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CM साहब के शहर का है यह हाल, आज भी पारंपरिक ईंधन का इस्तेमाल करने को हैं मजबूर

मुख्यमंत्री के गृहनगर में अभी भी कई लोग सरकारी योजनाओं से वंचित हैं. पीएम उज्जवला योजना, जिसे लेकर सरकार बड़े बड़े दावे कर रही है, अभी भी जरुरत मंदों तक नहीं पहुंच पाई है. आज भी पारंपरिक ईंधन इस्तेमाल करने के लिए लोग मजबूर हैं.

पारंपरिक ईंधन का इस्तेमाल करने को हैं मजबूर
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Published : Feb 3, 2019, 3:48 PM IST

जमशेदपुरः मुख्यमंत्री के गृहनगर में अभी भी कई लोग सरकारी योजनाओं से वंचित हैं. पीएम उज्जवला योजना, जिसे लेकर सरकार बड़े बड़े दावे कर रही है, अभी भी जरुरत मंदों तक नहीं पहुंच पाई है. आज भी पारंपरिक ईंधन इस्तेमाल करने के लिए लोग मजबूर हैं.


सरकार उज्जवला योजना की जोर-शोर से प्रचार करती है. लेकिन कहते हैं न दीया तले अंधेरा, कुछ ऐसा ही है जमशेदपुर में. जहां शहरी क्षेत्र के विभिन्न इलाकों में आज भी कई परिवार पारंपरिक ईंधन से ही अपना गुजारा करते हैं. पारंपरिक ईंधन जिसे 'गुल' कहते हैं. उसी पर इनके घर की रसोई चलती है.

पारंपरिक ईंधन का इस्तेमाल करने को हैं मजबूर
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गरीबी की वजह से ये न तो गैस खरीद सकते हैं और न ही लकड़ी. इसलिए पूरा परिवार पहले तो खुद से यह ईंधन बनाता है. फिर उसी पर खाना बनता है. 'गुल' से खाना बनाने में समय भी ज्यादा लगता है. साथ ही सांस से जुड़ी बीमारियों का खतरा भी बना रहता है.

पूरा परिवार दिन भर की मेहनत से बनाते हैं 'गुल'

'गुल' बनाने की प्रक्रिया भी अपने आप में बहुत जटिल है. जिसे बनाने में दिन भर का समय लग जाता है. घर की महिलाओं से लेकर बच्चे तक इसे बनाने में सुबह से ही लग जाते हैं. कोयले के चूर्ण में मिट्टी, माड़ और गोबर को साथ में मिलाकर छोटे-छोटे गोले का रुप दिया जाता है और धूप में दिनभर सुखने के लिए छोड़ दिया जाता है.

गुल के इस्तेमाल से प्रदूषण ज्यादा होता है. उससे निकलने वाले धुएं की वजह से बीमारियां भी ज्यादा होती है. इससे लोगों में सांस से जुड़ी समस्याएं देखने को मिलती हैं. इसके सबसे ज्यादा शिकार महिलाएं और बच्चे ही होते हैं. साथ ही वातावरण को भी नुकसान होता है.

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जमशेदपुरः मुख्यमंत्री के गृहनगर में अभी भी कई लोग सरकारी योजनाओं से वंचित हैं. पीएम उज्जवला योजना, जिसे लेकर सरकार बड़े बड़े दावे कर रही है, अभी भी जरुरत मंदों तक नहीं पहुंच पाई है. आज भी पारंपरिक ईंधन इस्तेमाल करने के लिए लोग मजबूर हैं.


सरकार उज्जवला योजना की जोर-शोर से प्रचार करती है. लेकिन कहते हैं न दीया तले अंधेरा, कुछ ऐसा ही है जमशेदपुर में. जहां शहरी क्षेत्र के विभिन्न इलाकों में आज भी कई परिवार पारंपरिक ईंधन से ही अपना गुजारा करते हैं. पारंपरिक ईंधन जिसे 'गुल' कहते हैं. उसी पर इनके घर की रसोई चलती है.

पारंपरिक ईंधन का इस्तेमाल करने को हैं मजबूर
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गरीबी की वजह से ये न तो गैस खरीद सकते हैं और न ही लकड़ी. इसलिए पूरा परिवार पहले तो खुद से यह ईंधन बनाता है. फिर उसी पर खाना बनता है. 'गुल' से खाना बनाने में समय भी ज्यादा लगता है. साथ ही सांस से जुड़ी बीमारियों का खतरा भी बना रहता है.

पूरा परिवार दिन भर की मेहनत से बनाते हैं 'गुल'

'गुल' बनाने की प्रक्रिया भी अपने आप में बहुत जटिल है. जिसे बनाने में दिन भर का समय लग जाता है. घर की महिलाओं से लेकर बच्चे तक इसे बनाने में सुबह से ही लग जाते हैं. कोयले के चूर्ण में मिट्टी, माड़ और गोबर को साथ में मिलाकर छोटे-छोटे गोले का रुप दिया जाता है और धूप में दिनभर सुखने के लिए छोड़ दिया जाता है.

गुल के इस्तेमाल से प्रदूषण ज्यादा होता है. उससे निकलने वाले धुएं की वजह से बीमारियां भी ज्यादा होती है. इससे लोगों में सांस से जुड़ी समस्याएं देखने को मिलती हैं. इसके सबसे ज्यादा शिकार महिलाएं और बच्चे ही होते हैं. साथ ही वातावरण को भी नुकसान होता है.

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Intro:एंकर--मुख्यमंत्री के गृह जिले लौहनगरी में प्राचीन सभ्यताओं से परिपूर्ण गुल से खाना बनाने की प्रक्रिया में गृहणियों के साथ-साथ बच्चे भी जुट चुके हैं।एक रिपोर्ट


Body:वीओ1--यह तस्वीर है लौहनगरी के शहरी इलाकों की जहाँ उज्जवला योजना से लेकर तमाम वादे किए जाते हैं,पर मिलता कुछ नहीं है,कोयला के चूर्ण में मिट्टी तथा माड़ और गोबर का इस्तेमाल करके इसे कड़ी धूप में एक या दो दिनों तक छोड़ कर  सुखाया  जाता है.तब इसे जलवान रूपी इस्तेमाल किया जाता है।
बाइट--शांति मुर्मु(स्थानीय महिला)
वीओ2--गुल से खाना बनाने की प्रक्रिया प्राचीन पद्धतियों में से एक है,एक तरफ राज्य  सरकार के द्वारा उज्जवला योजना को लेकर ढेरों वादे किए जाते हैं,वहीं समाज का एक तबका ऐसा है जिन्हें दो जून की रोटी भी मुश्किल से नसीब होती है।हर दिन 20 रुपए खर्च गुल में किया जाता है,इतने पैसे नहीं है कि लकड़ी तथा अन्य चीजों पर खाना बनाया जाए,गुल से खाना बनाने में ढेरों समय लगता है,और साँस सम्बंधी बीमारियों का खतरा भी बना रहता है
बाइट--गायत्री दास(स्थानीय महिला)


Conclusion:बहरहाल ये एक प्राचीन परंपरा का स्वरूप है जहाँ महिलाओं के द्वारा सड़क के किनारे गुल को कड़ी धूप में सुखाकर खाना बनाया जाता है,एक तरफ देश आधुनिकता की तरफ बढ़ रहा है वहीं आर्थिक क्षेत्र लौहनगरी में महिलाएँ विवश है गुल से खाना बनाने को जीवन यापन कर रही है
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