भोपाल। रहबर पार्टी, राष्ट्रीय परिवर्तन दल, परिवर्तन समाज पार्टी, महान वादी पार्टी, जैसी कई और पार्टियां हैं. जिनके नाम भले ही मतदाताओं ने ना सुने हों. लेकिन आपको जानकर हौरानी होगी कि ये पार्टियां मध्य प्रदेश के सियासी समर में अपने प्रत्याशी उतारती हैं. लेकिन इन पार्टियों के प्रत्याशी अपनी जमानत तक नहीं बचा पाते.
खास बात यह है कि मध्य प्रदेश की 28 सीटों पर हो रहे उपचुनाव में मुख्य मुकाबला भले ही बीजेपी और कांग्रेस में ही दिख रहा है. लेकिन 28 के दंगल में कई पार्टियां दांव आजमा रही हैं. जन अधिकार पार्टी, समता समाधान पार्टी, राष्ट्रीय वंचित पार्टी, भारतीय मजदूर जनता पार्टी ने उपचुनाव में अपने उम्मीदवार उतारे हैं. तो 2018 के विधानसभा चुनाव में भी 119 पार्टियां मैदान में उतरी थी. इनमें से अधिकांश पार्टियों के उम्मीदवार अपनी जमानत भी नहीं बचा पाए.
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मध्यप्रदेश में पहला विधानसभा चुनाव 1951 में हुआ था. 184 विधानसभा सीटों पर हुए इस चुनाव में 11 राष्ट्रीय पार्टियां चुनाव मैदान में उतरी थी. इनमें ऑल इंडिया, भारतीय जनसंघ, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, अखिल भारतीय हिंदू महासभा, इंडियन नेशनल कांग्रेस शामिल थी. इसके अलावा दूसरी पार्टियां भारतीय लोक कांग्रेस और एसके पक्ष भी शामिल थी. हालांकि मतदाताओं ने कांग्रेस के उम्मीदवारों को खूब समर्थन दिया. लेकिन अन्य दल अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाए. मध्य प्रदेश के चुनावी इतिहास पर नजर डाली जाए तो अब हर चुनाव में उतरने वाले राजनीतिक दलों की संख्या बढ़ती गयी है.
- 1990 और 1993 के चुनाव में 32 दल मैदान में उतरे
- 1948 में दलों की संख्या बढ़कर 41 हो गयी
- 2003 में फिर 40 दलों ने चुनाव लड़ा
- 2008 के चुनाव में 54 दलों ने चुनाव लड़ा
- 2013 के चुनाव में इन दलों की संख्या बढ़कर 67 हो गयी
- 2019 के चुनाव में अब तक के सबसे ज्यादा 119 दलों ने चुनाव लड़ा
राजनीतिक जानकारों की राय
यहां गौर करने वाली बात यह है कि जब इतने सारे दल मैदान में उतरते हैं, फिर भी मतदाता महज कुछ पार्टियों के प्रत्याशियों को ही अपना नेता क्यों चुनते हैं. इस मामले पर राजनीतिक जानकार शिवअनुराग पटेरिया कहते है. चुनावों में राजनीतिक दलों की बढ़ती संख्या दो संकेत करती है. पहली नयी राजनीतिक विचारधाराओं का उदय और दूसरा कुछ राजनीतिक दल केवल चुनाव में उतरते हैं अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाते. लेकिन इन पार्टियों का चुनाव लड़ना यह भी दर्शाता है कि राजनीति में कॉम्पिटिशन भी तेजी से बढ़ रहा है.
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प्रदेश में रहा सिर्फ राष्ट्रीय पार्टियों का बोलबाला
अब तक के सियासी इतिहास को देखा जाए तो एक साथ इतने दलों के चुनाव लड़ने पर प्रदेश की चुनावी नतीजें कभी इतने प्रभावित नहीं हुए और न ही ये पार्टियां बड़े दलों के वोट बैंक को प्रभावित कर पाई. यहां तक कि महाराष्ट्र में प्रभाव रखने वाली शिवसेना ने हर बार चुनावों में अपने उम्मीदवार उतारे. लेकिन अधिकांश उम्मीदवार अपनी जमानत भी नहीं बचा सके.
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मध्य प्रदेश की सियासत में हमेशा बीजेपी और कांग्रेस का ही दबदबा रहा है. बीएसपी और सपा को छोड़ बाकी पार्टियां कभी प्रदेश में पैर नहीं जमा पायी. यहां तक कि महाराष्ट्र में प्रभाव रखने वाली शिवसेना ने हर बार चुनावों में अपने उम्मीदवार उतारे. लेकिन अधिकांश उम्मीदवार अपनी जमानत भी नहीं बचा सके. यानि मध्य प्रदेश के सिायसी समर में पार्टियां मोर्चा तो संभालती हैं. लेकिन लड़ाई कुछ पार्टियों के बीच ही होती है.