा के अनुसार अंग्रेज जब भी आते शहर के बाहर ही पड़ाव डालते थे. उस समय मार्केट में हमारी की दुकान थी और सारे लोग वहीं पर आकर आजादी पाने और समाज सुधार के संबंध में रणनीति तैयार करते थे. 15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ तो हमारी दुकान के सामने ही सबसे पहले तिरंगा झंडा फहराया गया. उसके बाद से ही चौक का नाम आजाद चौक पड़ गया.

पढ़ें- विशेष: बीकानेर का ये संग्रहालय भर देगा जज्बा, बताएगा कैसे हमारे पूर्वजों ने यातनाएं झेलकर दिलाई हमें आजादी

स्वतंत्रता सेनानी धूलजी भाई भावसार की पुत्री भारती भी आजाद चौक में झंडा फहराने की साक्षी रहीं. हालांकि उस समय वह काफी छोटी थीं, लेकिन झंडारोहण के समय उन्होंने अपनी बहन मृदुला, वीरबाला के साथ वहां राष्ट्रगान गाया था. उनका कहना है कि उस समय सामंत पृथ्वी सिंह का लोगों में काफी डर था. ऐसे में मणिशंकर नगर, उनके पिता धूलजी भाई, सूर्यकरण दोषी और मोहन सिंह आदि 16 लोगों ने मिलकर झंडारोहण किया था. उसके बाद से ही धनोहा के स्थान पर मार्केट को आजाद चौक के रूप में नई पहचान मिल गई.

पढ़ें- Special : जहांगीर ने थॉमस रो को दी 'ये' अनुमित और फिर अजमेर किले से शुरू हुई भारत की गुलामी की कहानी

हालांकि उसके बाद भी राजनीतिक सभाओं का प्रमुख केंद्र आजाद चौकी रहा. हरिदेव जोशी से लेकर मोहनलाल सुखाड़िया तक यहीं पर सभाएं करते थे. 70 के दशक के बाद राजनीतिक सभाएं और कार्यक्रम कुशलबाग मैदान में होने लगे. आजाद चौक व्यापार मंडल के अध्यक्ष अशोक बोरा के अनुसार साल 1994 में व्यापार मंडल के गठन के साथ आजाद चौक में फिर से झंडारोहण का सिलसिला शुरू किया गया. हालांकि यहां पर झंडारोहण के लिए कोई विशेष स्थान चिन्हित नहीं किया गया, लेकिन जब भी झंडारोहण किया जाता है. उसी स्थान पर झंडारोहण के साथ राष्ट्रगान का कार्यक्रम किया जाता है.

बांसवाड़ा. आजादी के बाद भी जिले के विकास का खाका खींचने में आजाद चौक का विशेष महत्व रहा है. जहां मुख्यमंत्री से लेकर समाजसेवी, स्वतंत्रता सेनानी, जनप्रतिनिधि और शिक्षाविद विकास की योजनाओं की प्लानिंग तैयार करते थे. कुल मिलाकर स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आजादी के 70 साल बाद भी आजाद चौक का महत्व कायम है.

आखिरकार शहर के अंदरूनी हिस्से में बसे आजाद चौक का नाम कब बदला और क्यों बदला? ईटीवी भारत इसकी तह में गया तो एक रोचक तथ्य उभर कर सामने आया. इसके साक्षी रहे कुछ लोगों से हमने जानकारी जुटाई तो आजाद चौक को लेकर नई जानकारी सामने आई. आजादी से पहले तक आजाद चौक धनावा के नाम से जाना जाता था. उस समय भी यह शहर का सबसे बड़ा बाजार था और पूरा शहर परकोटे में सिमटा हुआ था.

स्वाधीनता की अलख जगाने वाला था धनावा बाजार

आजादी के आंदोलन में समाज के हर वर्ग ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. मणि शंकर नागर, धूलजी भाई भावसार, सिद्धि शंकर झा, मणिलाल सुनार, मोहन सिंह, पूनमचंद सुनार, मदन लाल पाटीदार, पन्नालाल तलवाडिया, सूर्यकांत दोषी, मोतीलाल जड़िया, पन्नालाल जड़िया, चिमनलाल मालोद, यूसुफ अली और हीरालाल के अलावा तीन बार राजस्थान की कमान संभालने वाले हरिदेव जोशी आदि की तत्कालीन धनावा एक प्रकार से कर्मस्थली रही.

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अंग्रेजों और सामंतों के खिलाफ आवाज उठाने वाले ये लोग यहीं पर एक दूसरे से चर्चा कर आगे की रणनीति तैयार करते थे. 90 वर्षीय इमरान अली बोहरा आजादी के आंदोलन के साक्षी रहे हैं. बोहरा के अनुसार अंग्रेज जब भी आते शहर के बाहर ही पड़ाव डालते थे. उस समय मार्केट में हमारी की दुकान थी और सारे लोग वहीं पर आकर आजादी पाने और समाज सुधार के संबंध में रणनीति तैयार करते थे. 15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ तो हमारी दुकान के सामने ही सबसे पहले तिरंगा झंडा फहराया गया. उसके बाद से ही चौक का नाम आजाद चौक पड़ गया.

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स्वतंत्रता सेनानी धूलजी भाई भावसार की पुत्री भारती भी आजाद चौक में झंडा फहराने की साक्षी रहीं. हालांकि उस समय वह काफी छोटी थीं, लेकिन झंडारोहण के समय उन्होंने अपनी बहन मृदुला, वीरबाला के साथ वहां राष्ट्रगान गाया था. उनका कहना है कि उस समय सामंत पृथ्वी सिंह का लोगों में काफी डर था. ऐसे में मणिशंकर नगर, उनके पिता धूलजी भाई, सूर्यकरण दोषी और मोहन सिंह आदि 16 लोगों ने मिलकर झंडारोहण किया था. उसके बाद से ही धनोहा के स्थान पर मार्केट को आजाद चौक के रूप में नई पहचान मिल गई.

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हालांकि उसके बाद भी राजनीतिक सभाओं का प्रमुख केंद्र आजाद चौकी रहा. हरिदेव जोशी से लेकर मोहनलाल सुखाड़िया तक यहीं पर सभाएं करते थे. 70 के दशक के बाद राजनीतिक सभाएं और कार्यक्रम कुशलबाग मैदान में होने लगे. आजाद चौक व्यापार मंडल के अध्यक्ष अशोक बोरा के अनुसार साल 1994 में व्यापार मंडल के गठन के साथ आजाद चौक में फिर से झंडारोहण का सिलसिला शुरू किया गया. हालांकि यहां पर झंडारोहण के लिए कोई विशेष स्थान चिन्हित नहीं किया गया, लेकिन जब भी झंडारोहण किया जाता है. उसी स्थान पर झंडारोहण के साथ राष्ट्रगान का कार्यक्रम किया जाता है.

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