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नृसिंह जयंती विशेष: बीकानेर के वर्षों पुराने नृसिंह मंदिर की स्थापना की कहानी, यहां दो रूपों में विराजते हैं भगवान!

आज नृसिंह चतुर्दशी के दिन भगवान नृसिंह अवतरित हुए थे. इस दिन भगवान नृसिंह ने (Narsingh Chaturdashi) हिरण्यकश्य का वध किया था. बीकानेर में नृसिंह चतुर्दशी के दिन नृसिंह मंदिरों में मेले का आयोजन होता है लेकिन पिछले दो सालों से कोरोना के चलते श्रद्धालुओं को मंदिर में प्रवेश की इजाजत नहीं थी और न ही मेले लगता था. नृसिंह चतुर्दशी के मौके पर बीकानेर के प्राचीनतम डागा चौक स्थित नृसिंह मंदिर की खास रिपोर्ट.

Narsingh Chaturdashi
बीकानेर के सालों पुराने नृसिंह मंदिर की स्थापना की कहानी
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Published : May 14, 2022, 6:05 AM IST

बीकानेर. भगवान विष्णु ने हिरण्यकश्यप का वध करने के लिए नृसिंह अवतार लिया था और उस दिन से नृसिंह भगवान के अवतरण दिवस को नृसिंह जयंती के रूप में मनाया जाता है. बीकानेर में भी भगवान नृसिंह के पांच-छह मंदिर हैं. लेकिन इनमें सबसे प्राचीन डागा चौक और लखोटिया चौक स्थित मंदिर है. बीकानेर शहर के भीतरी क्षेत्र में करीब 450 500 साल पुराने डागा चौक स्थित नृसिंह मंदिर के स्थापना और इतिहास से जुड़ी कई रोचक कहानियां हैं. मंदिर के पुजारी मनोज पांडिया बताते हैं कि उनका परिवार पीढ़ियों से इस मंदिर में भगवान नृसिंह की पूजा कर रहा है. वे खुद भी पिछले पंद्रह सालों से पुजारी हैं.

उन्होंने बताया कि माहेश्वरी वैश्य समाज में डागा जाति के आराध्य देव के रूप में भगवान नृसिंह को पूजा (lord Narsingh worshipped on Narsingh chaturdashi) जाता है. ये मंदिर भी डागा समाज के लोगों ने ही बनवाया है और आज भी इसका संचालन डागा समाज ही करता आ रहा है. अपने पूर्वजों से मिली जानकारी को साझा करते हुए पुजारी मनोज पांडिया कहते हैं कि करीब 500 साल पहले ये देवी मंदिर हुआ करता था. लेकिन एक घटनाक्रम के बाद यहां से देवी प्रतिमाओं को यहीं से कुछ दूरी पर स्थित मूंधड़ा चौक में नया मंदिर बनाकर स्थापित कर दिया गया और भगवान नृसिंह के विग्रह को यहां स्थापित कर उनकी पूजा की जाने लगी.

बीकानेर के सालों पुराने नृसिंह मंदिर की स्थापना की कहानी

भगवान नृसिंह के दोनों रूप का एकमात्र मंदिर: भगवान नृसिंह खंभा फाड़कर प्रकट हुए थे और हिरण्यकश्यप के वध के दौरान उनका रौद्र रूप देखने को मिला था. इसके बाद भक्त प्रहलाद को दुलारते हुए उनका क्रोध शांत हुआ और वे श्याम रूप में नजर आए. पुजारी मनोज पांडिया (Bikaner Narsingh temple) कहते हैं कि भगवान नृसिंह के रौद्र रूप यानी कि भूरे नृसिंह और श्याम रूप नृसिंह के दोनों विग्रह का ये संभवत देश-प्रदेश में एकमात्र मंदिर है.

पढ़ें. जयपुर में हीरा, पन्ना और रूबी से जड़ी पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा विराजमान...18,600 कैरेट एमरल्ड स्टोन से बनी प्रतिमा

समतुल्य सोना देख कर लिए थे दोनों विग्रह: मंदिर के इतिहास से जुड़ी जानकारी बताते हुए पुजारी मनोज पांडिया कहते हैं कि पूर्व में जब यहां देवी मंदिर हुआ करता था तब मंदिर में एक धूणा हुआ करता था जहां दूर दराज से साधु-महात्मा आया करते थे. डागा जाति के लोगों ने भगवान नृसिंह के दोनों विग्रह मंदिर में स्थापित करने के लिए भेंट स्वरूप दोनों विग्रह के समतुल्य सोना महात्माओं को भेंट किया था.

Narsingh Chaturdashi
बीकानेर का नृसिंह मंदिर

सोने का आसन, अष्टधातु का मुख: मंदिर में स्थापित विग्रह के आसन और सिंहासन पूरी तरह से सोने का बना हुआ है जो इस मंदिर के प्रति डागा समाज के श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक है. मंदिर में भगवान नृसिंह का एक अष्ट धातु का मुख भी है. आज से करीब 96 साल पहले इसे मंदिर में स्थापित किया गया था. इससे पहले मुल्तानी मिट्टी से बने अलग-अलग पात्रों के मुख हुआ करते थे, हालांकि वो आज भी मंदिर में हैं और उनकी भी पूजा होती है.

अष्ट धातु के मुख का निर्माण करने में 6 महीने लगे. हर साल नृसिंह जयंती के मौके पर होने वाले मेले में अवतार लीला में भगवान नृसिंह के अवतार का पात्र निभाने वाला व्यक्ति इसको पहनता है. अष्ट धातु से बना ये मुख करीब 10 किलो का है. मेले के दिन जब पात्र इसे पहनता है और तब धीरे-धीरे इसका वजन बढ़ जाता है और करीब यह 20 किलो हो जाता है.

पढ़ें. थार के रेगिस्तान में 534 साल पहले बना यह जैन मंदिर, देसी घी से भरी गई थी नींव

चांदी की कुर्सी झूले: मंदिर में हर साल नृसिंह जयंती पर होने वाली अवतार लीला मंचन के लिए में भक्त प्रहलाद के बैठने वाली कुर्सी पूरी तरह से चांदी की बनी है. तो वहीं सावन में होने वाले आयोजन में काम आने वाले झूले भी पूरी तरह से चांदी के हैं.

दो साल बाद भरेगा मेला: बीकानेर में नृसिंह चतुर्दशी के दिन नृसिंह अवतार और हिरण्यकश्यप के वध को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग जमा होते हैं. लेकिन लगातार दो साल कोरोना के चलते ये आयोजन आमजन के लिए नहीं हुए. पुजारी और दो-चार लोगों की मौजूदगी में ही अवतार लीला का मंचन किया गया था. दो साल बाद फिर से रौनक लौटी है और लोगों में भी मेले को लेकर उत्साह देखने को मिल रहा है.

भगवान नृसिंह अवतार की लीला का मंचन के लिए चयनित होने वाले पात्र भी इसको लेकर बड़े उत्साहित हैं. 11 साल पहले भगवान नृसिंह का अवतार का पात्र निभाने वाले मनोज रंगा कहते हैं कि अपने पुरखों के साथ में इस मंदिर में आते रहे हैं. 11 साल पहले भगवान नृसिंह के अवतार का पात्र निभाया. अगर भगवान की कृपा हुई तो इस साल फिर वे नृसिंह अवतार का पात्र निभाएंगे.

पढ़ें. 400 साल पुराने लक्ष्मी नारायण मंदिर से चांदी की मूर्तियां चोरी, हार और छत्र भी चुरा ले गए चोर

लॉटरी से होता पात्र का चयन : मंदिर में पात्र के चयन को लेकर अलग प्रक्रिया है. अक्षय तृतीया के दिन देश के अलग-अलग कोने में रहने वाले मंदिर के ट्रस्टी बीकानेर आते हैं. मोहल्ले के मौजिज लोगों और पुजारी परिवार के साथ बैठक कर अलग-अलग पात्र के लिए आवेदन करने वाले व्यक्तियों की लॉटरी निकाली जाती है. जिसका लॉटरी में चयन होता है वही उस पात्र को निभाता है. इसका कारण इस प्रक्रिया को पारदर्शी रखना है. क्योंकि हर व्यक्ति भगवान नृसिंह, हिरणकश्यप और भक्त प्रहलाद के अवतार का पात्र बनना चाहता है. इसीलिए पात्रों का लॉटरी के जरिए चयन किया जाता है.

डागा जाति में हर काम से पहले भगवान नृसिंह की पूजा: मंदिर ट्रस्ट से जुड़े परिवार के एक सदस्य सुशील डागा कहते हैं कि डागा जाति में किसी भी काम की शुरुआत, शादी विवाह समारोह से पहले भगवान नृसिंह के दर्शन किए जाते हैं. किसी भी तरह के खाने के आयोजन में पहला भोग भगवान नृसिंह को चढ़ाया जाता है.

बीकानेर. भगवान विष्णु ने हिरण्यकश्यप का वध करने के लिए नृसिंह अवतार लिया था और उस दिन से नृसिंह भगवान के अवतरण दिवस को नृसिंह जयंती के रूप में मनाया जाता है. बीकानेर में भी भगवान नृसिंह के पांच-छह मंदिर हैं. लेकिन इनमें सबसे प्राचीन डागा चौक और लखोटिया चौक स्थित मंदिर है. बीकानेर शहर के भीतरी क्षेत्र में करीब 450 500 साल पुराने डागा चौक स्थित नृसिंह मंदिर के स्थापना और इतिहास से जुड़ी कई रोचक कहानियां हैं. मंदिर के पुजारी मनोज पांडिया बताते हैं कि उनका परिवार पीढ़ियों से इस मंदिर में भगवान नृसिंह की पूजा कर रहा है. वे खुद भी पिछले पंद्रह सालों से पुजारी हैं.

उन्होंने बताया कि माहेश्वरी वैश्य समाज में डागा जाति के आराध्य देव के रूप में भगवान नृसिंह को पूजा (lord Narsingh worshipped on Narsingh chaturdashi) जाता है. ये मंदिर भी डागा समाज के लोगों ने ही बनवाया है और आज भी इसका संचालन डागा समाज ही करता आ रहा है. अपने पूर्वजों से मिली जानकारी को साझा करते हुए पुजारी मनोज पांडिया कहते हैं कि करीब 500 साल पहले ये देवी मंदिर हुआ करता था. लेकिन एक घटनाक्रम के बाद यहां से देवी प्रतिमाओं को यहीं से कुछ दूरी पर स्थित मूंधड़ा चौक में नया मंदिर बनाकर स्थापित कर दिया गया और भगवान नृसिंह के विग्रह को यहां स्थापित कर उनकी पूजा की जाने लगी.

बीकानेर के सालों पुराने नृसिंह मंदिर की स्थापना की कहानी

भगवान नृसिंह के दोनों रूप का एकमात्र मंदिर: भगवान नृसिंह खंभा फाड़कर प्रकट हुए थे और हिरण्यकश्यप के वध के दौरान उनका रौद्र रूप देखने को मिला था. इसके बाद भक्त प्रहलाद को दुलारते हुए उनका क्रोध शांत हुआ और वे श्याम रूप में नजर आए. पुजारी मनोज पांडिया (Bikaner Narsingh temple) कहते हैं कि भगवान नृसिंह के रौद्र रूप यानी कि भूरे नृसिंह और श्याम रूप नृसिंह के दोनों विग्रह का ये संभवत देश-प्रदेश में एकमात्र मंदिर है.

पढ़ें. जयपुर में हीरा, पन्ना और रूबी से जड़ी पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा विराजमान...18,600 कैरेट एमरल्ड स्टोन से बनी प्रतिमा

समतुल्य सोना देख कर लिए थे दोनों विग्रह: मंदिर के इतिहास से जुड़ी जानकारी बताते हुए पुजारी मनोज पांडिया कहते हैं कि पूर्व में जब यहां देवी मंदिर हुआ करता था तब मंदिर में एक धूणा हुआ करता था जहां दूर दराज से साधु-महात्मा आया करते थे. डागा जाति के लोगों ने भगवान नृसिंह के दोनों विग्रह मंदिर में स्थापित करने के लिए भेंट स्वरूप दोनों विग्रह के समतुल्य सोना महात्माओं को भेंट किया था.

Narsingh Chaturdashi
बीकानेर का नृसिंह मंदिर

सोने का आसन, अष्टधातु का मुख: मंदिर में स्थापित विग्रह के आसन और सिंहासन पूरी तरह से सोने का बना हुआ है जो इस मंदिर के प्रति डागा समाज के श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक है. मंदिर में भगवान नृसिंह का एक अष्ट धातु का मुख भी है. आज से करीब 96 साल पहले इसे मंदिर में स्थापित किया गया था. इससे पहले मुल्तानी मिट्टी से बने अलग-अलग पात्रों के मुख हुआ करते थे, हालांकि वो आज भी मंदिर में हैं और उनकी भी पूजा होती है.

अष्ट धातु के मुख का निर्माण करने में 6 महीने लगे. हर साल नृसिंह जयंती के मौके पर होने वाले मेले में अवतार लीला में भगवान नृसिंह के अवतार का पात्र निभाने वाला व्यक्ति इसको पहनता है. अष्ट धातु से बना ये मुख करीब 10 किलो का है. मेले के दिन जब पात्र इसे पहनता है और तब धीरे-धीरे इसका वजन बढ़ जाता है और करीब यह 20 किलो हो जाता है.

पढ़ें. थार के रेगिस्तान में 534 साल पहले बना यह जैन मंदिर, देसी घी से भरी गई थी नींव

चांदी की कुर्सी झूले: मंदिर में हर साल नृसिंह जयंती पर होने वाली अवतार लीला मंचन के लिए में भक्त प्रहलाद के बैठने वाली कुर्सी पूरी तरह से चांदी की बनी है. तो वहीं सावन में होने वाले आयोजन में काम आने वाले झूले भी पूरी तरह से चांदी के हैं.

दो साल बाद भरेगा मेला: बीकानेर में नृसिंह चतुर्दशी के दिन नृसिंह अवतार और हिरण्यकश्यप के वध को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग जमा होते हैं. लेकिन लगातार दो साल कोरोना के चलते ये आयोजन आमजन के लिए नहीं हुए. पुजारी और दो-चार लोगों की मौजूदगी में ही अवतार लीला का मंचन किया गया था. दो साल बाद फिर से रौनक लौटी है और लोगों में भी मेले को लेकर उत्साह देखने को मिल रहा है.

भगवान नृसिंह अवतार की लीला का मंचन के लिए चयनित होने वाले पात्र भी इसको लेकर बड़े उत्साहित हैं. 11 साल पहले भगवान नृसिंह का अवतार का पात्र निभाने वाले मनोज रंगा कहते हैं कि अपने पुरखों के साथ में इस मंदिर में आते रहे हैं. 11 साल पहले भगवान नृसिंह के अवतार का पात्र निभाया. अगर भगवान की कृपा हुई तो इस साल फिर वे नृसिंह अवतार का पात्र निभाएंगे.

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लॉटरी से होता पात्र का चयन : मंदिर में पात्र के चयन को लेकर अलग प्रक्रिया है. अक्षय तृतीया के दिन देश के अलग-अलग कोने में रहने वाले मंदिर के ट्रस्टी बीकानेर आते हैं. मोहल्ले के मौजिज लोगों और पुजारी परिवार के साथ बैठक कर अलग-अलग पात्र के लिए आवेदन करने वाले व्यक्तियों की लॉटरी निकाली जाती है. जिसका लॉटरी में चयन होता है वही उस पात्र को निभाता है. इसका कारण इस प्रक्रिया को पारदर्शी रखना है. क्योंकि हर व्यक्ति भगवान नृसिंह, हिरणकश्यप और भक्त प्रहलाद के अवतार का पात्र बनना चाहता है. इसीलिए पात्रों का लॉटरी के जरिए चयन किया जाता है.

डागा जाति में हर काम से पहले भगवान नृसिंह की पूजा: मंदिर ट्रस्ट से जुड़े परिवार के एक सदस्य सुशील डागा कहते हैं कि डागा जाति में किसी भी काम की शुरुआत, शादी विवाह समारोह से पहले भगवान नृसिंह के दर्शन किए जाते हैं. किसी भी तरह के खाने के आयोजन में पहला भोग भगवान नृसिंह को चढ़ाया जाता है.

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