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गढ़वा में नहीं मिल रहे हैं भगवान के खरीदार, असमंजस में शिल्पकार - मूर्ति उद्योग पर कोरोना की मार

कोरोना की मार सभी वर्गों पर पड़ी है. उद्योग धंधों की कमर टूट चुकी है. गढ़वा के मूर्तिकारों के सामने भी रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया है. भगवान विश्वकर्मा की अनेक सुंदर मूर्तियों को खरीदार नहीं मिल रहे हैं.

शिल्पकार
शिल्पकार
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Published : Sep 15, 2020, 3:37 PM IST

गढ़वाः पेट की आग बुझाने के लिए वैसे तो लोग तरह-तरह के धंधे और कारोबार करते हैं, लेकिन कुछ लोग भगवान को गढ़ने यानी बनाने और उन्हें बेचने के कारोबार से जुड़े हैं. उसी से वे अपने परिवार का भरण पोषण भी करते हैं. लेकिन कोरोना का भय इस कदर कहर ढा रहा है कि इन दिनों भगवान के खरीददार भी नहीं मिल रहे हैं.

असमंजस में शिल्पकार.

इस कारण शिल्पकारों के सामने विकट स्थिति उतपन्न हो गयी है. विदित है कि सृष्टि की रचना ब्रह्माजी ने की, लेकिन उसे आकार देने, खूबसूरत और आकर्षक बनाने का काम भगवान विश्वकर्मा ने किया.

यही वजह है कि किसी भी तरह के निर्माण कार्य को पूर्ण होने में भगवान विश्वकर्मा की कृपा मानी जाती है. इस कारण वर्ष में एक बार 17 सितम्बर को भगवान विश्वकर्मा की विशेष पूजा की जाती है. उनसे अगले एक वर्ष तक सब कुछ शुभ-शुभ होने की अर्चना की जाती है.

कई विश्वकर्माजी कर रहे हैं टेंट में खरीददार का इंतजार

तीनों लोकों में महान शिल्पकार के रूप में पूजनीय भगवान विश्वकर्मा को भू लोक में गढ़ने और खूबसूरत आकार देने का कार्य कुम्भकार यानी प्रजापति समाज के लोग करते हैं.

इनके द्वारा बनाई की मूर्तियों में 17 सितम्बर को विभिन्न प्रतिष्ठानों में प्राण-प्रतिष्ठा करायी जाती है. पूजा की जाती है. लेकिन कोरोना के कारण इस वर्ष मूर्ति के खरीददार नहीं मिल रहे है. हाथी पर सवार खूबसूरत मुखमंडल वाले कई विश्वकर्माजी निर्माण स्थल के टेंट में ही खरीददार का इंतजार कर रहे हैं.

इस वर्ष आधे से कम बनी मूर्तियां

मूर्ति कलाकार केंद्र गढ़वा के प्रधान मूर्तिकार भरत प्रजापति ने कहा कि हर वर्ष भगवान विश्वकर्मा की 30-40 मूर्तियों की बिक्री हो जाती थी. इस वर्ष मूर्तियों की कीमत आधी कर देने के बाद भी 10-11 की ही बुकिंग हुई है. वही एक अन्य मूर्तिकार रामदत्त प्रजापति ने कहा कि 50 मूर्तियों के बजाय उन्होंने इस वर्ष 25 मूर्तियां ही बनाई हैं. जिन मूर्तियों को वह 1500 में बेचते थे. उसे इस वर्ष 500 में बेच रहे हैं. उन्होंने कहा कि एक मूर्ति की लागत करीब 300 रुपये आती है.

यह भी पढ़ेंः मेयर आशा लकड़ा ने आंदोलनरत सहायक पुलिस कर्मियों से की मुलाकात, सरकार से की रेगुलर करने की मांग

रंग पेंट के अलावा उसे बनाने में एक दिन का समय लगता है. मूर्तिकारों की मानें तो कोरोना संक्रमण के दौरान वे अपनी साख को बचाने और व्यवसाय को जिंदा रखने के लिए घाटे का सौदा कर मूर्तियों का निर्माण और बिक्री कर रहे हैं. ताकि भगवान खुश हो जाएं और उनकी झोली को भी खुशियों से भर दें.

गढ़वाः पेट की आग बुझाने के लिए वैसे तो लोग तरह-तरह के धंधे और कारोबार करते हैं, लेकिन कुछ लोग भगवान को गढ़ने यानी बनाने और उन्हें बेचने के कारोबार से जुड़े हैं. उसी से वे अपने परिवार का भरण पोषण भी करते हैं. लेकिन कोरोना का भय इस कदर कहर ढा रहा है कि इन दिनों भगवान के खरीददार भी नहीं मिल रहे हैं.

असमंजस में शिल्पकार.

इस कारण शिल्पकारों के सामने विकट स्थिति उतपन्न हो गयी है. विदित है कि सृष्टि की रचना ब्रह्माजी ने की, लेकिन उसे आकार देने, खूबसूरत और आकर्षक बनाने का काम भगवान विश्वकर्मा ने किया.

यही वजह है कि किसी भी तरह के निर्माण कार्य को पूर्ण होने में भगवान विश्वकर्मा की कृपा मानी जाती है. इस कारण वर्ष में एक बार 17 सितम्बर को भगवान विश्वकर्मा की विशेष पूजा की जाती है. उनसे अगले एक वर्ष तक सब कुछ शुभ-शुभ होने की अर्चना की जाती है.

कई विश्वकर्माजी कर रहे हैं टेंट में खरीददार का इंतजार

तीनों लोकों में महान शिल्पकार के रूप में पूजनीय भगवान विश्वकर्मा को भू लोक में गढ़ने और खूबसूरत आकार देने का कार्य कुम्भकार यानी प्रजापति समाज के लोग करते हैं.

इनके द्वारा बनाई की मूर्तियों में 17 सितम्बर को विभिन्न प्रतिष्ठानों में प्राण-प्रतिष्ठा करायी जाती है. पूजा की जाती है. लेकिन कोरोना के कारण इस वर्ष मूर्ति के खरीददार नहीं मिल रहे है. हाथी पर सवार खूबसूरत मुखमंडल वाले कई विश्वकर्माजी निर्माण स्थल के टेंट में ही खरीददार का इंतजार कर रहे हैं.

इस वर्ष आधे से कम बनी मूर्तियां

मूर्ति कलाकार केंद्र गढ़वा के प्रधान मूर्तिकार भरत प्रजापति ने कहा कि हर वर्ष भगवान विश्वकर्मा की 30-40 मूर्तियों की बिक्री हो जाती थी. इस वर्ष मूर्तियों की कीमत आधी कर देने के बाद भी 10-11 की ही बुकिंग हुई है. वही एक अन्य मूर्तिकार रामदत्त प्रजापति ने कहा कि 50 मूर्तियों के बजाय उन्होंने इस वर्ष 25 मूर्तियां ही बनाई हैं. जिन मूर्तियों को वह 1500 में बेचते थे. उसे इस वर्ष 500 में बेच रहे हैं. उन्होंने कहा कि एक मूर्ति की लागत करीब 300 रुपये आती है.

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रंग पेंट के अलावा उसे बनाने में एक दिन का समय लगता है. मूर्तिकारों की मानें तो कोरोना संक्रमण के दौरान वे अपनी साख को बचाने और व्यवसाय को जिंदा रखने के लिए घाटे का सौदा कर मूर्तियों का निर्माण और बिक्री कर रहे हैं. ताकि भगवान खुश हो जाएं और उनकी झोली को भी खुशियों से भर दें.

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