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National Handloom Day: एक जमाने में स्विट्जरलैंड और जापान में मशहूर थे इस गांव के प्रोडक्ट

राजगढ़ जिले की सारंगपुर तहसील का पडाना गांव बुनकरों के गांव के नाम से मशहूर है. लेकिन कोरोना काल में इस लघु उद्योग पर भारी संकट छा गया है. राष्ट्रीय हथकरघा दिवस पर देखें ये खास रिपोर्ट...

Weavers villages
बुनकरों के गांव
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Published : Aug 7, 2020, 8:40 PM IST

राजगढ़। हथकरघा वस्त्र और हथकरघा बुनकर भारतीय सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग रहे हैं. भारत में कृषि के बाद हथकरघा एक महत्वपूर्ण लघु उद्योग के रूप में जाना जाता रहा है. देश 7 अगस्त यानि आज राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मना रहा है. प्रदेश कई जिलों में आज भी ये कला जिंदा है. इन्हीं में से एक स्थान राजगढ़ जिले की सारंगपुर तहसील के पडाना गांव में है.

बुनकरों के गांव

इस गांव की आबादी करीब 10 हजार है. इसे बुनकरों के गांव के नाम से जाना जाता है. यहां के बने उत्पाद एक समय में विश्व भर में मशहूर थे. बेडशीट से लेकर पिलो कवर, गुलदस्तों का निर्यात स्विट्जरलैंड और जापान तक किया जाता था. लेकिन आधुनिकता की दौड़ में ये लघु उद्योग पिछड़ गए और अब केवल देश के कुछ महानगरों तक ही सिमट गए हैं.

सहकारी बुनकर समिति के सहायक मैनेजर कुरैश बताते हैं कि गांव में इस काम की शुरुआत 1955 में हुई थी. तब ये काम लगातार चला आ रहा है. गांव के ज्यादातर परिवारों की आमदनी बुनाई से ही होती है. लेकिन अब उनकी रोजी-रोटी पर संकट मंडरा रहा है. कोरोना काल में कच्चे माल की सप्लाई नहीं हो पा रही है. संक्रमण का भी खतरा है. लिहाजा ज्यादातर काम बंद पड़े हैं.

सरकारों ने हथकरघा को बढ़ावा देने के लिए लगातार प्रयास किए हैं. 2015 में 7 अगस्त को पहला हथकरघा दिवस मनाया गया था और इस कड़ी में आज 6वां हथकरघा दिवस मनाया जा रहा है. इसके अलावा कई योजनाएं भी हैं, लेकिन तमाम कदमों के बावजूद ये लघु उद्योग अपनी पहचान खोते जा रहे हैं.

राजगढ़। हथकरघा वस्त्र और हथकरघा बुनकर भारतीय सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग रहे हैं. भारत में कृषि के बाद हथकरघा एक महत्वपूर्ण लघु उद्योग के रूप में जाना जाता रहा है. देश 7 अगस्त यानि आज राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मना रहा है. प्रदेश कई जिलों में आज भी ये कला जिंदा है. इन्हीं में से एक स्थान राजगढ़ जिले की सारंगपुर तहसील के पडाना गांव में है.

बुनकरों के गांव

इस गांव की आबादी करीब 10 हजार है. इसे बुनकरों के गांव के नाम से जाना जाता है. यहां के बने उत्पाद एक समय में विश्व भर में मशहूर थे. बेडशीट से लेकर पिलो कवर, गुलदस्तों का निर्यात स्विट्जरलैंड और जापान तक किया जाता था. लेकिन आधुनिकता की दौड़ में ये लघु उद्योग पिछड़ गए और अब केवल देश के कुछ महानगरों तक ही सिमट गए हैं.

सहकारी बुनकर समिति के सहायक मैनेजर कुरैश बताते हैं कि गांव में इस काम की शुरुआत 1955 में हुई थी. तब ये काम लगातार चला आ रहा है. गांव के ज्यादातर परिवारों की आमदनी बुनाई से ही होती है. लेकिन अब उनकी रोजी-रोटी पर संकट मंडरा रहा है. कोरोना काल में कच्चे माल की सप्लाई नहीं हो पा रही है. संक्रमण का भी खतरा है. लिहाजा ज्यादातर काम बंद पड़े हैं.

सरकारों ने हथकरघा को बढ़ावा देने के लिए लगातार प्रयास किए हैं. 2015 में 7 अगस्त को पहला हथकरघा दिवस मनाया गया था और इस कड़ी में आज 6वां हथकरघा दिवस मनाया जा रहा है. इसके अलावा कई योजनाएं भी हैं, लेकिन तमाम कदमों के बावजूद ये लघु उद्योग अपनी पहचान खोते जा रहे हैं.

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