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कोरोना के प्रकोप ने बनाया 'आत्मनिर्भर' - tribal people become self reliant in shahdol

शहडोल में रहने वाले बैगा आदिवासी कोरोना काल में लगे लॉकडाउन के कारण बहुत परेशान हुए थे. यह आदिवासी परिवार छत्तीसगढ़ जाकर काम करते थे, कोरोना काल में लगे लॉकडाउन के कारण इन परिवारों को 8 से 10 दिन पैदल चलकर अपने घर तक आना पड़ा. कोरोना के इस दौर से इन आदिवासी परिवारों ने सिख ली और आत्मनिर्भर बन गए. बैगा आदिवासी परिवारों ने मिलकर खुद का ईंट बनाने का काम शुरू कर दिया. परिवार का कहना है कि अब कुछ भी हो जाए अपना खुद का काम करेंगे, लेकिन बहार नहीं जाएंगे.

Adivasi family becomes self reliant
आदिवासी परिवार बना आत्मनिर्भर
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Published : Mar 11, 2021, 10:59 PM IST

शहडोल। कोरोना काल की भयावहता और अचानक लॉकडाउन का वो दौर शायद ही कोई भूल पाए. लॉकडाउन लगने की वजह से बाहर जाकर मजदूरी करने वाले मजदूर अपने घरों की ओर वापस पैदल ही लौटने के लिए मजबूर हुए. किसी को खाना मिल भी रहा था, तो किसी को नहीं मिल रहा था. किसी का बच्चा भूखा था, तो किसी का पूरा परिवार ही भूखा रहा. लेकिन बस एक ही जिद थी कि किसी तरह घर लौटना है. क्योंकि सब कुछ बंद हो चुका था और कोरोना का डर उस दौर में इतना था कि लोग पैसे देने पर भी खाने का सामान नहीं देते थे.

कोरोना के प्रकोप ने बनाया 'आत्मनिर्भर'

एक ऐसा ही परिवार शहडोल जिले के पड़मनिया खुर्द गांव का रहने वाला है, जो बैगा आदिवासी परिवार हैं. यह परिवार शहडोल जिले से बाहर छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर में जाकर ईंट बनाने का काम करते थे. पिछले कई साल से लगातार छह-छह महीने के लिए वह मजदूरी के लिए चले जाते थे. लेकिन लॉकडाउन के दौर में जो उनके साथ बीता है. उसके बाद वो अब अपने गांव को छोड़कर कहीं नहीं जाना चाह रहे हैं. अपनी रोजी रोटी के लिए अपने हुनर को ही अपनी ताकत बना लिया और आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ते हुए अब खुद ही ईंट तैयार कर रहे हैं. सुनिए इन परिवारों की दर्द भरी कहानी ईटीवी भारत की जुबानी...

  • बैगा आदिवासी मजदूरों की नई शुरुआत

जिला मुख्यालय से लगभग 10 से 15 किलोमीटर दूर है पर पड़मनिया खुर्द ग्राम पंचायत. यहां पर कुछ बैगा आदिवासी परिवार रहते हैं, जो पहले अपने घर गुजारा करने के लिए महीनों के लिए छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर चले जाते थे. वहां पर ईंट बनाने का काम करते थे. लेकिन कोरोनावायरस और लॉकडाउन के भयावह दौर में जो उनके साथ बीती है, जिस बुरे दौर को उन्होंने देखा है उसके बाद अब उन्होंने बाहर ना जाने की कसम खा ली है. यहां कुछ बैगा आदिवासी परिवार एक साथ मिलकर अब आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ा रहे है. यह परिवार जो ईंट बनाने का हुनर उनके पास था, उसे अब उन्होंने अपनी ताकत बनाकर अपना खुद का एक छोटा सा काम शुरू किया है. अब यह बैगा आदिवासी परिवार खुद ही ईंट बनाने का काम कर रहा है. अपना काम करके ये परिवार अब काफी खुश है. उनका कहना है कि अब कुछ भी हो जाए वह काम करने के लिए बाहर नहीं जाएंगे.

Tribal family working on their own
खुद का काम कर रहा आदिवासी परिवार

बंजर जमीन पर महिलाओं ने उगा दी फसल, गौशाला चलाकर बन रही आत्मनिर्भर

  • अब मैं खुद का काम करूंगा, बाहर नहीं जाऊंगा

पड़मनिया खुर्द के रहने वाले राम भजन बैगा बताते हैं कि वो ईट बनाने का काम करते हैं. अब उन्होंने अपना खुद का काम शुरू किया है. भले ही छोटा काम कर रहे हैं. लेकिन खुद का काम रहे हैं. इससे जो पैसा मिलता है उससे अपना घर चलाते हैं. इस काम में वो अकेले नहीं हैं बल्कि उनके गांव के वो सभी साथी हैं जो उनके साथ में बाहर अंबिकापुर काम करने के लिए जाते थे. राम भजन कहते है कि जो बुरा दौर उन्होंने लॉकडाउन के दौरान देखा है उसके बाद अब उनकी हिम्मत नहीं है कि वह बाहर जाकर काम करेंगे.

  • उस दौर को याद कर आंखों में आ जाते हैं आंसू

लॉकडाउन के दौरान जिस तरह से अंबिकापुर से 8 दिन का दर्दनाक सफर तय कर अपने परिवार और छोटे-छोटे बच्चों के साथ घर वापस लौटे है. उस दौर को याद कर आज भी राम भजन बैगा की आंखों में आंसू आ जाते हैं. राम भजन बैगा बताते हैं कि लॉकडाउन हो गया था उनको पैदल सफर करना पड़ा. 8 दिन तक उन्होंने लगातार पैदल यात्रा किया पैर में उनके सूजन आ चुकी थी. बीवी बच्चे सभी परेशान हो गए लड़के बच्चे भूखे मर रहे थे. किस तरह से आया हूं. उस दौर को मैं अब याद नहीं करना चाहता. जब भी याद करता हूं आंखों में आंसू आ जाते हैं.

  • बच्चे खाना मांगते थे, लेकिन हम दे नहीं पाते थे

राम भजन बैगा की पत्नी रानी बैगा बताती हैं कि बच्चे छोटे-छोटे थे उन्हें यह पता नहीं था, कि सब कुछ बंद हो चुका है. कोरोना काल चल रहा है लॉकडाउन लग चुका है. बच्चे खाना मांगते थे रोने लगते थे, लेकिन उसके बाद भी हम लोग सिर्फ चलते जाते थे. क्योंकि हमारे पास भी उन्हें खाना देने के लिए कुछ नहीं रहता था. बस आंखों में आंसू रहते थे. और रास्ते भर सफर करते थे और लक्ष्य ही दिखता था कि कैसे भी करके घर पहुंच जाएं.

  • ये लोग खुद का कर रहे काम

राम भजन बैगा बताते हैं कि उनके गांव में उनके साथ जो अंबिकापुर ईंट बनाने के लिए मजदूरी करने जाते थे वह सभी तो उन्हीं के साथ काम करने लग गए हैं. उसी से अपना जीवन यापन कर रहे हैं. उनके साथ चार परिवार काम कर रहा है. सभी बैगा आदिवासी हैं. साथ ही एक पड़ोस के ही गांव के रिश्ते में उनके साले हैं वह भी उनके साथ जाते थे तो उन्होंने भी अपने गांव में ही ईंट बनाने का काम शुरू कर लिया है.

शहडोल। कोरोना काल की भयावहता और अचानक लॉकडाउन का वो दौर शायद ही कोई भूल पाए. लॉकडाउन लगने की वजह से बाहर जाकर मजदूरी करने वाले मजदूर अपने घरों की ओर वापस पैदल ही लौटने के लिए मजबूर हुए. किसी को खाना मिल भी रहा था, तो किसी को नहीं मिल रहा था. किसी का बच्चा भूखा था, तो किसी का पूरा परिवार ही भूखा रहा. लेकिन बस एक ही जिद थी कि किसी तरह घर लौटना है. क्योंकि सब कुछ बंद हो चुका था और कोरोना का डर उस दौर में इतना था कि लोग पैसे देने पर भी खाने का सामान नहीं देते थे.

कोरोना के प्रकोप ने बनाया 'आत्मनिर्भर'

एक ऐसा ही परिवार शहडोल जिले के पड़मनिया खुर्द गांव का रहने वाला है, जो बैगा आदिवासी परिवार हैं. यह परिवार शहडोल जिले से बाहर छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर में जाकर ईंट बनाने का काम करते थे. पिछले कई साल से लगातार छह-छह महीने के लिए वह मजदूरी के लिए चले जाते थे. लेकिन लॉकडाउन के दौर में जो उनके साथ बीता है. उसके बाद वो अब अपने गांव को छोड़कर कहीं नहीं जाना चाह रहे हैं. अपनी रोजी रोटी के लिए अपने हुनर को ही अपनी ताकत बना लिया और आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ते हुए अब खुद ही ईंट तैयार कर रहे हैं. सुनिए इन परिवारों की दर्द भरी कहानी ईटीवी भारत की जुबानी...

  • बैगा आदिवासी मजदूरों की नई शुरुआत

जिला मुख्यालय से लगभग 10 से 15 किलोमीटर दूर है पर पड़मनिया खुर्द ग्राम पंचायत. यहां पर कुछ बैगा आदिवासी परिवार रहते हैं, जो पहले अपने घर गुजारा करने के लिए महीनों के लिए छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर चले जाते थे. वहां पर ईंट बनाने का काम करते थे. लेकिन कोरोनावायरस और लॉकडाउन के भयावह दौर में जो उनके साथ बीती है, जिस बुरे दौर को उन्होंने देखा है उसके बाद अब उन्होंने बाहर ना जाने की कसम खा ली है. यहां कुछ बैगा आदिवासी परिवार एक साथ मिलकर अब आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ा रहे है. यह परिवार जो ईंट बनाने का हुनर उनके पास था, उसे अब उन्होंने अपनी ताकत बनाकर अपना खुद का एक छोटा सा काम शुरू किया है. अब यह बैगा आदिवासी परिवार खुद ही ईंट बनाने का काम कर रहा है. अपना काम करके ये परिवार अब काफी खुश है. उनका कहना है कि अब कुछ भी हो जाए वह काम करने के लिए बाहर नहीं जाएंगे.

Tribal family working on their own
खुद का काम कर रहा आदिवासी परिवार

बंजर जमीन पर महिलाओं ने उगा दी फसल, गौशाला चलाकर बन रही आत्मनिर्भर

  • अब मैं खुद का काम करूंगा, बाहर नहीं जाऊंगा

पड़मनिया खुर्द के रहने वाले राम भजन बैगा बताते हैं कि वो ईट बनाने का काम करते हैं. अब उन्होंने अपना खुद का काम शुरू किया है. भले ही छोटा काम कर रहे हैं. लेकिन खुद का काम रहे हैं. इससे जो पैसा मिलता है उससे अपना घर चलाते हैं. इस काम में वो अकेले नहीं हैं बल्कि उनके गांव के वो सभी साथी हैं जो उनके साथ में बाहर अंबिकापुर काम करने के लिए जाते थे. राम भजन कहते है कि जो बुरा दौर उन्होंने लॉकडाउन के दौरान देखा है उसके बाद अब उनकी हिम्मत नहीं है कि वह बाहर जाकर काम करेंगे.

  • उस दौर को याद कर आंखों में आ जाते हैं आंसू

लॉकडाउन के दौरान जिस तरह से अंबिकापुर से 8 दिन का दर्दनाक सफर तय कर अपने परिवार और छोटे-छोटे बच्चों के साथ घर वापस लौटे है. उस दौर को याद कर आज भी राम भजन बैगा की आंखों में आंसू आ जाते हैं. राम भजन बैगा बताते हैं कि लॉकडाउन हो गया था उनको पैदल सफर करना पड़ा. 8 दिन तक उन्होंने लगातार पैदल यात्रा किया पैर में उनके सूजन आ चुकी थी. बीवी बच्चे सभी परेशान हो गए लड़के बच्चे भूखे मर रहे थे. किस तरह से आया हूं. उस दौर को मैं अब याद नहीं करना चाहता. जब भी याद करता हूं आंखों में आंसू आ जाते हैं.

  • बच्चे खाना मांगते थे, लेकिन हम दे नहीं पाते थे

राम भजन बैगा की पत्नी रानी बैगा बताती हैं कि बच्चे छोटे-छोटे थे उन्हें यह पता नहीं था, कि सब कुछ बंद हो चुका है. कोरोना काल चल रहा है लॉकडाउन लग चुका है. बच्चे खाना मांगते थे रोने लगते थे, लेकिन उसके बाद भी हम लोग सिर्फ चलते जाते थे. क्योंकि हमारे पास भी उन्हें खाना देने के लिए कुछ नहीं रहता था. बस आंखों में आंसू रहते थे. और रास्ते भर सफर करते थे और लक्ष्य ही दिखता था कि कैसे भी करके घर पहुंच जाएं.

  • ये लोग खुद का कर रहे काम

राम भजन बैगा बताते हैं कि उनके गांव में उनके साथ जो अंबिकापुर ईंट बनाने के लिए मजदूरी करने जाते थे वह सभी तो उन्हीं के साथ काम करने लग गए हैं. उसी से अपना जीवन यापन कर रहे हैं. उनके साथ चार परिवार काम कर रहा है. सभी बैगा आदिवासी हैं. साथ ही एक पड़ोस के ही गांव के रिश्ते में उनके साले हैं वह भी उनके साथ जाते थे तो उन्होंने भी अपने गांव में ही ईंट बनाने का काम शुरू कर लिया है.

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