छिंदवाड़ा। नदी किनारे हाथों में पत्थर और मन में पत्थर से सामने वाले को लहू-लुहान करने के जुनून के साथ हर साल छिंदवाड़ा में एक अजब-गजब खेल खेला जाता है. हर साल ये खूनी खेल पोला त्योहार के दूसरे दिन खेला जाता है, जहां नदी के दोनों किनारे आमने-सामने खड़े लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं. ये खूनीखेल दुनियाभर में गोटमार खेल के नाम से प्रसिद्ध है. इस साल ये खेल 19 अगस्त का आयोजित होने वाला है.
16वीं सदी में शुरू हुआ खून का खेल
माना जाता है कि ये खेल 16वीं सदी में जाटबा राजा द्वारा दूसरे राजा पर पत्थर बरसाने के बाद एक परंपरा के रुप में शुरू हुआ है. हालांकि, इस खेल के बारे में इतिहास का कोई भी पन्ना उल्लेख नहीं करता है.
दो गांव के लोग करते हैं एक-दूसरे पर पथराव
जिला मुख्यालय से करीब 104 किलोमीटर दूर पांढुर्णा में हर साल ये अनूठा गोटमार खेल खेला जाता है. ये खेल पांढुर्णा की जाम नदी के किनारे खेला जाता है, जहां पलाश के लंबे पेड़ को नदी के बीच में एक झंडे के साथ खड़ा किया जाता है.
जाम नदी के किनारे दो गांव, पांढुर्णा और सावरगांव के लोग खड़े होकर एक-दूसरे पर पथराव करते हैं. पथराव उन लोगों के ऊपर किया जाता है, जो बीच नदी में खड़े झंडे को हटाने की कोशिश करते हैं. जिस गांव का व्यक्ति उस झंडे को वहां से हटाने में सफल हो जाता है, वह गांव विजयी माना जाता है.
पत्थरों की बौछार इस खेल के दौरान लगातार होती रहती है. पथराव तब तक नहीं रूकता जब तक झंडा नदी के बीच से हटा न लिया जाए.
मां चंडिका देवी को दिया जाता है लहू
हर साल जाटबा राजा की याद में पोला त्योहार के दूसरे दिन खूनी खेल के नाम से विख्यात पत्थरों का खेल खेलकर, हजारों की संख्या में लोग मां चंडिका देवी को लहू और पलाश के झंडे को देकर सदियों पुरानी इस खूनी परंपरा को निभा रहे हैं.
आज भी पांढुर्णा में बसी हैं जाटबा राजा की यादें
पांढुर्णा के बुजुर्ग बताते हैं कि सदियों पहले जाम नदी के किनारे जाटबा राजा का विशालकाय किला था. इस किले में आदिवासियों की ताकतवर सेनाओं का साम्राज्य था. आज भी इस किले की दीवार के अवशेष नजर आते हैं. यही नहीं, आज भी जाटबा राजा की समाधि मौजूद है, जो जर्जर अवस्था मे पड़ी हैं. इसकी सुध आज तक न तो नगर पालिका ने ली और न ही जनप्रतिनिधियों ने.
गोटमार खेल की हैं दो कहानियां-
- पत्थर बरसा जीती थी जंग
स्थानीय बुजुर्ग बताते हैं कि पांढुर्णा की जाम नदी किनारे 16वीं सदी में विशालकय किला था, जिसके राजा जाटबा थे. जाटबा नरेश का प्रभुत्व मोहखेड़े के देवगढ़ किले तक था. इस किले के पास ही मां चंडी माता का मंदिर था, जो आज भी मौजूद हैं.
जानकारों के मुताबिक राजा जाटबा चंडी माता के परम भक्त थे. एक बार नागपुर के राजा भोसले और उनकी सेना ने जाटबा नरेश के किले पर हमला कर दिया. उस समय जाटबा नरेश की सेनाओं के पास हथियार नहीं थे. ऐसे हालात में जाटबा नरेश और उनकी सेना ने किले से पत्थरों की बौछार करना शुरू कर दिया. भोसले राजा की सेना पत्थरों का मार सहन नहीं कर सकी और उन्हें परास्त होकर वापस नागपुर लौटना पड़ा.
तब से लेकर आज तक जाटबा नरेश की याद में पोला त्योहार के दूसरे दिन पांढुर्णा की जाम नदी किनारे बसे दोनों गांव के लोग एक-दूसरे पर पत्थरों की बौछार कर सदियों से चली आ रही इस परंपरा को निभाते आ रहे हैं.
- मोहब्बत की याद में बहता है जाम नदी पर खून
सदियों पुरानी गोटमार खेल की परंपरा की दूसरी कहानी में एक प्रेम प्रसंग का समावेश माना जाता है. इस खेल के बारे में दूसरी किवदंती यह है कि यहां सदियों पहले पांढुर्णा का एक युवक सावरगांव की युवती पर मोहित हो गया था.
दोनों पक्ष युवक-युवती के विवाह के लिए राजी नहीं थे. ऐसे में दोनों भादों की अमावस्या के दूसरे दिन अल सुबह विवाह बंधन में बंधने के लिए भागने लगे. इस दौरान सावरगांव पक्ष के लोग आक्रोशित हो गए और युवक-युवती को रोका गया, लेकिन दोनों नहीं माने और नदी में भागने लगे. इसके बाद विवाद की स्थिति बन गई. देखते ही देखते सावरगांव को लोगों ने युवक-युवती पर पथराव करना शुरू कर दिया.
इस बात की जानकारी जब पांढुर्णा गांव के लोगों को मिली तो वे भी पथराव करने करने लगे. इस वजह से प्रेमी-युगल की वहीं मौत हो गई. इसलिए उन्हीं की याद में भादो अमावस्या और पोला त्योहार के दूसरे दिन यह खूनी गोटमार का खेल खेला जाता है.
जाटबा नरेश की समाधि है मौजूद
सदियों पुरानी राजा जाटबा की समाधि आज भी पांढुर्णा में मौजद है, लेकिन यह समाधि इन दिनों बदहाल है. एक ओर जहां इस समाधि को सदियों बाद छत तो मिल गई है, वहीं दूसरी ओर जर्जर हो रही समाधि की सुध लेने वाला कोई नही हैं.
जाटबा नरेश के नाम से बना है नगर पालिका का एक वार्ड
पांढुर्णा में सदियों से जारी गोटमार के जनक राजा जाटबा नरेश की भले ही समाधि जर्जर अवस्था में सदियों से पड़ी हैं, लेकिन इन राजा के नाम से पांढुर्णा नगर पालिका में एक वार्ड बना हुआ है, जहां हर पांच साल बाद वार्ड की जनता, वार्ड पार्षद को चुनते हैं लेकिन यह जनप्रतिनिधि इस राजा की समाधि को देखने और उसकी मरम्मत करने के लिए कोसों दूर दिखाई दे रहे हैं.
कावले परिवार की 8वीं पीढ़ी निभा रही झंडे की परंपरा
गोटमार मेले की परंपरा सदियों से जारी हैं लेकिन पलाश रूपी झंडे की परंपरा को सावरगांव का कावले परिवार निभा रहा है. हर साल पोला त्योहार के दिन जंगल से पलाश के पेड़ को काटकर कावले परिवार घर लाकर उस झंडे की पूजा-अर्चना कर, दूसरे दिन की अल सुबह करीब चार बजे झंडे को जाम नदी के बीचों बीच स्थापित कर गोटमार मेले का आगाज करते हैं. वर्तमान में सुरेश कावले की 8वीं पीढ़ी झंडे की परंपरा निभा रही है.
कोरोना संक्रमण के कारण इस साल प्रतिंबध
प्रदेश भर में तेजी से फैल रहे कोरोना संक्रमण के चलते इस साल प्रशासन ने गोटमार खेल पर प्रतिबंध लगाया है. प्रशासन के आदेश के मुताबिक केवल झंडे की पूजा की जाएगी और उस झंडे को चंडी माता मंदिर में रखा जाएगा.