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राजशाही के गर्वीले इतिहास का गवाह है जयविलास पैलेस, अब तक कैसे बरकरार है सिंधिया राजघराने का रसूख - रसूख

देश की आजादी के बाद भी मध्यप्रदेश में इस सिंधिया राजघराने का वजूद कमजोर नहीं पड़ा. फौलाद की मजबूत सलाखों की ओट में भी बुलंदियों को छूकर अपने वजूद का एहसास कराता जयविलास पैलेज महज इमारत नहीं, गवाह है राजशाही के गर्वीले इतिहास का, जो वक्त के साथ लोकशाही में ढलता गया, लेकिन उसने अपनी राजसी शान नहीं छोड़ी.

जयविलास पेलेस
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Published : Mar 21, 2019, 10:49 AM IST

ग्वालियर। फौलाद की मजबूत सलाखों की ओट में भी बुलंदियों को छूकर अपने वजूद का एहसास कराती ये सफेद दूधिया इमारत, महज इमारत नहीं, गवाह है राजशाही के गर्वीले इतिहास का जो वक्त के साथ लोकशाही में ढलता गया, लेकिन उसने अपनी राजसी शान नहीं छोड़ी. उसने अपनी रियासत लोक को सौंप दी, लेकिन उसके झंडाबरदारों की ठसक में कोई कमी नहीं आई.

सौम्यता और हनक दोनों को एक साथ देखना हो तो इस राजघराने के साहबजादे ज्योतिरादित्य सिंधिया को देख लीजिए जो सौम्य बनने की लाख कोशिश करते हैं, लेकिन कहीं न कहीं उनकी राजसी हनक दिख ही जाती है. उनकी बुआ यशोधरा राजे और वसुंधरा राजे भी इस मामले में उनसे 19 नहीं पड़तीं. सिंधिया राजघराना अपनी इसी हनक का लोहा सदियों से मनवाता आया है.

देश की आजादी के बाद भी मध्यप्रदेश में इस राजघराने का वजूद कमजोर नहीं पड़ा. ग्वालियर राजघराने की अंतिम महारानी कहलाने वाली विजयाराजे सिंधिया ने अपने पति जीवाजी राव सिंधिया की इच्छा पर 1957 में कांग्रेस का हाथ थामकर चुनावी राजनीति में कदम रखा और गुना लोकसभा सीट से जीत दर्ज की. लेकिन, विजयराजे सिंधिया को कांग्रेस का साथ ज्यादा वक्त तक रास नहीं आया. 1967 में उन्होंने अपनी राह कांग्रेस से अलग कर ली और वे जनसंघ के साथ हो लीं.

वीडियो

कांग्रेस से अलग होने के बाद भी मध्य भारत में सिंधिया घराने की पकड़ इतनी मजबूत थी, कि 71 की इंदिरा लहर में भी जनसंघ के तीन लोग अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे. खास बात ये कि इन तीनों का किसी न किसी तरह से सिंधिया राजघराने से संबंध था. इस चुनाव में भिंड से खुद राजमाता विजयराजे सिंधिया ने जीत दर्ज की. ग्वालियर संसदीय सीट से राजपरिवार के करीबी माने जाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी को विजय श्री मिली, जबकि गुना सीट से माधवराव सिंधिया ने सियासी खाता खोला.

हालांकि माधवराव सिंधिया बाद में कांग्रेस में चले गए और केंद्र में कई मंत्रालय संभाले. इसी के साथ वो दौर शुरू हुआ जिसने सिंधिया राजघराने को दोनों पार्टियों में महत्वपूर्ण बना दिया. जहां एक ओर यशोधरा राजे और वसुंधरा राजे बीजेपी में राजमहल के रसूख को बनाए हुए हैं तो वहीं दूसरी ओर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मध्यप्रदेश कांग्रेस में अपना राज कायम किया हुआ है.

ग्वालियर। फौलाद की मजबूत सलाखों की ओट में भी बुलंदियों को छूकर अपने वजूद का एहसास कराती ये सफेद दूधिया इमारत, महज इमारत नहीं, गवाह है राजशाही के गर्वीले इतिहास का जो वक्त के साथ लोकशाही में ढलता गया, लेकिन उसने अपनी राजसी शान नहीं छोड़ी. उसने अपनी रियासत लोक को सौंप दी, लेकिन उसके झंडाबरदारों की ठसक में कोई कमी नहीं आई.

सौम्यता और हनक दोनों को एक साथ देखना हो तो इस राजघराने के साहबजादे ज्योतिरादित्य सिंधिया को देख लीजिए जो सौम्य बनने की लाख कोशिश करते हैं, लेकिन कहीं न कहीं उनकी राजसी हनक दिख ही जाती है. उनकी बुआ यशोधरा राजे और वसुंधरा राजे भी इस मामले में उनसे 19 नहीं पड़तीं. सिंधिया राजघराना अपनी इसी हनक का लोहा सदियों से मनवाता आया है.

देश की आजादी के बाद भी मध्यप्रदेश में इस राजघराने का वजूद कमजोर नहीं पड़ा. ग्वालियर राजघराने की अंतिम महारानी कहलाने वाली विजयाराजे सिंधिया ने अपने पति जीवाजी राव सिंधिया की इच्छा पर 1957 में कांग्रेस का हाथ थामकर चुनावी राजनीति में कदम रखा और गुना लोकसभा सीट से जीत दर्ज की. लेकिन, विजयराजे सिंधिया को कांग्रेस का साथ ज्यादा वक्त तक रास नहीं आया. 1967 में उन्होंने अपनी राह कांग्रेस से अलग कर ली और वे जनसंघ के साथ हो लीं.

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कांग्रेस से अलग होने के बाद भी मध्य भारत में सिंधिया घराने की पकड़ इतनी मजबूत थी, कि 71 की इंदिरा लहर में भी जनसंघ के तीन लोग अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे. खास बात ये कि इन तीनों का किसी न किसी तरह से सिंधिया राजघराने से संबंध था. इस चुनाव में भिंड से खुद राजमाता विजयराजे सिंधिया ने जीत दर्ज की. ग्वालियर संसदीय सीट से राजपरिवार के करीबी माने जाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी को विजय श्री मिली, जबकि गुना सीट से माधवराव सिंधिया ने सियासी खाता खोला.

हालांकि माधवराव सिंधिया बाद में कांग्रेस में चले गए और केंद्र में कई मंत्रालय संभाले. इसी के साथ वो दौर शुरू हुआ जिसने सिंधिया राजघराने को दोनों पार्टियों में महत्वपूर्ण बना दिया. जहां एक ओर यशोधरा राजे और वसुंधरा राजे बीजेपी में राजमहल के रसूख को बनाए हुए हैं तो वहीं दूसरी ओर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मध्यप्रदेश कांग्रेस में अपना राज कायम किया हुआ है.

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राजशाही के गर्वीले इतिहास का गवाह है जयविलास पैलेस, अब तक कैसे बरकरार है सिंधिया राजघराने का रसूख



ग्वालियर। फौलाद की मजबूत सलाखों की ओट में भी बुलंदियों को छूकर अपने वजूद का एहसास कराती ये सफेद दूधिया इमारत, महज इमारत नहीं, गवाह है राजशाही के गर्वीले इतिहास का जो वक्त के साथ लोकशाही में ढलता गया, लेकिन उसने अपनी राजसी शान नहीं छोड़ी. उसने अपनी रियासत लोक को सौंप दी, लेकिन उसके झंडाबरदारों की ठसक में कोई कमी नहीं आई.



सौम्यता और हनक दोनों को एक साथ देखना हो तो इस राजघराने के साहबजादे ज्योतिरादित्य सिंधिया को देख लीजिए जो सौम्य बनने की लाख कोशिश करते हैं, लेकिन कहीं न कहीं उनकी राजसी हनक दिख ही जाती है. उनकी बुआ यशोधरा राजे और वसुंधरा राजे भी इस मामले में उनसे 19 नहीं पड़तीं. सिंधिया राजघराना अपनी इसी हनक का लोहा सदियों से मनवाता आया है.



देश की आजादी के बाद भी मध्यप्रदेश में इस राजघराने का वजूद कमजोर नहीं पड़ा. ग्वालियर राजघराने की अंतिम महारानी कहलाने वाली विजयाराजे सिंधिया ने अपने पति जीवाजी राव सिंधिया की इच्छा पर 1957 में कांग्रेस का हाथ थामकर चुनावी राजनीति में कदम रखा और गुना लोकसभा सीट से जीत दर्ज की. लेकिन, विजयराजे सिंधिया को कांग्रेस का साथ ज्यादा वक्त तक रास नहीं आया. 1967 में उन्होंने अपनी राह कांग्रेस से अलग कर ली और वे जनसंघ के साथ हो लीं.



कांग्रेस से अलग होने के बाद भी मध्य भारत में सिंधिया घराने की पकड़ इतनी मजबूत थी, कि 71 की इंदिरा लहर में भी जनसंघ के तीन लोग अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे. खास बात ये कि इन तीनों का किसी न किसी तरह से सिंधिया राजघराने से संबंध था. इस चुनाव में भिंड से खुद राजमाता विजयराजे सिंधिया ने जीत दर्ज की. ग्वालियर संसदीय सीट से राजपरिवार के करीबी माने जाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी को विजय श्री मिली, जबकि गुना सीट से माधवराव सिंधिया ने सियासी खाता खोला.



हालांकि माधवराव सिंधिया बाद में कांग्रेस में चले गए और केंद्र में कई मंत्रालय संभाले. इसी के साथ वो दौर शुरू हुआ जिसने सिंधिया राजघराने को दोनों पार्टियों में महत्वपूर्ण बना दिया. जहां एक ओर यशोधरा राजे और वसुंधरा राजे बीजेपी में राजमहल के रसूख को बनाए हुए हैं तो वहीं दूसरी ओर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मध्यप्रदेश कांग्रेस में अपना राज कायम किया हुआ है.

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देश की आजादी के बाद भी मध्यप्रदेश में इस सिंधिया राजघराने का वजूद कमजोर नहीं पड़ा. फौलाद की मजबूत सलाखों की ओट में भी बुलंदियों को छूकर अपने वजूद का एहसास कराता जयविलास पैलेज महज इमारत नहीं, गवाह है राजशाही के गर्वीले इतिहास का, जो वक्त के साथ लोकशाही में ढलता गया, लेकिन उसने अपनी राजसी शान नहीं छोड़ी.

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